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ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 189/ मन्त्र 2
ऋषिः - सार्पराज्ञी
देवता - सार्पराज्ञी सूर्यो वा
छन्दः - विराड्गायत्री
स्वरः - षड्जः
अ॒न्तश्च॑रति रोच॒नास्य प्रा॒णाद॑पान॒ती । व्य॑ख्यन्महि॒षो दिव॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒न्तरिति॑ । च॒र॒ति॒ । रो॒च॒ना । अ॒स्य । प्रा॒णात् । अ॒प॒ऽअ॒न॒ती । वि । अ॒ख्य॒त् । म॒हि॒षः । दिव॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अन्तश्चरति रोचनास्य प्राणादपानती । व्यख्यन्महिषो दिवम् ॥
स्वर रहित पद पाठअन्तरिति । चरति । रोचना । अस्य । प्राणात् । अपऽअनती । वि । अख्यत् । महिषः । दिवम् ॥ १०.१८९.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 189; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 47; मन्त्र » 2
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अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 47; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(अस्य) इस सूर्य की (रोचना) दीप्ति (प्राणात्) उदय से (अपानती) अस्तमयपर्यन्त जाती हुई (अन्तः-चरति) दोनों उदय और अस्त के मध्य में या-द्युलोक के बीच में फैलती है, (महिषः) महान् सूर्य (दिवं व्यख्यत्) द्युलोक के प्रति प्रसिद्ध होता है ॥२॥
भावार्थ
उदय से लेकर अस्तपर्यन्त सूर्य की दीप्ति पृथिवी और द्युलोक के बीच में फैलती है, महान् सूर्य जबकि आकाश में प्रकाशमान होता है ॥२॥
विषय
प्रभु की रोचना
पदार्थ
[१] जिस समय एक मनुष्य साधना को करता हुआ इस कुण्डलिनी का जागरण करता है तो (अस्य अन्तः) = इसके अन्दर (रोचना) = प्रभु की दीप्ति (चरति) = गतिवाली होती है, इसके हृदयदेश में प्रभु की दीप्ति का प्रकाश होता है । यह रोचना (प्राणात्) = इसके अन्दर प्राण शक्ति का संचार करती है और अपानती अपान के द्वारा शोधन रूप कार्य को करती है । [२] इस प्रकार प्राण व अपान के कार्यों के ठीक प्रकार से होने पर यह (महिषः) = प्रभु का पुजारी [मह पूजायाम्] (दिव्यम्) = प्रकाश को (व्यख्यत्) = विशेषरूप से देखता है। इसका हृदय दिव्य प्रकाश से दीप्त हो उठता है।
भावार्थ
भावार्थ - योगसाधना से साधक का हृदय प्रभु की दीप्ति से दीप्त हो उठता है । उसकी प्राणापान शक्ति ठीक प्रकार से विकसित होती है ।
विषय
प्रभु का शक्तिप्रकाश। आत्मा के प्राणापान कर्म।
भावार्थ
(अस्य रोचना) इस आत्मा की रुचिकारक, दीप्ति चेतना ही (प्राणात् अपानती) प्राण ग्रहण करती और अपान का कर्म करती है। इसीसे (महिषः) वह महान् आत्मा सूर्यवत् (दिवम् वि अख्यत्) द्यौः, ब्रह्माण्डवत् इस देह को वा इच्छामय कामना को प्रकाशित करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः सार्पराज्ञी। देवता—सार्पराज्ञी सूर्यो वा॥ छन्द:-१ निचृद् गायत्री। २ विराड् गायत्री। ३ गायत्री॥ तृचं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(अस्य रोचना) अस्य सूर्यस्य दीप्तिः (प्राणात्-अपानती) प्राणात्-उदयनात्-अस्तमयं गच्छन्ती (अन्तः-चरति) उभयोरन्तर्मध्ये यद्वा द्यावापृथिव्योर्मध्ये चरति (महिषः-दिवं व्यख्यत्) महान् सूर्यः-द्युलोकं प्रति प्रसिद्धो जातः ॥२॥
इंग्लिश (1)
Meaning
The light of this sun radiates from morning till evening like the prana and apana of the cosmic body illuminating the mighty heaven and filling the space between heaven and earth.
मराठी (1)
भावार्थ
उदयापासून अस्तापर्यंत सूर्याची दीप्ती पृथ्वी व द्युलोकामध्ये पसरते व महान सूर्य आकाशात प्रकाशमान असतो. ॥२॥
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