साइडबार
ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 178/ मन्त्र 2
ऋषिः - अरिष्टनेमिस्तार्क्ष्यः
देवता - तार्क्ष्यः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
इन्द्र॑स्येव रा॒तिमा॒जोहु॑वानाः स्व॒स्तये॒ नाव॑मि॒वा रु॑हेम । उर्वी॒ न पृथ्वी॒ बहु॑ले॒ गभी॑रे॒ मा वा॒मेतौ॒ मा परे॑तौ रिषाम ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑स्यऽइव । रा॒तिम् । आ॒ऽजोहु॑वानाः । स्व॒स्तये॑ । नाव॑म्ऽइव । आ । रु॒हे॒म॒ । उर्वी॒ इति॑ । न । पृथ्वी॒ इति॑ । बहु॑ले॒ इति॑ । गभी॑रे॒ इति॑ । मा । वा॒म् । आऽइ॑तौ । मा । परा॑ऽइतौ । रि॒षा॒म॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रस्येव रातिमाजोहुवानाः स्वस्तये नावमिवा रुहेम । उर्वी न पृथ्वी बहुले गभीरे मा वामेतौ मा परेतौ रिषाम ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्रस्यऽइव । रातिम् । आऽजोहुवानाः । स्वस्तये । नावम्ऽइव । आ । रुहेम । उर्वी इति । न । पृथ्वी इति । बहुले इति । गभीरे इति । मा । वाम् । आऽइतौ । मा । पराऽइतौ । रिषाम ॥ १०.१७८.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 178; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 36; मन्त्र » 2
Acknowledgment
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 36; मन्त्र » 2
Acknowledgment
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(इन्द्रस्य-इव) विद्युन्मय वायु का (रातिम्) दान अर्थात् जलदान को (आजोहुवानाः) भलीभाँति ग्रहण करते हुए (स्वस्तये) कल्याण के लिए (नावम्-इव) नौका पर जैसे (आ रुहेम) चढ़ें, वैसे सुख का अनुभव करें (उर्वी पृथ्वी) महान् प्रथित (बहुले गभीरे) विशाल गहन आकाशभूमि (वाम्) तुम उन दोनों के ऊपर (आ-इतौ परा-इतौ) वायु को आश्रित करके आने में और जाने में (मा रिषाम) हम हिंसित न हों ॥२॥
भावार्थ
विद्युन्मय वायु की प्रेरणा से मेघ का जल मिलता है-पृथ्वी पर गिरता है वह कल्याण देने के लिए, जैसे नौका पर चढ़कर सुख का अनुभव करते हैं, ऐसे ही विद्युन्मय वायु को आश्रित करके भूमि से आकाश को और आकाश से भूमि पर विमान द्वारा आने-जाने में पीड़ित नहीं होते हैं, इस प्रकार से विमानयात्रा करनी चाहिये ॥२॥
विषय
दान की वृत्ति
पदार्थ
[१] (इन्द्रस्य इव) = इन्द्र की तरह (रातिम्) = दान को (आजोहुवानाः) = निरन्तर करते हुए, लोकहित के लिये अपने धन की आहुति देते हुए, (स्वस्तये) = कल्याण के लिये नावं इव भवसागर को तैरने के लिये नाव के समान इस शरीर में (आरुहेम) = अधिष्ठित हों। शरीर को हम भवसागर को पार करने के लिये साधनभूत नाव समझें। इस पर आरूढ़ होकर हम सदा दान देनेवाले बनें। [२] हमारे लिये द्यावापृथिवी (उर्वी न) = अत्यन्त विशाल होने की तरह (पृथ्वी) = विस्तृत शक्तिवाले हों, (बहुले गभीरे) = अत्यन्त गम्भीर हों । हे द्यावापृथिवी ! (वाम्) = आपके (एतौ) = आने पर (मा रिषाम) = हम मत हिंसित हों, और (परेतौ) = जाने पर भी (मा) = मत हिंसित हों। हमारा शरीर विस्तृत शक्तिवाला हो [पृथ्वी] तो हमारा ज्ञान गम्भीर हो [ गभीरे] । ऐसे द्यावापृथिवी के होने पर ये द्यावापृथिवी हमें प्राप्त हों, या हमारे से पृथक् हों तो हम सुखी व दुःखी नहीं होते। ऐसे द्यावापृथिवी के होने पर न तो हम ऐहलौकिक गति में [एतौ ] और ना ही पारलौकिक गति में [परेतौ] हिंसित हों । हम अभ्युदय को भी प्राप्त हों और निःश्रेयस को भी प्राप्त होनेवाले हों ।
भावार्थ
भावार्थ- हम दान की वृत्तिवाले हों। शरीर को विस्तृत शक्तिवाला व मस्तिष्क को गम्भीर ज्ञानवाला बनायें। ऐसे बनकर हम इनकी प्राप्ति व अप्राप्ति में समवृत्तिवाले हों ।
विषय
प्रभु के तुल्य गुण। विद्युत् के द्वारा यन्त्रों का प्रयोग उनसे आकाश स्थलादि का विवरण।
भावार्थ
हम (इन्द्रस्य इव रातिम्) उस परमैश्वर्यवान् प्रभु के तुल्य विद्युत् के ही दान को (आजोहुवानाः) पुनः पुनः प्राप्त करते हुए (स्वस्तये) कल्याण के लिये (नावम् इव) नौका के तुल्य ही (उर्वी पृथ्वी बहुले गभीरे) बहुत गंभीर, विस्तृत, विशाल पृथ्वी आकाश इन दोनों को (आरुहेम) आरूढ़ हों, उन पर यन्त्रों द्वारा विचरें। आकाश पृथ्वी दोनों में हम (आ इतो परा इतौ) आते और जाते समय भी (मा रिषाम) पीड़ित न हों।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिररिष्टनेमिस्तार्क्ष्यः॥ देवता—तार्क्ष्यः॥ छन्द:- १ विराट् त्रिष्टुप्। २ निचृत् त्रिष्टुप्। ३ त्रिष्टुप्॥ तृचं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(इन्द्रस्य-इव रातिम्) तस्य विद्युन्मयस्य वायोः “यः-इन्द्रः स वायुः” [शत० ४।१।३।१९] “इवोऽपि दृश्यते” [निरु० १।१०] ‘पदपूरणः’ रातिं दानं जलम् (आजोहुवानाः) समन्तादाददानाः (स्वस्तये नावम्-इव आ रुहेम) कल्याणाय नौकामारुहेमेति यथा तथा सुखमनुभवेम अथ च (उर्वी पृथ्वी बहुले गभीरे) महत्यौ प्रथिते विशाले गहने द्यावापृथिव्यौ-आकाशभूमी (वाम्) युवयोस्तयोरुपरि (आ-इतौ परा-इतौ मा रिषाम) वायुमाश्रित्या-गमने परागमने न हिंसिता भवेम ॥२॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Invoking Tarkshya, wind and electric energy, studying and exploring the power for all round well being as the gift of Indra, divine lord of energy, we wish to use it like a boat across the seas to overcome the problems we face. O earth, O sky, both vast and deep as well as abundant, may we never be hurt while this energy travels hither and back far off in circuit over and across you both.
मराठी (1)
भावार्थ
विद्युतमय वायूच्या प्ररेणेने मेघाचे जल प्राप्त होते. ते पृथ्वीवर सर्वांच्या कल्याणासाठी पडते. जसे नौकेत चढून सुखाचा अनुभव घेता येतो. तसेच विद्युतमय वायूला आश्रित करून भूमीपासून आकाशात व आकाशातून भूमीवर विमानद्वारे येण्या-जाण्याने त्रस्त होणार नाही, अशा प्रकारे विमान यात्रा केली पाहिजे. ॥२॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal