ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 12/ मन्त्र 10
ऋषिः - गृत्समदः शौनकः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
यः शश्व॑तो॒ मह्येनो॒ दधा॑ना॒नम॑न्यमाना॒ञ्छर्वा॑ ज॒घान॑। यः शर्ध॑ते॒ नानु॒ददा॑ति शृ॒ध्यां यो दस्यो॑र्ह॒न्ता स ज॑नास॒ इन्द्रः॑॥
स्वर सहित पद पाठयः । शश्व॑तः । महि॑ । एनः॑ । दधा॑नान् । अम॑न्यमानान् । शर्वा॑ । ज॒घान॑ । यः । शर्ध॑ते । न । अ॒नु॒ऽददा॑ति । शृ॒ध्याम् । यः । दस्योः॑ । ह॒न्ता । सः । ज॒ना॒सः॒ । इन्द्रः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यः शश्वतो मह्येनो दधानानमन्यमानाञ्छर्वा जघान। यः शर्धते नानुददाति शृध्यां यो दस्योर्हन्ता स जनास इन्द्रः॥
स्वर रहित पद पाठयः। शश्वतः। महि। एनः। दधानान्। अमन्यमानान्। शर्वा। जघान। यः। शर्धते। न। अनुऽददाति। शृध्याम्। यः। दस्योः। हन्ता। सः। जनासः। इन्द्रः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 12; मन्त्र » 10
अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 8; मन्त्र » 5
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अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 8; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथेश्वरविषयमाह।
अन्वयः
हे जनासो विद्वांसो युष्माभिर्यः शश्वतो धरति मह्येनो दधानानमन्यमानान् पापिष्ठाञ्छर्वा जघान यः शर्द्धते शृध्यां नानुददाति या दस्योर्हन्ताऽस्ति स इन्द्रः सेवनीयः ॥१०॥
पदार्थः
(यः) परमेश्वरः (शश्वतः) अनादिस्वरूपान्पदार्थान् (महि) महत् (एनः) पापम् (दधानान्) धरतः (अमन्यमानान्) अज्ञानिनः शठान् (शर्वा) शासनवज्रेण (जघान) हन्ति (यः) (शर्द्धते) यः शर्द्धं करोति तस्मै (न) (अनुददाति) (शृध्याम्) शब्दकुत्साम् (यः) (दस्योः) परपदार्थहर्त्तुर्दुष्टस्य (हन्ता) (सः) (जनासः) (इन्द्रः) ॥१०॥
भावार्थः
यदि परमेश्वरो दुष्टाचारान्न ताडयेद्धार्मिकान्न सत्कुर्याद्दस्यून्न हन्यात्तर्हि न्यायव्यवस्था नश्येत् ॥१०॥
हिन्दी (4)
विषय
अब ईश्वर विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे (जनासः) विद्वान् मनुष्यो ! तुम लोगों को (यः) जो परमेश्वर (शश्वतः) अनादिस्वरूप पदार्थों को धारण करता (महि) अत्यन्त (एनः) पाप को (दधानान्) धारण किये हुए (अमन्यमानान्) अज्ञानी शठ पापियों को (शर्वा) शासनकारी वज्र से (जघान) मारता (यः) जो (शर्द्धते) कुत्सित निन्दित पापयुक्त शब्द करने अर्थात् उच्चारण करनेवाले के लिये (शृध्याम्) शब्द निन्दा न (अनुददाति) अनुकूलता से देता है और (यः) जो (दस्योः) दूसरे के पदार्थों को हरनेवाले दुष्ट का (हन्ता) मारनेवाला है (सः) वह (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् परमेश्वर सेवने योग्य है ॥१०॥
भावार्थ
जो परमेश्वर दुष्टाचारियों को न ताड़ना दे, धार्मिकों का सत्कार न करे और डाकुओं को न मारे तो न्यायव्यवस्था नष्ट हो जाय ॥१०॥
विषय
'दस्युहन्ता' प्रभु
पदार्थ
१. (यः) = जो (शश्वतः) = सदा निरन्तर (महि एनः) = बड़े-बड़े पापों को (दधानान्) = धारण करते हुए लोगों को, (अमन्यमानान्) = प्रभु में आस्था न रखनेवालों को (शर्वा) = हिंसा के साधनभूत वज्र आदि से जघान नष्ट करता है। पापी को अन्ततः प्रभु ही पीड़ित करते हैं । २. (यः) = जो (शर्धते) = बल के घमण्ड में औरों पर अत्याचार करनेवाले पुरुष के लिए (शृध्याम्) = बल व सहनशक्ति को न अनुददाति नहीं देता है। इन बल के घमण्ड में परपीडक पुरुषों को प्रभु ही निर्बल करनेवाले होते हैं– इनके बल को वे ही छीन लेते हैं । इस प्रकार (यः) = जो (दस्योः) = इन उपक्षय करनेवाले पुरुषों का (हन्ता) = नाश करनेवाले हैं। हे (जनासः) = लोगो ! (सः इन्द्रः) = वे ही शक्तिशाली कर्मों के करनेवाले प्रभु हैं ।
भावार्थ
भावार्थ – प्रभु पापियों को पीड़ित करते हैं। अत्याचारियों को वे निर्बल करनेवाले हैं।
विषय
बलवान् राजा, सभापति, जीवात्मा और परमेश्वर का वर्णन ।
भावार्थ
( यः ) जो ( महि ) बड़ा भारी (एनः) पाप ( दधानान्) करनेवालों, ( शश्वतः ) सदा से चले आये या वंश परंपरा से उस में फंसे हुओं को और ( अमन्यमानान् ) शासन को न मानने और उत्तम मार्ग को न जानने वाले उच्छृङ्खवलों और अज्ञानियों को ( शर्वा ) बाणों और शासनरूप दण्ड से ( जधान ) नाश करता है । परमेश्वर पापियों के पाप को और अज्ञानियों के अज्ञान को (शर्वा) उसके नाश करनेवाले ‘शरु’ प्रायश्चित्त, पश्चात्ताप और ज्ञान से दूर करता है । और ( यः ) जो से ( शर्धते ) कुत्सित, निन्दित वाणी बोलने और निन्दित कर्म करनेवाले की ( शृध्यां ) निन्दित वाणी को ( न अनुददाति ) अनुसार कभी फलने नहीं देता, अर्थात् दूसरे के बुरे भले कहे को फलने नहीं देता, और (यः) जो (दस्योः) नाशकारी दुष्ट पुरुष का ( हन्ता ) नाशक है हे (जनासः) विद्वान् पुरुषो ! ( सः ) वह ( इन्द्रः ) ऐश्वर्यवान् पुरुष राजा और उन ही गुणों वाला परमेश्वर ‘इन्द्र’ पद से कहाता है । इत्यष्टमो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गृत्समद ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः- १–५, १२–१५ त्रिष्टुप् । ६-८, १०, ११ निचृत् त्रिष्टुप । भुरिक् त्रिष्टुप । पंचदशर्चं सूक्तम् ॥
मन्त्रार्थ
(यः-महि-एनः-दधानान्-अमन्यमानान् शर्वा जघान) जो बडे भारी पाप को धारण करने वाले अज्ञानी अपने ऊपर किसी को न मानने वाले अहङ्कारी या नास्तिकों को शरुहिंसक वज्र से हत कर देता है (यः शर्धते शुध्यां न अनुददाति) जो निन्दित शब्द करते हुए के लिए शुध्या-निन्दित चाणी को अनुदान सहारा नहीं देता है-सफल नहीं होने देता (यः दस्यो:-हन्ता) जो दस्यु कर्मों को उपक्षय करने वाले दस्यु-कर्मों मेघ का हन्ता है (जनासः-सः-इन्द्रः) हे जनो! वह व्याप्त विद्युद्देव या परमात्मा है ॥१०॥
विशेष
ऋषि:-गृत्समदः (मेधावी प्रसन्न जन" गृत्स:-मेधाविनाम" [निव० ३।१५]) देवताः-इन्द्रः (अध्यात्म में व्यापक परमात्मा आधिदैविक क्षेत्र में सर्वत्र प्राप्त विद्युत्)
मराठी (1)
भावार्थ
जर परमेश्वर दुष्ट लोकांना मारणार नसेल, धार्मिकांचा सत्कार करणार नसेल, दुष्टांना नष्ट करणार नसेल तर त्याची न्यायव्यवस्था नष्ट होईल. ॥ १० ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
He who holds and governs the eternal constituents of existence, who with his power of justice and punishment destroys the disreputables taking recourse to great sins and crimes, who disapproves, scotches and silences the evil tongue of the maligner, and who eliminates the wicked exploiter: such, O people, is Indra.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The theme of God is dealt below.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! through various manifestations God puts a check on sinners with His powerful weapon (VAJRA). He kills those who use indecent and condemnable language and defame others. He favors the right type of persons and punishes the wrong doers. Such an Indra (God) is most powerful and adorable.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
If God does not punish the wicked and sinners and does not provide honor to the righteous persons then His eternal justice system would collapse.
Foot Notes
(शश्वतः) अनादिस्वरुपान्पदार्थान् = Holding the eternal substances. (अमन्यमानान्) अज्ञानिन: शठान् । = To wicked and ignorant. (शर्द्धते) यः शर्द्ध करोति तस्मै = For those who speak indecent condemnable language. (शृध्याम्) शब्दकुत्साम् । = The words used to defame some one. (दस्यो:) परपदार्थहत्तुंर्दुष्टस्य = Of the one who is wicked and thief.
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