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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 98 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 98/ मन्त्र 1
    ऋषिः - देवापिरार्ष्टिषेणः देवता - देवाः छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    बृह॑स्पते॒ प्रति॑ मे दे॒वता॑मिहि मि॒त्रो वा॒ यद्वरु॑णो॒ वासि॑ पू॒षा । आ॒दि॒त्यैर्वा॒ यद्वसु॑भिर्म॒रुत्वा॒न्त्स प॒र्जन्यं॒ शंत॑नवे वृषाय ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    बृह॑स्पते । प्रति॑ । मे॒ । दे॒वता॑म् । इ॒हि॒ । मि॒त्रः । वा॒ । यत् । वरु॑णः । वा॒ । अ॒सि॒ । पू॒षा । आ॒दि॒त्यैः । वा॒ । यत् । वसु॑ऽभिः । म॒रुत्वा॑न् । सः । प॒र्जन्य॑म् । शम्ऽत॑नवे । वृ॒ष॒य॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    बृहस्पते प्रति मे देवतामिहि मित्रो वा यद्वरुणो वासि पूषा । आदित्यैर्वा यद्वसुभिर्मरुत्वान्त्स पर्जन्यं शंतनवे वृषाय ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    बृहस्पते । प्रति । मे । देवताम् । इहि । मित्रः । वा । यत् । वरुणः । वा । असि । पूषा । आदित्यैः । वा । यत् । वसुऽभिः । मरुत्वान् । सः । पर्जन्यम् । शम्ऽतनवे । वृषय ॥ १०.९८.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 98; मन्त्र » 1
    अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 12; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (3)

    विषय

    इस सूक्त में राष्ट्रिय सुखवृष्टि, पुरोहित और अन्नाधिकारी पर निर्भर है। जलवृष्टि आकाशीय विद्युत्, पृथिवी की ऊष्मा पर निर्भर है। विज्ञान की रीति से इनकी संगति करनी चाहिये तथा सच्ची अध्यात्मसुखवृष्टि परमात्मा के सङ्ग से प्राप्त होती है, इत्यादि विषय हैं।

    पदार्थ

    (बृहस्पते) हे वेदवाणी के स्वामी परमात्मन् ! या गर्जनारूप वाणी के स्वामी स्तनयित्नु (मे) मेरे लिए (देवतां प्रति-इहि) देवताओं का प्रतिरूप हो-बन (मित्रः-वा) तू मित्र-प्रेरक-सञ्चालक या (वरुणः-वा) वरनेवाला-रक्षक या (पूषा-असि) पोषक तू है (आदित्यैः-वा) तू रश्मियों से या आदानगुणों से (वसुभिः-वा) बसानेवाले गुणों से (मरुत्वान्-सः) मरुतों से वायुस्तरों से युक्त होता हुआ, इस प्रकार सब देवताओं के गुणों से युक्त है (शन्तनवे) शन्तनु-शम् इस देह के लिए हो, इस प्रकार आकाङ्क्षावाले-अन्न और अर्थ के अधिकारी के लिए (पर्जन्यं वृषाय) मेघ को बरसा (देवापिः) हे देवों की आप्ति से-प्राप्त करने की चेष्टा से वर्त्तमान पुरोहित या आकाशीय विद्युत् (त्वत्) तुझसे (दूतः) प्रेरित हुआ (अजिरः) गतिशील-प्रेरणावाला (देवः-चिकित्वान्) प्रेरक देव या प्रेरक वायु (माम्-अभि) मेरे प्रति (अगच्छत्) प्राप्त होता है (प्रतीचीनः-मां प्रति) साक्षात् मेरी ओर (आ-ववृत्स्व) भलीभाँति प्राप्त हो (ते-आसन्) तेरे मुख में (द्युमतीं-वाचम्) दीप्तियुक्त वाणी को-वेदवाणी को सुखवृष्टि करनेवाली को या गर्जना वाणी को-वर्षा करनेवाली को (दधामि) धारण-कराता हूँ ॥१-२॥

    भावार्थ

    वेदवाणी का स्वामी परमात्मा समस्त देवों का प्रतिरूपक होकर देह के सुख की कामना करनेवाले-प्राणिमात्र के सुख की कामना करनेवाले के लिए सुख की वृष्टि करता है। समस्त देवों को प्राप्त करनेवाला विद्वान् परमात्मा की वेदवाणी को प्राप्त करता है सुख की वृष्टि कराने के लिए एवं मेघ में वर्त्तमान गर्जना का स्वामी समस्त देवताओं के गुणों को लेकर पृथिवी की अन्नोत्पादक ऊष्मा शक्ति के लिए जल को बरसाने के हेतु आकाशीय विद्युत् रूपवाली-मेघ को ताड़ित करनेवाली को देता है और जल बरसाता है ॥१-२॥

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    विषय

    'देवापि' बनना

    पदार्थ

    [१] हे (बृहस्पते) = इस बृहती वेदवाणी का स्वाध्याय के द्वारा रक्षण करनेवाले देवापि ! तू (मे) = मेरे (देवताम्) = देवताओं के (प्रति इहिम्) = प्रति जानेवाला हो। तू इन देवताओं से अपने अन्दर दिव्य भावों का वर्धन करनेवाला बन । [२] तू इस बात का ध्यान कर कि (मित्रः वा असि) = तू निश्चय से सबके साथ स्नेह करनेवाला बनता है । (यद्) = जब तू (वरुणः वा असि) = निश्चय से द्वेष का निवारण करनेवाला होता है। इस प्रकार स्नेह व निर्देषता को अपनाकर पूषा तू अपना सच्चा पोषण करता है । [३] (यत्) = जब तू (आदित्यै वा) = [आदानात् आदित्यः ] निश्चय से आदान की वृत्तियों के हेतु से तथा (वसुभिः) = निवास के लिए आवश्यक तत्त्वों के हेतु से (मरुत्वान्) प्राणोंवाला होता है, प्राणसाधना को करता है। इस प्राणसाधना से तू आदित्यों व वसुओंवाला तो होता ही है, उन्नति करते-करते तू धर्ममेघ समाधि की स्थिति तक पहुँचता है। इस स्थिति में पहुँचा हुआ (स) = वह तू (शंतनवे) = शान्ति के विस्तार के लिए (पर्जन्यं वृषाय) पर्जन्य को [वर्षय] वृष्टि करनेवाला बना । [४] ऊँची से ऊँची स्थिति में पहुँचनेवाला यह ऊर्ध्वादिक् का अधिपति 'बृहस्पति' है। धर्ममेघ समाधि में होनेवाले 'वर्षं इषवः ' आनन्द वृष्टि के बिन्दु ही इस मार्ग पर इसे आगे बढ़ने के लिए प्रेरक होते हैं । वस्तुतः राष्ट्र में इस प्रकार की वृत्तिवाले पुरुषों की स्थिति ही वृष्टि के भी ठीक से होने का कारण बनती है। 'निकामे निकामे नः पर्जन्यो वर्षतु' यह प्रार्थना तभी पूर्ण होती है । [५] इस ऊँची स्थिति में पहुँचने का रहस्य 'मरुत्वान्' बनने में है । प्राणसाधना से हमारी वृत्ति सदा सद्गुणों व ज्ञान के ग्रहण की बनती है, हम 'आदित्य' बनते हैं 'आदान करनेवाले' सूर्य जैसे सब जगह से शुद्ध जल का ही अपनी किरणों द्वारा ग्रहण करता है, इसी प्रकार हम अच्छाइयों को ही लेते हैं बुराइयों को नहीं । प्राणसाधना का दूसरा परिणाम यह है कि हमारे शरीर में स्वास्थ्य के लिए आवश्यक तत्त्वों का उत्पादन होता है, हम वसुओंवाले बनते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम वेदवाणी को अपनानेवाले बृहस्पति बनकर मित्रता- निर्देषता - पुष्टि - गुणादानवृत्ति तथा वसुमत्ता को अपनाने के हेतु से प्राणसाधना में प्रवृत्त हों । धर्ममेघ समाधि की स्थिति तक पहुँचकर आनन्द की वर्षा का अनुभव करते हुए शान्ति को प्राप्त हों ।

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    विषय

    देवगण। विद्वान् राजा, स्वामी, प्रभु आदि के सूर्यवत् कर्त्तव्य वर्णन।

    भावार्थ

    हे (बृहस्पते) वेदवाणी के पालक ! हे बड़ी भारी शक्ति के स्वामिन्! विद्वन् ! राजन् ! प्रभो ! तू (मित्रः वा) मित्र है और (वरुणः वा असि) वरण करने योग्य श्रेष्ठ दुःखों का निवारक भी है। (वा पूषा असि) और तू जगत् का सूर्य, वायु वा पृथिवी, वा मेघ की तरह से पोषण करने वाला भी है। तू (आदित्यैः) पृथ्वी पर से जलों के लेने वाले वा सूर्य से उत्पन्न किरणों वा १२ मासों के तुल्य आदान-प्रतिदान करने वाले वा तेजस्वी जनों से और (वसुभिः) सबको वसाने वाले जनों से (मरुत्वान्) वीरों, मनुष्यों का स्वामी है। (सः) वह तू (शं-तनवे) शान्ति विस्तार करने वाले राजा के लिये वा शान्ति से विस्तृत होने वाले राज्य-सुख के लिये (वर्षय) नाना सुखों की वृष्टि करा।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिर्देवापिरार्ष्टिषेणः। देवा देवताः॥ छन्द:- १, ७ भुरिक् त्रिष्टुप्। २, ६, ८, ११, १२ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ५ त्रिष्टुप्। ९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४, १० विराट् त्रिष्टुप्॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अत्र सूक्ते राष्ट्रियसुखवृष्टेर्निमित्तीभूतौ विद्यावान् पुरोहितो-ऽन्नवृद्धिकर्ताऽन्नाधिकारी चेति द्वौ स्तः, एवं जलवृष्टेर्निमित्तीभूतौ आकाशीयविद्युदग्निः पृथिवीस्थोष्मा चोभौ स्तस्तयोर्विज्ञानरीत्या साङ्गत्येन वृष्टिः पातनीया। अध्यात्मानन्दवृष्टिः परमात्मनः सङ्गत्या भवतीति चैवमादयो विषयाः सन्ति।

    पदार्थः

    एतद्वर्षकामसूक्तम्” [निरु० २।११] इति वृष्टिविज्ञानविषयकं सूक्तम् अत्र वक्तव्यम्− अस्मिन् शन्तनवे शब्दे “शन्तनुः” अग्रिमे द्वितीयमन्त्रे देवापि इति द्वयोराश्रये सूक्तार्थो विद्यते। तौ द्वौ देवापिशन्तनू वृष्टिविज्ञाने खल्वाकाशपृथिव्योर्विद्युद् भौमोष्माणौ वृष्टेर्निमित्तीभूतौ स्तः। आकाशाद् विद्युद् वृष्टिं प्रेरयेत् तदैवौषधिवनस्पतयो जायेरन् तथा च पृथिवीतो भौमोष्मा खल्वोषधिवनस्पतीनां सूक्ष्मं सारभागमुपादायाकाशं प्रत्युद्गमयेत् तदा वृष्टेरागमनं भवेत्, एवं विद्युदूष्माणौ वैदिकनामतो देवापिशन्तनू स्तः। अगस्त्य-संहितानामकस्य पुरातनवैज्ञानिकग्रन्थस्य परिभाषायां मित्रावरुणौ वृष्टेर्निमित्तीभूतौ स्तः “मित्रावरुणौ त्वा वृष्ट्यावताम्” [श० १।८।३।१२] महर्षिभरद्वाजनिर्मितस्य वैमानिकप्रकरणस्य परिभाषायां “द्रवः-द्रवणम् प्राणनम्” चेत्याख्ये जलस्य द्वे शक्ती स्तः। अद्यतने पाश्चात्त्ये विज्ञाने “हाईड्रोजन-आक्सीजन” इति नामतः प्रसिद्धीकृतौ द्वौ वायू स्तः। ययोर्मेलनात् खलु जलं सम्पद्यते एवं वृष्टिविज्ञानं पृथिवीस्थः शन्तनुर्भौमोष्मा वरुणः प्राणनम् “आक्सीजन” इत्येते कार्यकारणभावप्राप्ताः ‘पश्चिमपश्चिमः पूर्वपूर्वस्य कार्यम्’ ‘पूर्वपूर्वः पश्चिमपश्चिमस्य कारणम्’ तत्रैवाकाशस्थो देवापिरभ्रदलान्तर्गतं विद्युत्तत्त्वम् ‘मित्रः-द्रवः’ हाइड्रोजनतत्त्वम् कार्यकारणभावप्राप्ताः “पूर्वपूर्वः पश्चिम-पश्चिमस्य कारणं पश्चिमपश्चिमः पूर्वपूर्वस्य-कार्यम्” आधिभौतिकदृष्ट्या तयोस्तात्पर्यार्थो ग्राह्यः, यत् खलु राष्ट्रस्य शस्त्रास्त्रबलसम्पन्नः शन्तनुरन्नवान् गणः। तद्राष्ट्रस्य विद्यावान् गणो देवापिः। ताभ्यां राष्ट्रे धान्यसिद्ध्या ज्ञानवृद्ध्या सुखवृष्टिर्भवति। अथार्थः क्रियते द्वयोर्मन्त्रयोः−(बृहस्पते) बृहत्या वेदवाचः स्वामिन् परमात्मन् ! गर्जनारूपवाचः स्वामिन् स्तनयित्नो “ऊर्ध्वा दिग्बृहस्पतिरधिपतिः” [अथर्व० ३।२७।६] (मे) मह्यं (देवतां प्रति-इहि) देवताम्प्रतिरूपो भव (मित्रः-वा वरुणः-वा पूषा-असि) त्वं मित्रः प्रेरयिता सञ्चालको वरुणो वरयिता रक्षकः पूषा पोषयिता वा त्वमेवासि (आदित्यैः-वा वसुभिः-मरुत्वान्-सः) त्वमादित्यै रश्मिभिः-आदानगुणैः, वसुभिर्वासकगुणैः मरुद्भिर्युक्तः सन् ता सर्वदेवता-गुणवान्-असि तथा भूतः सन् (शन्तनवे पर्जन्यं वृषाय) शमस्मै तन्वे-अस्तु-इत्याकाङ्क्षिणे राष्ट्रेऽन्नार्थाधिकारिणे मेघं वर्षय। “छन्दसि शायजपि” [अष्टा० ३।१।८४] (देवापे) हे देवानामाप्त्या प्राप्तुं चेष्टया वर्तमान ! पुरोहित ! आकाशीय विद्युदग्ने ! वा (त्वत्-दूतः-अजिरः-देवः-चिकित्वान्) त्वत्तः तव सकाशात् त्वया प्रेरितो दूतो गतिशीलः प्रेरणावान् प्रेरयिता देवो विद्वान् वायुर्वा (माम्-अभि-अगच्छत्) मां प्रत्यागच्छत् (प्रतीचीनः-माम्-प्रति-आ ववृत्स्व) साक्षात् त्वं मां प्रति समन्तात् प्राप्तो भव (ते-आसन्-द्युमतीं वाचं दधामि) तव मुखे दीप्तियुक्तां वाचं वेदवाचं सुख-वृष्टिकरीं यद्वा गर्जनां वृष्टिकरीं दधामि ॥१-२॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Brhaspati, lord of unbounded rain and thunder, come and bless me as the epitome of divine powers, whether you are Mitra or Varuna or Pusha or commander of the Marut winds with Adityas and Vasus. Let the cloud rain for the man of peace and lover of knowledge.$(This mantra is a prayer for physical as well as for spiritual rain of water and peace for the lover of knowledge and peace. Brhaspati, Mitra, Varuna and other devas are physical powers of rain, and this process of vapourisation, electric catalysis of gases and condensation has been explained in his essays on the composition of water and atmosphere by late Pandit Gurudatta Viyarthi in his book Wisdom of the Rshis, republished by Dr. Ravi Prakash Arya, Email : vedicscience@hotmail.com).

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    वेदवाणीचा स्वामी परमात्मा संपूर्ण देवांचा प्रतिरूपक बनून देहाच्या सुखाची कामना करणाऱ्या प्राणिमात्राच्या सुखाची कामना करणाऱ्यासाठी सुखाची वृष्टी करतो. संपूर्ण देवांना प्राप्त करणारा विद्वान सुखाच्या वृष्टीसाठी परमेश्वराची वेदवाणी प्राप्त करतो. संपूर्ण देवतांच्या गुणांनी युक्त मेघातील गर्जनेचा स्वामी पृथ्वीच्या अन्न उत्पादक उष्मा शक्तीसाठी जलाचा वर्षाव करण्याच्या हेतूने मेघाला ताडित करणाऱ्या आकाशीय विद्युतद्वारे जलवर्षाव करवितो. ॥१, २॥

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