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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 163 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 163/ मन्त्र 1
    ऋषिः - विवृहा काश्यपः देवता - यक्ष्मघ्नम् छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    अ॒क्षीभ्यां॑ ते॒ नासि॑काभ्यां॒ कर्णा॑भ्यां॒ छुबु॑का॒दधि॑ । यक्ष्मं॑ शीर्ष॒ण्यं॑ म॒स्तिष्का॑ज्जि॒ह्वाया॒ वि वृ॑हामि ते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒क्षीभ्या॑म् । ते॒ । नासि॑काभ्याम् । कर्णा॑भ्याम् । छुबु॑कात् । अधि॑ । यक्ष्म॑म् । शी॒र्ष॒ण्य॑म् । म॒स्तिष्का॑त् । जि॒ह्वायाः॑ । वि । वृ॒हा॒मि॒ । ते॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अक्षीभ्यां ते नासिकाभ्यां कर्णाभ्यां छुबुकादधि । यक्ष्मं शीर्षण्यं मस्तिष्काज्जिह्वाया वि वृहामि ते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अक्षीभ्याम् । ते । नासिकाभ्याम् । कर्णाभ्याम् । छुबुकात् । अधि । यक्ष्मम् । शीर्षण्यम् । मस्तिष्कात् । जिह्वायाः । वि । वृहामि । ते ॥ १०.१६३.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 163; मन्त्र » 1
    अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 21; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (3)

    विषय

    इस सूक्त में शरीर के भिन्न-भिन्न अङ्गों की चिकित्सा करनी चाहिए, सो कैसे-कैसे, यह देखना चाहिए।

    पदार्थ

    (ते) हे रोगी ! तेरे (अक्षीभ्याम्) दोनों आखों से (नासिकाभ्याम्) नासिका के दोनों छिद्रों से (कर्णाभ्याम्) दोनों कानों से (छुबुकात्-अधि) मुख से (मस्तिष्कात्) मस्तिष्क के अन्दर से (जिह्वायाः) जिह्वा के अन्दर से (ते) तेरे (शीर्षण्यम्) शिर में होनेवाले (यक्ष्मम्) रोग को (विवृहामि) दूर करता हूँ ॥१॥

    भावार्थ

    आँख, कान, नाक और मुख के रोगों को तथा मस्तक और शिर के प्रधान रोगों को दूर करना चाहिए ॥१॥

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    विषय

    सिर से रोग का निराकरण [शीर्षण्य दोष निराकरण]

    पदार्थ

    [१] हे रुग्ण पुरुष ! मैं 'विवृहा काश्यप' (ते) = तेरी (अक्षीभ्याम्) = आँखों से, (नासिकाभ्याम्) = नासिका छिद्रों से, (कर्णाभ्याम्) = कानों से (छुबुकाद् अधि) = ठोड़ी से (यक्ष्मम्) = रोग को (विवृहामि) = उखाड़ फेंकता हूँ, रोग का समूलोन्मूलन किये देता हूँ। [२] (शीर्षण्यम्) = सिर में बैठे रोग को दूर करता हूँ । (मस्तिष्कात्) = शिर के अन्तःस्थित मांस विशेष से तथा (जिह्वायाः) = जिह्वा से (ते) = तेरे इस रोग को विनष्ट करता हूँ । इस प्रकार तेरे शिरोभाग को निर्दोष बनाता हूँ ।

    भावार्थ

    भावार्थ- ज्ञानी वैद्य सिर के सब रोगों का निराकरण करता है ।

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    विषय

    यक्ष्मघ्न सूक्त।

    भावार्थ

    मैं (ते अक्षीभ्यां यक्ष्मं अधि वि वृहामि) तेरी आंखों में से रोगकारक कारण को दूर करूं। (ते नासिकाभ्यां, ते कर्णाभ्याम्) तेरी नासिकाओं से और कानों से और (छुबुकाद् अधि) तेरी ठोड़ी से भी रोग को दूर करूं और (शीर्षण्यं यक्ष्मं) सिर में बैठे रोग को (मस्तिकात्) मस्तिष्क से और (जिह्वायाः) जीभ से भी दूर करूं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिविंवृहा काश्यपः॥ देवता यक्ष्मध्नम्॥ छन्द:- १, ६ अनुष्टुप्। २-५ निचृदनुष्टुप्॥ षडृचं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अत्र सूक्ते शरीरस्य भिन्नभिन्नाङ्गानां रोगस्य चिकित्साकरणं विधीयते, कथं कथं च द्रष्ट्रव्यमिति।

    पदार्थः

    (ते) हे रोगिन् ! तव (अक्षीभ्याम्) नेत्राभ्याम् (नासिकाभ्याम्) नासिकाछिद्राभ्याम् (कर्णाभ्याम्) श्रोत्राभ्याम् (छुबुकात्-अधि) मुखादपि “कः सप्त खानि विततर्द शीर्षणि कर्णाविमौ नासिके चक्षणी मुखम्” [अथर्व० १०।२।६] “छुबुकं मुखम्” [वैद्यक-शब्दसिन्धुः] (मस्तिष्कात्) मस्तकस्याभ्यन्तरात् (जिह्वायाः) रसनायाः (ते) तव (शीर्षण्यं यक्ष्मं विवृहामि) शीर्षगतं रोगं पृथक् करोमि ॥१॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    I eliminate the consumptive disease from your eyes, nostrils, ears, mouth, head, fore head and tongue.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    नेत्र, कान, नाक व मुखाच्या रोगांना व मस्तक आणि डोके यांच्या मुख्य रोगांना दूर केले पाहिजे. ॥१॥

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