ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 157/ मन्त्र 4
ऋषिः - भुवन आप्त्यः साधनो वा भौवनः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - द्विपदात्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
ह॒त्वाय॑ दे॒वा असु॑रा॒न्यदाय॑न्दे॒वा दे॑व॒त्वम॑भि॒रक्ष॑माणाः ॥
स्वर सहित पद पाठह॒त्वाय॑ । दे॒वाः । असु॑रान् । यत् । आय॑न् । दे॒वाः । दे॒व॒ऽत्वम् । अ॒भि॒ऽरक्ष॑माणाः ॥
स्वर रहित मन्त्र
हत्वाय देवा असुरान्यदायन्देवा देवत्वमभिरक्षमाणाः ॥
स्वर रहित पद पाठहत्वाय । देवाः । असुरान् । यत् । आयन् । देवाः । देवऽत्वम् । अभिऽरक्षमाणाः ॥ १०.१५७.४
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 157; मन्त्र » 4
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 15; मन्त्र » 4
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अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 15; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(देवाः) विजय के इच्छुक सैनिक (असुरान्) दुष्ट शत्रुओं को (हत्वाय) मारकर (यत्) जब (आयन्) आते हैं, तब (देवाः-अभिरक्षमाणाः) वे विजय के इच्छुक सैनिक प्रजा की रक्षा करते हुए-करने के हेतु (देवत्वम्) विजय के इच्छुक पद को प्राप्त हुए, ऐसा सिद्ध होता है ॥४॥
भावार्थ
विजय के इच्छुक सैनिक दुष्ट शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर जब आते हैं, तब वे विजयशील पुरुष-सैनिक देवपदवी को प्राप्त होकर सब प्रजा के अभिनन्दनीय होते हैं ॥४॥
विषय
देवत्व रक्षण
पदार्थ
[१] (देवाः) = देववृत्ति के लोग (असुरान्) = आसुरवृत्तियों को (हत्वाय) = नष्ट करके (यदा) = जब (आयन्) = जीवन में गति करते हैं तो ये (देवाः) = देव (देवत्वं अभिरक्षमाणाः) = अपने देवत्व का रक्षण करनेवाले होते हैं । [२] देवों को देवत्व प्राप्त करानेवाली बात यही है कि वे आसुरवृत्तियों के आक्रमण से अपना बचाव करते हैं। काम से अपने को दूर रखते हुए वे शरीर को अक्षीण शक्ति बनाये रखते हैं। क्रोध से ऊपर उठकर वे अपने मन को शान्त रखते हैं तथा लोभ में न फँसने से उनकी बुद्धि स्थिर रहती है। वस्तुतः देव का लक्षण यही है 'स्वस्थ शरीर, शान्त मन, स्थिर बुद्धि' ।
भावार्थ
भावार्थ- हम आसुरवृत्तियों को नष्ट करके अपने जीवन में देवत्व का रक्षण करें।
विषय
विजेयच्छुक के कर्त्तव्य।
भावार्थ
(देवाः) विजिगीषु एवं विद्वान् जन (यत्) जब (असुरान् हत्वाय) अपने से प्रबल शत्रुओं का नाश करके (आयन्) आवें तो वे (देवत्वम् अभि रक्षमाणाः) अपने दानशील और तेजस्वीपन की रक्षा अवश्य करते रहें। नहीं तो वे पुनः आलसी हो जाने से पराजित हो जावेंगे।
टिप्पणी
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिर्भुवन आप्त्यः साधनो वा भौवनः। विश्वेदेवा देवताः॥ द्विपदा त्रिष्टुप् पञ्चर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(देवाः) विजिगीषवः सैनिकाः (असुरान् हत्वाय) दुष्टान् शत्रून् हत्वा (यत्-आयन्) यदा आयच्छन्ति (देवाः-अभिरक्षमाणाः) तदा ते विजिगीषवः प्रजाः खलु रक्षमाणाः (देवत्वम्) विजिगीषुत्वं प्राप्ता भवन्तीति शेषः ॥४॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Divine forces of nature and nobilities of humanity attain to their status of divine positivity when they come together to preserve, protect and promote the positive forces and destroy the demonic forces of negativity and destruction.
मराठी (1)
भावार्थ
विजयाचे इच्छुक सैनिक दुष्ट शत्रूंवर विजय प्राप्त करतात तेव्हा ते सैनिक देवपदवीला प्राप्त होऊन सर्व प्रजेत अभिनंदनास प्राप्त होतात. ॥४॥
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