ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 19/ मन्त्र 2
ऋषिः - मथितो यामायनो भृगुर्वा वारुणिश्च्यवनों वा भार्गवः
देवता - आपो गावो वा
छन्दः - विराडनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
पुन॑रेना॒ नि व॑र्तय॒ पुन॑रेना॒ न्या कु॑रु । इन्द्र॑ एणा॒ नि य॑च्छत्व॒ग्निरे॑ना उ॒पाज॑तु ॥
स्वर सहित पद पाठपुनः॑ । ए॒नाः॒ । नि । व॒र्त॒य॒ । पुनः॑ । ए॒नाः॒ । नि । आ । कु॒रु॒ । इन्द्र॑ । ए॒नाः॒ । नि । य॒च्छ॒तु॒ । अ॒ग्निः । ए॒नाः॒ । उ॒प॒ऽआज॑तु ॥
स्वर रहित मन्त्र
पुनरेना नि वर्तय पुनरेना न्या कुरु । इन्द्र एणा नि यच्छत्वग्निरेना उपाजतु ॥
स्वर रहित पद पाठपुनः । एनाः । नि । वर्तय । पुनः । एनाः । नि । आ । कुरु । इन्द्र । एनाः । नि । यच्छतु । अग्निः । एनाः । उपऽआजतु ॥ १०.१९.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 19; मन्त्र » 2
अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 1; मन्त्र » 2
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अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 1; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(एनाः पुनः निवर्तय) हे गौवों के स्वामी ! हे प्रजारक्षक ! हे प्रशस्त इन्द्रियवाले आत्मन् ! तू इन गौवों, प्रजाओं और इन्द्रियों को विषयमार्ग से रोक (एनाः पुनः नि-आ कुरु) इन गौ आदि को फिर नियन्त्रित कर-अपने अधीन कर (इन्द्रः एनाः नियच्छतु) ऐश्वर्यवान् परमात्मा भी इनको नियन्त्रित करे या इनके नियन्त्रण में मुझे समर्थ करे (अग्निः-एनाः-उपाजतु) अग्रणायक परमात्मा इन गौ आदि को मेरी अधीनता के लिए प्रेरित करे ॥२॥
भावार्थ
गौ आदि पशुओं, प्रजाओं, तथा इन्द्रियों को नित्य नियम में रखना चाहिए और परमात्मा से इनके यथावत् नियन्त्रण के लिए बल माँगना चाहिए ॥२॥
विषय
आत्मायत्तता
पदार्थ
[१] इन्द्रियाँ क्योंकि उस उस विषय का ग्रहण करने के स्वभाव वाली हैं, सो ये इन्द्रियाँ उन विषयों में जायेंगी तो सही परन्तु जीव से कहते हैं कि तू पुनः- फिर एना = इन को निवर्तय-लौटा। ये विषयों में जायें तो सही, फिर उनमें फँसकर वहीं न रह जाएँ। जैसे एक देश के युवक ज्ञान प्राप्ति के लिये विदेशों में जायें तो सही, परन्तु वे वहाँ की चमक [glase] से चुँधियाकर वहीं न रह जाएँ। [२] हे जीव ! तू (पुनः) = फिर (एना) = इन इन्द्रियों को (न्याकुरु) = निश्चय से आत्मायत्त [= अपने अधीन] करनेवाला हो। [३] (इन्द्रः) = इन्द्र वही है जो कि (एना) = इनको (नियच्छतु) = निश्चय से अपने वश में करे । इन्द्रियों का अधिष्ठाता ही तो 'इन्द्र' कहलाता है । [४] (अग्निः) = [अग्रेणी:] अपने को अग्र स्थान में प्राप्त करानेवाला वह है जो कि (एना) = इन इन्द्रियों को (उपाजतु) = प्रभु की उपासना के साथ गतिशील बनाता है [ उप + अजतु] । प्रभु का स्मरण करता है और जीवन-संग्राम को जारी रखता है। प्रभु स्मरण पूर्वक क्रिया में लगे रहने से सब मलों का दूरीकरण [क्षेपण] हो जाता है। यही 'उपाजन' कहलाता है ।
भावार्थ
भावार्थ - विषयगामिनी इन्द्रियों को हम विषयों से लौटाएँ, उन्हें आत्मायत्त करें । इन्द्रियों को आत्मायत्त करके अपने 'इन्द्र' नाम को सार्थक करें। प्रभु की समीपता [उप] में रहते हुए क्रियाशील हों [अज-गति] जिससे मलों का विक्षेपण होकर हम अग्रेणी व अग्नि बनें।
विषय
गोपाल के तुल्य प्रजा के प्रति राजा के कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! शत्रुहन् ! तू (एना) इन को (नि वर्तय) पाप मार्ग से लौटा। (एना पुनः नि आ कुरु) इन को पुनः पुनः वश कर। (इन्द्रः) शक्तिमान्, तेजस्वी होकर (एना नि यच्छतु) इनको नियमों में रखे और (अग्निः) तेजस्वी, पुरुष (एना उ अजतु) इनको आगे सन्मार्ग में लेजावे। इसी प्रकार साधक भी अपनी इन्द्रियों, चित्त वृत्तियों और प्रजाओं को राजा के तुल्य और गौओं को गोपालवत् कुमार्ग से हटा कर सन्मार्ग में लेजावे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मथितो यामायनो भृगुर्वा वारुणिश्च्यवनो वा भार्गवः। देवताः ११, २—८ आपो गावो वा। १२ अग्नीषोमौ॥ छन्दः-१, ३-५ निचृदनुष्टुप्। २ विराडनुष्टुप् ७, ८ अनुष्टुप्। ६ गायत्री। अष्टर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(एनाः पुनः-निवर्तय) हे गोपते ! प्रजापते ! इन्द्रियस्वामिन्-आत्मन् वा त्वमेताः-गाः, प्रजाः, इन्द्रियाणि वा पुनर्विषयमार्गात् खलु प्रत्यावर्तयावरोधय (एनाः पुनः-नि-आ कुरु) एताः खलु गवाद्याः पुनरपि नियन्त्रिताः कुरु स्वाधीनाः कुरु (इन्द्रः-एनाः-नियच्छतु) ऐश्वर्यवान् परमात्माऽप्येताः खलु नियमयतु नियन्त्रणे मां समर्थयतु (अग्निः-एनाः उपाजतु) अग्रणायकः परमात्मा खल्वेता गवाद्या ममाधीने प्रेरयतु ॥२॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O ruler, keep the dynamics in motion and circulation, control them back and forth. Let Indra, the controller, keep them in controlled circulation. Let Agni, the enlightened, keep them in radiation, watch them and keep them in ordered motion.
मराठी (1)
भावार्थ
गायी इत्यादी पशू, प्रजा व इंद्रिये नित्य नियमपूर्वक ठेवावीत व परमेश्वराला त्यांच्यावर नियंत्रण ठेवण्याचे बल मागावे. ॥२॥
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