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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 11 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 11/ मन्त्र 6
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    स्तवा॒ नु त॑ इन्द्र पू॒र्व्या म॒हान्यु॒त स्त॑वाम॒ नूत॑ना कृ॒तानि॑। स्तवा॒ वज्रं॑ बा॒ह्वोरु॒शन्तं॒ स्तवा॒ हरी॒ सूर्य॑स्य के॒तू॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स्तव॑ । नु । ते॒ । इ॒न्द्र॒ । पू॒र्व्या । म॒हानि॑ । उ॒त । स्त॒वा॒म॒ । नूत॑ना । कृ॒तानि॑ । स्तव॑ । वज्र॑म् । बा॒ह्वोः । उ॒शन्त॑म् । स्तव॑ । हरी॒ इति॑ । सूर्य॑स्य । के॒तू इति॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्तवा नु त इन्द्र पूर्व्या महान्युत स्तवाम नूतना कृतानि। स्तवा वज्रं बाह्वोरुशन्तं स्तवा हरी सूर्यस्य केतू॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स्तव। नु। ते। इन्द्र। पूर्व्या। महानि। उत। स्तवाम। नूतना। कृतानि। स्तव। वज्रम्। बाह्वोः। उशन्तम्। स्तव। हरी इति। सूर्यस्य। केतू इति॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 11; मन्त्र » 6
    अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 4; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे इन्द्र वयं ते पूर्व्यामहानि नु स्तवोत नूतना कृतानि स्तवाम बाह्वोर्वज्रमुशन्तं त्वां स्तव सूर्यस्य केतू इव तव हरी स्तव ॥६॥

    पदार्थः

    (स्तव) स्तवाम। अत्र विकरणव्यत्ययेन शप् पुरुषवचनव्यत्ययश्च, सर्वत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (नु) शीघ्रम् (ते) तव (इन्द्र) प्रशंसया युक्त (पूर्व्या) प्राचीनानि (महानि) पूजनीयानि बृहत्तमानि (उत) अपि (स्तवाम) प्रशंसेम (नूतना) नवीनानि (कृतानि) अनुष्ठितानि (स्तव) स्तवाम। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (वज्रम्) शस्त्रास्त्रसमूहम् (बाह्वोः) भुजयोः (उशन्तम्) कामयमानम् (स्तव) स्तवाम। अत्रापि दीर्घः। (हरी) धारणाकर्षणकर्माणौ (सूर्यस्य) सवितुः (केतू) किरणौ ॥६॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैरतीतवर्त्तमानाप्तैर्यानि धर्म्याणि कर्माणि कृतानि वा क्रियन्ते तान्येवेतरैरनुष्ठेयानि ॥६॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) प्रशंसायुक्त राजन् ! हम लोग (ते) आपके (पूर्व्या) प्राचीन (महानि) प्रशंसनीय बड़े-बड़े कामों की (नु) शीघ्र (स्तव) स्तुति अर्थात् प्रशंसा करें (उत) और (नूतना) नवीन (कृतानि) किये हुओं की (स्तवाम) प्रशंसा करें, तथा (बाह्वोः) भुजाओं में (वज्रम्) शस्त्र और अस्त्रों की (उशन्तम्) चाहना करते हुए आपकी (स्तव) स्तुति प्रशंसा करें तथा (सूर्यस्य) सूर्य की (केतू) किरणों के समान जो (हरी) धारणाकर्षण गुणयुक्त कर्मों की (स्तव) प्रशंसा करें ॥६॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। व्यतीत और वर्त्तमान आप्त धर्मात्मा सज्जनों ने जो धर्मयुक्त काम किये वा करते हैं, उन्हीं का अनुष्ठान और जनों को भी करना चाहिये ॥६॥

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    विषय

    प्रभु की महिमा का गायन

    पदार्थ

    १. हे (इन्द्र) = सब शक्तिशाली कर्मों को करनेवाले प्रभो! (नु) = अब (ते) = आपके (पूर्व्या) = पालनात्मक व (महानि) = महत्त्वपूर्ण कर्मों का (स्तवा) = मैं स्तवन करता हूँ। (उत) = और (नूतना) = अत्यन्त स्तुत्य प्रशंसनीय (कृतानि) = कर्मों का भी (स्तवाम) = हम स्तवन करते हैं । २. आपने (बाह्वोः) = हमारी बाहुओं में जो देदीप्यमान (वज्रम्) = क्रियाशीलतारूप वज्र स्थापित किया है, उसका (स्तवा) = मैं स्तवन करता हूँ । (सूर्यस्य) = [सुष्ठु प्रेरकस्य सुवीर्यस्य वा] उत्तम प्रेरक व शक्तिशाली आपके (केतू) = प्रज्ञापक जो (हरी) = ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रियरूप अश्व हैं, उनका (स्तवा) = मैं स्तवन करता हूँ। वस्तुतः आपने हमारे = शरीरों में यह क्रियाशीलता रूप वज्र ऐसा दृढ़ व सुन्दर स्थापित किया है कि यह हमारे सब वासनारूप शत्रुओं को मारनेवाला प्रमाणित होता है। ये ज्ञानेन्द्रियाँ व कर्मेन्द्रियाँ अपनी अद्भुत रचना के द्वारा आपकी महिमा का प्रतिपादन कर रही हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु के कर्म पालनात्मक व पूरणात्मक हैं— वे सब कर्म स्तुत्य हैं । इन्द्रियों की रचना भी प्रभु की महिमा का प्रतिपादन करती है ।

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    विषय

    ऐश्वर्यवान् राजा, सेनापति का वर्णन, उसके मेघ और सूर्यवत् कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) प्रशंसा युक्त ! ऐश्वर्यवन् ! ( ते ) तेरे ( पूर्व्या ) प्राचीन, पहले किये ( महानि ) बड़े, पूज्य कार्यों की हम स्तुति करें ( उत ) और ( नूतना ) नये ( कृतानि ) किये गये कार्यों की भी स्तुति करें। ( बाह्वोः ) वाहुओं में ( वज्र ) वज्र, शस्त्रास्त्रसमूह ( उशन्तं ) धारण करना चाहते हुए आपकी या बाहुओं में ( उशन्तं ) चमकते हुए शस्त्र की हम ( स्तवा ) स्तुति करें । ( सूर्यस्य ) सूर्य के ( हरी ) धारण और आकर्षण या ताप और प्रकाश दोनों प्रकार के ( केतू ) किरणों के समान तेरे भी ( केतू ) शौर्य को बतलानेवाले ( हरी ) दोनों अश्वों की हम ( स्तवा ) स्तुति करते हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषि: ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १, ८, १०, १३, १०, २० पङ्क्तिः। २,९ भुरिक् पङ्क्तिः । ३, ४, ११, १२, १४, १८ निचृत् पङ्क्तिः । ७ विराट् पङ्क्तिः । ५, १६, १७ स्वराड् बृहती भुरिक् बृहती १५ बृहती । २१ त्रिष्टुप ॥ एकविंशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. प्राचीन व अर्वाचीन आप्त धर्मात्मा सज्जनांनी जे धर्मयुक्त काम केलेले आहे व करीत आहेत त्याचेच अनुष्ठान इतर लोकांनीही करावे. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, lord of power, majesty and glory, we praise your grand achievements of old. We celebrate your new acts of splendour and victory. We admire the thunderbolt of defence blazing in your hands. And we sing the glories of your majesty like rays of the sun doing homage to the sun’s power of sustenance of the solar system.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    More details about the Statecraft or administration.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O powerful and admirable king ! we glorify you because of your great achievements. We should also extend support and appreciation to your new schemes. Always we should be loyal to you and have faith in your physical strength and striking power of weapons, because they are as good as the sunrays doing the twin work of extraction and giving away. (The sunrays extract water from the moisture of lands and in return serve the creatures with rain water. Ed.).

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Whatever good works had been done in the past or present by the noble religious persons, we should follow them.

    Foot Notes

    (स्तव) स्तवाम अत्र विकरणव्यत्ययेन शप् । पुरुषवचनव्यत्ययश्च सर्वत्र हृयचोतस्तिङ् इति दीर्घः = We worship (पूर्व्या) प्राचीनानि = Deeds of the past. (महानि) पूजनीयानि बृह्त्तमानि = Great and worthy to be respected. (स्तव) स्तवाम । अत्न ह्व यचोतस्तिङ् इनि दीर्घः = We worship. (हरी) धारणाकर्षणकर्माणौ = With the faculty of extraction and holding.

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