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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 167 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 167/ मन्त्र 3
    ऋषिः - विश्वामित्रजमदग्नी देवता - लिङ्गोक्ताः छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    सोम॑स्य॒ राज्ञो॒ वरु॑णस्य॒ धर्म॑णि॒ बृह॒स्पते॒रनु॑मत्या उ॒ शर्म॑णि । तवा॒हम॒द्य म॑घव॒न्नुप॑स्तुतौ॒ धात॒र्विधा॑तः क॒लशाँ॑ अभक्षयम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सोम॑स्य । राज्ञः॑ । वरु॑णस्य । धर्म॑णि । बृह॒स्पतेः॑ । अनु॑ऽमत्याः । ऊँ॒ इति॑ । शर्म॑णि । तव॑ । अ॒हम् । अ॒द्य । म॒घ॒ऽव॒न् । उप॑ऽस्तुतौ । धातः॑ । विऽधा॑त॒रिति॒ विऽधा॑तः । क॒लशा॑न् । अ॒भ॒क्ष॒य॒म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सोमस्य राज्ञो वरुणस्य धर्मणि बृहस्पतेरनुमत्या उ शर्मणि । तवाहमद्य मघवन्नुपस्तुतौ धातर्विधातः कलशाँ अभक्षयम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सोमस्य । राज्ञः । वरुणस्य । धर्मणि । बृहस्पतेः । अनुऽमत्याः । ऊँ इति । शर्मणि । तव । अहम् । अद्य । मघऽवन् । उपऽस्तुतौ । धातः । विऽधातरिति विऽधातः । कलशान् । अभक्षयम् ॥ १०.१६७.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 167; मन्त्र » 3
    अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 25; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (मघवन्) हे ऐश्वर्यवन् राजन् ! (धातः) राष्ट्र के धारण करनेवाले ! (विधातः) राष्ट्र के चलानेवाले ! (अहम्-अद्य) मैं सम्प्रति (तव सोमस्य राज्ञः) तुझ सोम गुणवाले राजा की (उपस्तुतौ) राजसूययज्ञ में प्रशंसा पद पर (वरुणस्य) तुझ वरनेवाले जनगण के (धर्मणि) धारण-निर्धारण-निर्वाचन में (बृहस्पतेः) घोषित करनेवाले पुरोहित के तथा (अनुमत्याः) अनुमोदन करनेवाली सभा के (उ शर्मणि) सदन में-सभाभवन में (कलशान्-अभक्षयम्) कलाविभागों, गणविभागों या वर्णविभागों को भेदरहितता से-भोगों का भागी बनाता हूँ ॥३॥

    भावार्थ

    युवराज जब राजसूययज्ञ द्वारा अभिषिक्त किया जावे और राष्ट्र का धारण करनेवाला चलानेवाला बने, तो उसके इस प्रशंसापद पर जनप्रतिनिधिगण द्वारा निर्वाचन तथा राजसभा द्वारा अनुमोदन हो जाने के पश्चात् प्रजा के गणों या वर्णों को भेदभाव के बिना राष्ट्र के सुखभोगों का समान अधिकार होना चाहिये ॥३॥

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    विषय

    कलश-भक्षण

    पदार्थ

    [१] शरीर में आहार से उत्पन्न होनेवाली अन्तिम धातु वीर्य है। इसी में शरीरस्थ सब कलाओं का निवास है । 'कलाः शेरते ऽस्मिन्' इस व्युत्पत्ति से इस वीर्य को 'कलश' कहा गया है। इन (कलशान्) = वीर्यकणों का (अभक्षयम्) = मैं भक्षण करता हूँ, इन्हें अपने शरीर में ही सुरक्षित करने का प्रयत्न करता हूँ। [२] इस वीर्य को मैं कब धारण करता हूँ ? [क] जब कि (सोमस्य राज्ञः वरुणस्य धर्मणि) = सोम राजा के व वरुण के धर्म में चलता हूँ। उदीची [उत्तर] दिक् का अधिपति 'सोम' है। इस सोमरक्षण का कर्म 'विनीतता' है। विनीतता के कारण ही इसकी उन्नति बनी रहती है। वरुण का धर्म प्रत्याहार है, यह 'प्रतीची' दिक् का अधिपति है । प्रत्याहार से, इन्द्रियों को विषयों से, प्रत्याहृत करने से मनुष्य पाप से बचा रहता है। एवं 'विनीतता व प्रत्याहार' वीर्यरक्षण के प्रथम साधन हैं। [ख] (उ) = और (बृहस्पतेः) = बृहस्पति के और (अनुमत्याः) = अनुमति के (शर्मणि) = शरण में मैं वीर्यरक्षण करनेवाला बनता हूँ । 'बृहस्पति' ऊर्ध्वा दिक् का अधिपति है । सर्वोत्कृष्ट ज्ञान शिखर पर यह पहुँचनेवाला है। ज्ञान - शिखर पर पहुँचने में लगा हुआ मैं सोम का रक्षण कर पाता हूँ । अनुकूल मति भी सोमरक्षण में सहायक होती है, द्वेष, ईर्ष्या, क्रोध आदि के भाव वीर्यरक्षण के अनुकूल नहीं है । [३] हे (मघवन्) = ऐश्वर्यशालिन् ! (विधातः) = सब सृष्टि का निर्माण करनेवाले व (धातः) = धारण करनेवाले प्रभो ! (अहम्) = मैं (अद्य) = आज (तव) = तेरी (उपस्तुतौ) = स्तुति में व उपासना में इन वीर्यकणों का रक्षण करता हूँ । प्रभु का स्मरण मुझे वासनाओं से बचाता है और वीर्यरक्षण के योग्य बनाता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- वीर्यरक्षण के साधन ये हैं- [क] विनीत बनना, [ख] पापवृत्ति से दूर होना, इन्द्रियों को विषयों में जाने से रोकना, [ग] ऊँचे से ऊँचे ज्ञान की प्राप्ति में लगे रहना, [घ] ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध में न फँसना, [ङ] प्रभु का स्मरण [निर्माण व धारण के कर्मों में लगे रहना]।

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    विषय

    सर्वशासक प्रभु के अधीन रह कर हम सब ऐश्वर्य का भोग करें।

    भावार्थ

    हे (मघवन्) उत्तम ऐश्वर्य के स्वामिन् ! मैं (राज्ञः सोमस्य) दीप्तिमान् सर्वोत्पादक, सबके शासक, (वरुणस्य) सर्वश्रेष्ठ, (बृहस्पतेः) महान् विश्व के पालक प्रभु के (धर्मणि) धारण, शासन और (अनु-मत्याः) सबको अनुमति देने वाली आज्ञापक शक्ति की (शर्मणि) शरण या वश में रहता हुआ और हे (घातः विधातः) समस्त जगत् के धारक, उत्पादक और संहारक प्रभो ! (तव उपस्तुतौ) तेरे उपदेश के अधीन रह कर ही मैं जीव (कलशान्) इन नाना देहों का (अभक्षयम्) सेवन या भोग करता हूं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः विश्वामित्रजमदग्नी॥ देवता—१, २, ४ इन्द्रः। ३ लिङ्गोक्ताः॥ छन्दः—१ आर्चीस्वराड् जगती। २, ४ विराड् जगती। ३ जगती॥ चतुर्ऋचं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (मघवन्) हे ऐश्वर्यवन् राजन् ! (धातः) राष्ट्रस्य धारयितः ! (विधातः) राष्ट्रस्य चालयितः (अहम्-अद्य) अहं सम्प्रति (तव सोमस्य राज्ञः) तव सोम्यस्य-सोमगुणवतो राज्ञः (उपस्तुतौ) प्रशंसापदे राजसूये (वरुणस्य) त्वां वरयितुर्जनगणस्य (धर्मणि) धारणे (बृहस्पतेः) अनुमत्याः ( उ शर्मणि) घोषयितुः पुरोहितस्य तथानुमतिदात्र्याः सभायाः खलु सदने (कलशान्-अभक्षयम्) कलाविभागाः समस्तप्रजाजनानां विभागाः-खल्वभेदेन येषु सन्ति तथाभूतान् भोगान् भोजयामि प्रयच्छामि राजसूये ब्रह्मा वदति ॥३॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O Maghavan, lord of power and glory, Dhata, ruler, Vidhata, controller of the state and its administration, this day I invite you to the holy investiture and to take over the various departments and institutions of the state in the ruling order of the law of Soma, peace, and Varuna, justice, in the house of Brhaspati, supreme presiding power, and Anumati, will of the nation.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    युवराज राजसूय यज्ञाद्वारे अभिषिक्त केला जातो. तेव्हा त्याने राष्ट्राचे धारण करणारा व शासन करणारा बनावे. त्याच्या पदाला लोकप्रतिनिधी व राज्यसभेचे अनुमोदन झाल्यावर वर्णाच्या भेदभावाशिवाय सर्वांना सुख भोगाचा समान अधिकार असावा. ॥३॥

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