ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 154/ मन्त्र 4
ये चि॒त्पूर्व॑ ऋत॒साप॑ ऋ॒तावा॑न ऋता॒वृध॑: । पि॒तॄन्तप॑स्वतो यम॒ ताँश्चि॑दे॒वापि॑ गच्छतात् ॥
स्वर सहित पद पाठये । चि॒त् । पूर्वे॑ । ऋ॒त॒ऽसापः॑ । ऋ॒तऽवा॑नः । ऋ॒त॒ऽवृधः॑ । पि॒तॄन् । तप॑स्वतः । य॒म॒ । तान् । चि॒त् । ए॒व । अपि॑ । ग॒च्छ॒ता॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
ये चित्पूर्व ऋतसाप ऋतावान ऋतावृध: । पितॄन्तपस्वतो यम ताँश्चिदेवापि गच्छतात् ॥
स्वर रहित पद पाठये । चित् । पूर्वे । ऋतऽसापः । ऋतऽवानः । ऋतऽवृधः । पितॄन् । तपस्वतः । यम । तान् । चित् । एव । अपि । गच्छतात् ॥ १०.१५४.४
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 154; मन्त्र » 4
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 12; मन्त्र » 4
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अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 12; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(ये चित् पूर्वे) जो भी महानुभाव (ऋतसापः) अमृत का स्पर्श करनेवाले (ऋतवानः) अमृत को अपने अन्दर धारण करनेवाले (ऋतावृधः) अमृत के बढ़ानेवाले जीवन्मुक्त (तपस्वतः) तपस्वी (पितॄन्) पालकों को (यम तान्-चित्-एव-अपि-गच्छतात्) हे ब्रह्मचारिन् ! उन्हें भी प्राप्त हो ॥४॥
भावार्थ
ब्रह्मचारी को श्रेष्ठ महानुभाव अमृतभोगी तपस्वी जीवन्मुक्तों को प्राप्त करना चाहिए उनसे लाभ लेने के लिये या उन जैसा बनने के लिये ॥४॥
विषय
ऋतमय-तपस्वी - पितर
पदार्थ
[१] (ये) = जो (चित्) = निश्चय से (पूर्वे) = अपना पालन व पूरण करनेवाले हैं। शरीर को रोगों से बचाते हैं, मन में वासनाओं के कारण आ जानेवाली न्यूनताओं को दूर करते हैं । (ऋत- साप:) = [ऋत-यज्ञ व सत्य] यज्ञ व सत्य के साथ ही अपना सम्पर्क बनानेवाले [सप:- स्पर्श], (ऋतावानः) = ऋत का रक्षण करनेवाले व (ऋतावृधः) = ऋत का अपने में वर्धन करनेवाले हैं। उन (पितॄन्) = पालक वृत्तिवाले (तपस्वतः) = तपस्वियों को ही यह प्राप्त हो । [२] हे यम सब बालकों को नियम में रखनेवाले आचार्य ! (तान्) = उन ऋतमय जीवनवाले तपस्वी रक्षक वृत्तिवाले लोगों को (एव) = ही (चित्) = निश्चय से यह (अपिगच्छतात्) = प्राप्त हो। इसके गिनती भी उन ऋतमय तपस्वी पितरों में हो।
भावार्थ
भावार्थ- हमारे सन्तान ऋतमय, तपस्वी व पितृ कोटि के [रक्षणात्मक वृत्तिवाले] हों ।
विषय
सत्य, न्याय, तपादि के उपासकों, गुरु जनों के प्रति जाने का उपदेश।
भावार्थ
(ये चित् पूर्वे) जो पूर्व के, हम से पूर्व उत्पन्न, (ऋत-सापः) सत्य ज्ञान का सेवन करने वाले, (ऋतावानः) तेज वा यज्ञ के उपासक, (ऋत-वृधः) सत्य न्याय को बढ़ाने वा उसके बल से स्वयं बढ़ने वाले हैं (तान्) उन (तपस्वतः पितृन्) तपोनिष्ठ पालक, गुरुजनों को (चित्) भी हे (यम) जितेन्द्रिय ! तू (अपि गच्छतात्) अवश्य प्राप्त हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिर्यमी॥ देवता—भाववृत्तम् ॥ छन्दः–१, ३, ४ अनुष्टुप्। २, ५ निचृदनुष्टुप् ॥ पञ्चर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(ये चित् पूर्वे) ये पूर्वे महाभागाः (ऋतसापः) अमृतस्पर्शिनः “ऋतममृतमित्याह” [जे० २।१६०] “सपः सपतेः स्पृशतिकर्मणः” [निरु० ५।१६] (ऋतवानः) अमृतवन्तः “छन्दसीवनिपौ वार्तिकेन मत्वर्थे वनिप्” (ऋतावृधः) अमृतवर्धकाः-जीवन्मुक्ताः (तपस्वतः पितॄन्) तपस्विनः पालकान् (यम तान् चित्-एव-अपि गच्छतात्) हे ब्रह्मचारिन् ! तानपि खलु ह्यपि गच्छ ॥४॥
इंग्लिश (1)
Meaning
And those ancients eternally committed to the truth of law, committed to the law of truth by yajna, promoters of truth and yajna, parents and forefathers established in tapas, O soul on travel in existence, the spirit of life flows to them and through them too, eternally.
मराठी (1)
भावार्थ
ब्रह्मचाऱ्याने श्रेष्ठ महानुभाव अमृतभोगी तपस्वी जीवनमुक्तांचा संग धरावा. त्यांचा लाभ घेण्यासाठी किंवा त्यांच्यासारखे बनण्यासाठी संग करावा. ॥४॥
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