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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 18 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 18/ मन्त्र 7
    ऋषिः - सङ्कुसुको यामायनः देवता - पितृमेधः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    इ॒मा नारी॑रविध॒वाः सु॒पत्नी॒राञ्ज॑नेन स॒र्पिषा॒ सं वि॑शन्तु । अ॒न॒श्रवो॑ऽनमी॒वाः सु॒रत्ना॒ आ रो॑हन्त॒ं जन॑यो॒ योनि॒मग्रे॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒माः । नारीः॑ । अ॒वि॒ध॒वाः । सु॒ऽपत्नीः॑ । आ॒ऽअञ्ज॑नेन । स॒र्पिषा॑ । सम् । वि॒श॒न्तु॒ । अ॒न॒श्रवः॑ । अ॒न॒मी॒वाः । सु॒ऽरत्नाः॑ । आ । रो॒ह॒न्तु॒ । जन॑यः । योनि॑म् । अग्रे॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इमा नारीरविधवाः सुपत्नीराञ्जनेन सर्पिषा सं विशन्तु । अनश्रवोऽनमीवाः सुरत्ना आ रोहन्तं जनयो योनिमग्रे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इमाः । नारीः । अविधवाः । सुऽपत्नीः । आऽअञ्जनेन । सर्पिषा । सम् । विशन्तु । अनश्रवः । अनमीवाः । सुऽरत्नाः । आ । रोहन्तु । जनयः । योनिम् । अग्रे ॥ १०.१८.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 18; मन्त्र » 7
    अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 27; मन्त्र » 2
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (इमाः-अविधवाः-सुपत्नीः-नारीः-आञ्जनेन सर्पिषा संविशन्तु) ये जीवित पतिवाली सुशील नारियाँ भली प्रकार नेत्रमुखप्रक्षालन के कारण जल का सेवन करें (अनश्रवः-अनमीवाः सुरत्नाः-जनयः अग्रे योनिम्-आरोहन्तु) आँसू रहित हुई स्वस्थ युवतियाँ पूर्व से ही घर में आ विराजें ॥७॥

    भावार्थ

    शव के साथ जानेवाली स्त्रियाँ जो पतिवाली और युवति हों, वे किसी जलाशय तक पहुँचकर वहाँ नेत्र मुख आदि धोकर पुनः आँसू रहित स्वस्थ हुई घर को वापिस चली आवें ॥७॥

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    विषय

    घर में स्त्री का सर्वप्रमुख स्थान

    पदार्थ

    [१] गत मन्त्र में गृहस्थिति को उत्तम बनाने के लिये उद्योग का संकेत था । गृह की उत्तमता में सर्वप्रथम स्थान स्त्री का है। सो उनका उल्लेख करते हुए कहते हैं कि- (इमा: नारी:) = ये गृह को आगे ले चलनेवाली नारियाँ [नृनये] (अविधवा:) = अविधवा हों । दीर्घजीवी पतियों को प्राप्त करके ये सदा अपने सौभाग्य को स्थिर रखनेवाली हों। साथ ही (सुपत्नी:) = [शोभनाः पत्योः यासाम्] ये उत्तम पतियों वाली हों। जहाँ ये स्वयं पातिव्रत्य धर्म का पालन करनेवाली हों, वहाँ इनके पति भी एक पत्नीव्रत के धर्म को सुन्दरता से निबाहनेवाले हों। [२] ये पत्नियाँ (आञ्जनेन) = शरीर को सर्वतः अलंकृत करनेवाले सर्पिषा घृत के साथ सं विशन्तु घरों में सम्यक् प्रवेश करनेवाली हों । अर्थात् जिस गोघृत के सेवन से शरीर, मन व मस्तिष्क सभी दीप्त बने रहते हैं उस गोघृत की घर में इन्हें कमी न हो। घर में गौ होगी तो जीवन के लिये आवश्यक इन घृत आदि पदार्थों की कमी होगी ही क्यों कर ? [३] इन्हें कभी दरिद्रता के कारण रोना न पड़े। (अनश्रवः) = ये अश्रु वाली न हों। घर में लक्ष्मी के निवास के कारण सदा उल्लास व प्रसन्नता बनी रहे । पति ने श्रम के द्वारा घर को लक्ष्मी का निवास स्थान बना देना है। घर में नमक, तेल व ईंधन का ही रोना न होता रहे । [४] (अनमीवा:) = व्यवस्थित व संयत जीवन के कारण ये सदा नीरोग हों। नीरोग माताएँ ही नीरोग सन्तति को जन्म देती हैं। [५] (सुरत्नाः) = ये स्त्रियाँ उत्तम रमणीय पदार्थों वाली हों अथवा इन्हें उत्तम आभूषणों की कमी न हो। ये (जनयः) = उत्तम सन्तानों को जन्म देनेवाली गृहिणियाँ योनिम् अग्रे आरोहन्तु घर में सर्वमुख्य स्थान में स्थित हों । इनका घर में उचित आदर हो । वस्तुतः घर का निर्माण इन्होंने ही करना है। जितना अधिक इनका उत्तरदायित्व है उतना ही अधिक इनका मान भी है। मनु के शब्दों में एक माता सौ पिताओं के बराबर है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - घरों में स्त्रियों का स्थान प्रमुख हो । इन्हें घर के निर्माण के लिये सब आवश्यक वस्तुएँ सुलभ हों। इनका अपना शरीर पूर्ण स्वस्थ हो ।

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    विषय

    स्त्रियें पति-वियुक्त न हों। वे सदा मान-आदर पद का पावें। पति के बाद भी स्त्री पुत्रादि के पालन के लिये जीवित रहे। पुत्र न हो तो नियोग से पुत्रोत्पत्ति करले।

    भावार्थ

    (इमाः) ये (अविधवाः) पति से अविरहित (नारीः) स्त्रियें (सु-पत्नीः) उत्तम पति से युक्त और पति की उत्तम धर्मपत्नी होकर (आंजनेन सर्पिषा) देह पर लगाने योग्य घृतादि गंधयुक्त पदार्थ से सुशोभित होकर (सं विशन्तु) अपने गृह में प्रवेश किया करें वा पतियों का संग किया करें। वे (अनश्रवः) आंसुओं से रहित, (अनमीवाः) रोग से रहित, (सुरत्नाः) सुन्दर रत्न, आभूषणादि वा रम्य गुणों, व्यवहारों वाली (जनयः) उत्तम सन्तानों को उत्पन्न करने में समर्थ स्त्रियें (अग्रे) प्रथम, आदरपूर्वक (योनिम् आ रोहन्तु) गृह में आवें, वा रथ, सेज, आसन आदि पर बैठें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सङ्कुसुको यामायन ऋषिः॥ देवताः–१–मृत्युः ५ धाता। ३ त्वष्टा। ७—१३ पितृमेधः प्रजापतिर्वा॥ छन्द:- १, ५, ७–९ निचृत् त्रिष्टुप्। २—४, ६, १२, १३ त्रिष्टुप्। १० भुरिक् त्रिष्टुप्। ११ निचृत् पंक्तिः। १४ निचृदनुष्टुप्। चतुर्दशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (इमाः-अविधवाः-सुपत्नीः-नारीः-आञ्जनेन सर्पिषा संविशन्तु) इमाः सपतिकाः सुपत्न्यो नार्यः, ‘अत्र सर्वत्र विभक्तिव्यत्ययः’। समन्तादञ्जनेन नेत्रमुखप्रक्षालनहेतुना सर्पिषा ‘सर्पिरुदकं’ सङ्गृह्णन्तु। “सर्पिरुदकनाम” [नि०१।१२] ‘विभक्तिव्यत्ययः’ (अनश्रवः-अनमीवाः सुरत्नाः-जनयः-अग्रे योनिं-आरोहन्तु) अश्रुरहिताः-रोगरहिताः-स्वस्थाः सुरमणा जनयः-युवतयः पूर्वत एव योनिम्-गृहं, आरोहन्तु-अधितिष्ठन्तु ॥७॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Let these women, noble wives living with their husbands, enter and live in their homes, and let them, decked with jewels with beauty aids, creams and unguents, free from sorrow and ill health and blest with noble children, move forward high in life.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    शवाबरोबर जाणाऱ्या सधवा व युवती-स्त्रिया एखाद्या जलाशयापर्यंत पोचून तेथे नेत्र व मुख प्रक्षालन करून पुन्हा अश्रूरहित व स्वस्थ होऊन घरी परत याव्यात ॥७॥

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