ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 6/ मन्त्र 5
तमु॒स्रामिन्द्रं॒ न रेज॑मानम॒ग्निं गी॒र्भिर्नमो॑भि॒रा कृ॑णुध्वम् । आ यं विप्रा॑सो म॒तिभि॑र्गृ॒णन्ति॑ जा॒तवे॑दसं जु॒ह्वं॑ स॒हाना॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठतम् । उ॒स्राम् । इन्द्र॑म् । न । रेज॑मानम् । अ॒ग्निम् । गीः॒ऽभिः । नमः॑ऽभिः । आ । कृ॒णु॒ध्व॒म् । आ । यम् । विप्रा॑सः । म॒तिऽभिः॑ । गृ॒णन्ति॑ । जा॒तऽवे॑दसम् । जु॒ह्व॑म् । स॒हाना॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
तमुस्रामिन्द्रं न रेजमानमग्निं गीर्भिर्नमोभिरा कृणुध्वम् । आ यं विप्रासो मतिभिर्गृणन्ति जातवेदसं जुह्वं सहानाम् ॥
स्वर रहित पद पाठतम् । उस्राम् । इन्द्रम् । न । रेजमानम् । अग्निम् । गीःऽभिः । नमःऽभिः । आ । कृणुध्वम् । आ । यम् । विप्रासः । मतिऽभिः । गृणन्ति । जातऽवेदसम् । जुह्वम् । सहानाम् ॥ १०.६.५
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 6; मन्त्र » 5
अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 1; मन्त्र » 5
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अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 1; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(यं जातवेदसं सहानां जुह्वम्) जिस उत्पन्नमात्र के वेत्ता तथा बलवाले, शक्तिशाली वायु विद्युत् आदि को अपने अन्दर ग्रहण करनेवाले महान् आत्मा परमात्मा का (विप्रासः-मतिभिः-आ गृणन्ति) आदि ऋषि महानुभाव वाणियों से समन्तरूप से उपदेश करते रहे (तम्-उस्राम्) उस सुखस्रावी या अपने अन्दर वास देनेवाले (इन्द्रं न रेजमानम्-अग्निम्) विद्युत् के समान दुष्ट को कंपा देनेवाले अग्रणायक परमात्मा के (गीर्भिः-नमोभिः-कृणुध्वम्) स्तुतिवाणियों द्वारा और अध्यात्मयज्ञों-योगाभ्यासों द्वारा हे उपासकजनो ! उसे साक्षात् करो ॥५॥
भावार्थ
उत्पन्नमात्र संसार का ज्ञाता-सर्वज्ञ, शक्तिशाली विद्युत् वायु आदि को अपने अधीन रखनेवाला जिसका आदि ऋषि महानुभाव उपदेश करते रहे, उस सुखदाता, दुष्टों को दण्ड देनेवाले परमात्मा की स्तुति उपासना करनी चाहिये और योगाभ्यासों द्वारा साक्षात् करना चाहिये ॥५॥
विषय
गीर्भिः नमोभिः
पदार्थ
(तम्) = उस परमात्मा को जो (उस्त्राम्) = [भोगानाम् उत्स्राविणं दातारं सा०] सब भोग्य पदार्थों के देनेवाले हैं, (इन्द्रम्) = परमैश्वर्यशाली हैं, (न रेजमानम्) = कम्पित होनेवाले नहीं हैं, कूटस्थ व निर्विकार है, अर्थात् मनुष्यों की तरह उनकी मित्रता टूट जानेवाली नहीं, (अग्निम्) = जो अग्रेणी हैं, उस प्रभु को (गीर्भिः) = वेद वाणियों के द्वारा तथा (नमोभिः) = नम्रता के द्वारा (आकृणुध्वम्) = अपने अभिमुख करने का प्रयत्न करो, अपनाने के लिये यत्नशील होवो । (यं) = जिस परमात्मा को (विप्रासः) = अपना विशेष रूप से पूरण करनेवाले ज्ञानी लोग (मतिभिः) = मननीय स्तोत्रों के द्वारा (गृणन्ति) = साधना करते हैं, अर्थात् बुद्धिमत्ता से प्रभु का स्तवन करते हुए उसके गुणों को ही अपने जीवन का लक्ष्य बनाते हैं । उस ('जातवेदसम्') = जातवेदस् को वे स्तुत करते हैं, जो सर्वव्यापक है [जाते जाते विद्यते] सर्वज्ञ है [ जातं जातं वेत्ति] तथा सम्पूर्ण धनों को उत्पन्न करनेवाला है [जातं वेदो यस्मात्, वेदस्=wealth] । तथा उस 'सहानां जुह्वम्' की वे स्तुति करते हैं जो शत्रुओं के मर्षण करनेवाले बलों को देनेवाले हैं।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु को ज्ञान वाणियों व नम्रता से अपनाने का प्रयत्न करना चाहिए। वे प्रभु ही सम्पूर्ण धनों के स्वामी हैं व सब आवश्यक भोग्य पदार्थों को देनेवाले हैं।
विषय
बहुश्रुत तेजस्वी पुरुष की सत्कार सहित संगतिका उपदेश। सभ्यता शिष्टता आदि का उपदेश।
भावार्थ
(इन्द्रं न रेजमानं) देदीप्यमान सूर्य के समान चमकने वाले (उस्त्राम्) नाना ऐश्वर्यों के देने वाले, (तम् अग्निम्) उस अग्नि तुल्य ज्ञानी, तेजस्वी पुरुष को (नमोभिः गीर्भिः) विनय युक्त वाणियों, अन्नादि सत्कारों द्वारा (आ कृणुध्वम्) प्राप्त होवो। (यं) जिसको (विप्रासः) विद्वान् पुरुष (मतिभिः) नाना स्तुतियों से (आ गृणन्ति) साक्षात् स्तुति और उपदेश करते हैं उस (जात-वेदसं) ऐश्वर्यों, ज्ञानों से सम्पन्न (सहानां) समस्त बलों के (जुह्वम्) मुख्य एवं दाता प्रतिगृहीता को तुम भी (आ कृणुध्वम्) प्राप्त होवो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
त्रित ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:- १ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। २ विराट् पंक्ति। ४, ५ विराट् त्रिष्टुप्। ३ निचृत् पंक्तिः। ६ पंक्तिः। ७ पादनिचृदत्रिष्टुप्। सप्तर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(यं जातवेदसं सहानां जुह्वम्) यं खलु जातस्योत्पन्नमात्रस्य वेत्तारम्, सहस्वतां बलवतां स्वाभ्यन्तरे ग्रहीतारं परममात्मानम् “आत्मा वै जुहूः” [मै० ४।१।१२] (विप्रासः) षयः “विप्रा-यदृषयः” [श० ६।४।२।७] (मतिभिः-आ गृणन्ति) वाग्भिः समन्तादुपदिशन्ति “वाग्वै मतिः” [श० ८।१।२।७] (तम् उस्राम्) तं सुखस्योत्स्राविणम् “उस्रा उत्स्राविणोऽस्यां भोगाः” [निरु० ४।१९] उत् स्रुगतौ ततो डः प्रत्ययः कर्त्तरि पुनः “अम् प्रत्यये पूर्वरूपाभावश्छान्दसः उपसर्गस्य तकारलोपश्चापि छान्दसः, यद्वा स्वस्मिन् वासयितारम् अथवा वस् धातोः-रक् छान्दसो दीर्घः, यद्वा स्वाभ्यन्तरे वासदातारं ‘वस धातोः क्विपि भावे-उस्, उसं-वासं ददाति यः उस्राः, तम् “सम्प्रसारणाभावश्छान्दसः” (इन्द्रं न रेजमानम्-अग्निम्) इन्द्रो विद्युद्रूपोऽग्निस्तमिव कम्पायमानमग्रणायकं परमात्मानम् (गीर्भिः-नमोभिः आ कृणुध्वम्) स्तुतिभिरध्यात्मयज्ञैश्च “यज्ञो वै नमः” [श० २।४।२।२४] साक्षात्कुरुतम्-यूयमुपासका इति शेषः ॥५॥
इंग्लिश (1)
Meaning
That Agni, giver of prosperity, shining and radiating like light energy, you should study, realise and exalt with words of adoration and oblations of holy offerings. Agni, universally immanent and wakeful giver of strength and power, sages and scholars study and exalt with high words and application of mind and thought.
मराठी (1)
भावार्थ
या संसाराचा उत्पन्नकर्ता, ज्ञाता-सर्वज्ञ, शक्तियुक्त विद्युतवायू इत्यादींना आपल्या अधीन ठेवणारा, ऋषी, मुनी ज्याचा उपदेश करतात तो सुखदाता, दुष्टांना दंड देणारा अशा परमेश्वराची उपासना केली पाहिजे व योगाभ्यासाद्वारे साक्षात केले पाहिजे. ॥५॥
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