ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 11/ मन्त्र 3
उ॒क्थेष्विन्नु शू॑र॒ येषु॑ चा॒कन्स्तोमे॑ष्विन्द्र रु॒द्रिये॑षु च। तुभ्येदे॒ता यासु॑ मन्दसा॒नः प्र वा॒यवे॑ सिस्रते॒ न शु॒भ्राः॥
स्वर सहित पद पाठउ॒क्थेषु॑ । इत् । नु । शू॒र॒ । येषु॑ । चा॒कन् । स्तोमे॑षु । इ॒न्द्र॒ । रु॒द्रिये॑षु । च॒ । तुभ्य॑ । इत् । ए॒ताः । यासु॑ । म॒न्द॒सा॒नः । प्र । वा॒यवे॑ । सि॒स्र॒ते॒ । न । शु॒भ्राः ॥
स्वर रहित मन्त्र
उक्थेष्विन्नु शूर येषु चाकन्स्तोमेष्विन्द्र रुद्रियेषु च। तुभ्येदेता यासु मन्दसानः प्र वायवे सिस्रते न शुभ्राः॥
स्वर रहित पद पाठउक्थेषु। इत्। नु। शूर। येषु। चाकन्। स्तोमेषु। इन्द्र। रुद्रियेषु। च। तुभ्य। इत्। एताः। यासु। मन्दसानः। प्र। वायवे। सिस्रते। न। शुभ्राः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 11; मन्त्र » 3
अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 3; मन्त्र » 3
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अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 3; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे शूरेन्द्र येषु स्तोमेषु रुद्रियेषूक्थेषु स भवान्नु चाकन् यासु च मन्दसान इदसि तासु सर्वासु तुभ्येदेतावायवे शुभ्राः प्रसिस्रते न शोभयन्तु ॥३॥
पदार्थः
(उक्थेषु) वक्तुं योग्येषु वाक्येषु (इत्) एव (नु) सद्यः (शूर) तमो हिंसकस्सवितेव शत्रुहिंसक (येषु) (चाकन्) कामयते (स्तोमेषु) स्तुवन्ति सर्वा विद्या येषु तेषु (इन्द्र) प्रकाशमान (रुद्रियेषु) रुद्राणां प्राणानां प्रतिपादकेषु (च) (तुभ्य) तुभ्यम्। छान्दसो मलोपः। (इत्) (एताः) (यासु) क्रियासु (मन्दसानः) प्रशंसितः (प्र) (वायवे) (सिस्रते) सरन्ति (न) इव (शुभ्राः) विद्युतः ॥३॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। यथा वायुना सह विद्युत्प्रसरति तथा विद्यया सह पुरुषः सुखेषु विहरति ॥३॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे (शूर) अन्धकार को दूर करनेवाले सूर्य के समन शत्रुदल के नष्ट करनेवाले (इन्द्र) प्रकाशमान राजन् ! (येषु) जिन (स्तोमेषु) स्तुति विभागों वा (रुद्रियेषु) प्राणों की प्रतिपादना करनेवालों वा (उक्थेषु) कहने योग्य वाक्यों में आप (नु) शीघ्र (चाकन्) कामना करते हो (यासु, च) और जिन क्रियाओं में (मन्दसानः) प्रशंसित (इत्) ही हैं उन सभों में (तुभ्य,इत्) आप ही के लिये जैसे (एताः) ये (वायवे) पवन के अर्थ (शुभ्राः) सुन्दर शोभायुक्त बिजुली (प्रसिस्रते) पसरती फैलती हैं (न) वैसे सुशोभित हों ॥३॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे पवन के साथ बिजुली फैलती है, वैसे विद्या के साथ पुरुष सुखों के बीच विहार करता है ॥३॥
विषय
उक्थ-स्तोम-रुद्रिय
पदार्थ
१. हे शूर हमारी शत्रुभूत वासनाओं को विनष्ट करनेवाले प्रभो ! (येषु) = जिन उक्थेषु होताओं से किये जानेवाले स्तुतिवचनों में (इत् नु) = निश्चय से (चाकन्) = आप दीप्त होते हैं [कनी दीप्तौ], हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यवान् प्रभो ! (स्तोमेषु) = जिन उद्गाताओं से किये जानेवाले स्तोत्रों में (च) = तथा (अध्वर्यु) = से सम्पादित रुद्रियेषु रोगों के द्रावण के कारणभूत स्तुतिवचनों में (मन्दसानः) = आप प्रसन्न होते हैं, वे सब, सब स्तुतिवचन (इत्) = निश्चय से (तुभ्य) = आपके लिए ही हैं । २. (एताः) = ये सब (शुभ्राः) = उज्ज्वल स्तुतियाँ, (यासु) = जिनमें (मन्दसान:) = स्तोता आपका प्रिय बनता है, (न) = अब [न सम्प्रत्यर्थे सा०] (वायवे) = गति द्वारा सब बुराइयों का हिंसन करनेवाले आपके लिए ही (प्रसिस्रते) = प्रवृत्त होती हैं।
भावार्थ
भावार्थ – सब उक्थ-स्तोम व रुद्रिय प्रभु के लिए ही प्रवृत्त होते हैं। ये ही हमें सुन्दर जीवनवाला बनाकर प्रभु का प्रिय बनाते हैं ।
विषय
ऐश्वर्यवान् राजा, सेनापति का वर्णन, उसके मेघ और सूर्यवत् कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे ( शूर ) शूरवीर ! निर्भय सेनापते ! ( येषु ) जिन ( उक्थेषु ) उत्तम वचनों में और ( रुद्रियेषु ) उत्तम उपदेष्टाओं के ( स्तोभेषु ) स्तुति वचनों या उपदेशों में तु ( चाकन् ) कामनावान् हो और ( यासु मन्दसानः ) जिन प्रजाओं में खूब हर्ष लाभ करता है ( एता ) वे सब ( शुभ्राः ) उत्तम शुभ फल देने वाले, उत्तम वचन, उपदेश और वे सब उत्तम प्रजाऐं दीप्ति वाली विद्युतों के समान भी ( वायवे तुभ्य इत् ) वायु के समान बलशाली तेरे उपकार के लिये ही ( सिस्रते ) फैलती हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गृत्समद ऋषि: ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १, ८, १०, १३, १०, २० पङ्क्तिः। २,९ भुरिक् पङ्क्तिः । ३, ४, ११, १२, १४, १८ निचृत् पङ्क्तिः । ७ विराट् पङ्क्तिः । ५, १६, १७ स्वराड् बृहती भुरिक् बृहती १५ बृहती । २१ त्रिष्टुप ॥ एकविंशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जशी वायूबरोबर विद्युत प्रसृत होते तसे विद्येमुळे पुरुष सुखात विहार करतो. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, bright and brave, heroic lord of light, action and generosity, all the citations of praise and appreciation of achievement and victory in which you delight, all these holy songs of gratitude to Divinity, Rudra, for the gifts of pranic vitality, power and majesty in which you rejoice, and all these brilliant acts of glory which shine and vibrate among people like waves of light energy : all these flow from us in thanks and gratitude to you who, in human words, are like the wind, tempestuous, ferocious, kind and creative, all in one, divine.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
More tips given for the rulers.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O brave ruler ! like the sun, you dispel all darkness and are ever shining. Through your sermons, speeches and words of praises, you show your preference or favor for those who established their vitality. The way air and beautiful lighting expand extensively, similarly only you are admired among all. We wish you Godspeed and brilliance.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The electricity and water heavily create expansion, same way a learned person draws pleasure because of his learning.
Foot Notes
(शूर) तमो हिंसकस्सवितेव शत्रुहिंसक | = O brave you are comparable with sun which dispel darkness. ( चाकन्) कामयते । = You desire. (स्तोमेषु ) स्तुवन्ति सर्वा विद्या येषु तेषु | = In the sentences worth to be uttered. (रूद्रियेषु ) रुद्राणां प्राणानां प्रतिपादकेषु । = Those who instill vitality (Prana) (सिस्त्रते ) सरन्ति । = Expand.
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