ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 12/ मन्त्र 5
यं स्मा॑ पृ॒च्छन्ति॒ कुह॒ सेति॑ घो॒रमु॒तेमा॑हु॒र्नैषो अ॒स्तीत्ये॑नम्। सो अ॒र्यः पु॒ष्टीर्विज॑इ॒वा मि॑नाति॒ श्रद॑स्मै धत्त॒ स ज॑नास॒ इन्द्रः॑॥
स्वर सहित पद पाठयम् । स्म॒ । पृ॒च्छन्ति॑ । कुह॑ । सः । इति॑ । घो॒रम् । उ॒त । ई॒म् । आ॒हुः॒ । न । ए॒षः । अ॒स्ति॒ । इति॑ । ए॒न॒म् । सः । अ॒र्यः । पु॒ष्टीः । विजः॑ऽइव । आ । मि॒ना॒ति॒ । श्रत् । अ॒स्मै॒ । ध॒त्त॒ । सः । ज॒ना॒सः॒ । इन्द्रः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यं स्मा पृच्छन्ति कुह सेति घोरमुतेमाहुर्नैषो अस्तीत्येनम्। सो अर्यः पुष्टीर्विजइवा मिनाति श्रदस्मै धत्त स जनास इन्द्रः॥
स्वर रहित पद पाठयम्। स्म। पृच्छन्ति। कुह। सः। इति। घोरम्। उत। ईम्। आहुः। न। एषः। अस्ति। इति। एनम्। सः। अर्यः। पुष्टीः। विजःऽइव। आ। मिनाति। श्रत्। अस्मै। धत्त। सः। जनासः। इन्द्रः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 12; मन्त्र » 5
अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 7; मन्त्र » 5
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अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 7; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे जनासो विद्वांसो ये स्म कुह स इतीं पृच्छन्ति उतैनं घोरमाहुरपरे एषो नास्तीति सोऽर्य ईश्वरो विजइव दोषानामिनात्यस्मै जीवाय पुष्टीः श्रच्च दधाति स इन्द्रोऽस्तीति यूयं धत्त ॥५॥
पदार्थः
(यम्) (स्म) एव। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (पृच्छन्ति) (कुह) क्व (इति) (घोरम्) हननम् (उत) अपि (ईम्) सर्वतः (आहुः) कथयन्ति (न) निषेधे (एषः) (अस्ति) (इति) (एनम्) (सः) (अर्यः) ईश्वरः (पुष्टीः) पोषणानि (विजइव) भयेन सञ्चलित इव (आ) (मिनाति) हिनस्ति (श्रत्) सत्यम् (अस्मै) (धत्त) धरत (सः) (जनासः) (इन्द्रः) ॥५॥
भावार्थः
य आश्चर्यगुणकर्मस्वभावः परमेश्वरोऽस्ति तं केचित्क्वास्तीति ब्रुवन्ति केचिदेनं भयङ्करं केचिच्छान्तं केचिदयं नास्तीति बहुधा वदन्ति सः सर्वस्याधाभूतस्सन् सत्यं धर्मं जीवनोपायाँश्च वेदद्वारोपदिशति स सर्वैरुपासनीयः ॥५॥
हिन्दी (5)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे (जनासः) मनुष्यो ! विद्वान् (यम्,स्म) जिसको (कुह,सः) वह कहाँ है (इति) ऐसा (ईम्) सबसे (पृच्छन्ति) पूछते हैं (उत) और कोई (एनम्) इसको (घोरम्) हननरूप हिंसारूप अर्थात् भयङ्कर (आहुः) कहते हैं, अन्य कोई (एषः) यह (न,अस्ति) नहीं है (इति) ऐसा कहते हैं (सः) वह (अर्यः) ईश्वर (विजइव) भय से जैसे कोई सञ्चलित हो चेष्टा करे वैसे दोषों को (आ,मिनाति) अच्छे प्रकार नष्ट करता है और (अस्मै) इस जीव के लिये (पुष्टीः) पुष्टियों और (श्रत्) सत्य को धारण करता (सः) वह (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् है, इसको तुम (धत्त) धारण करो ॥५॥
भावार्थ
जो आश्चर्य गुणकर्मस्वभावयुक्त परमेश्वर है उसको कोई वह कहाँ है, ऐसा कहते हैं, कोई उसको भयङ्कर, कोई शान्त और यह नहीं है ऐसा बहुत प्रकार से कहते हैं। वह सबका आधाभूत हुआ सत्य धर्म और जीवन के उपायों का वेद के द्वारा उपदेश करता है, वह सबको उपासना करने योग्य है ॥५॥
विषय
(ईश्वर खण्ड) वह है
शब्दार्थ
(यं) जिस ईश्वर के विषय में (कुह सः इति ) वह कहाँ है ? इस प्रकार ( पृच्छन्ति स्म) पूछते हैं (उत) और कुछ लोग (ईम्) इसको (घोरम्) घोरकर्मा, दण्डदाता (आहुः) कहते हैं, कुछ लोग (एनम्) इसके विषय में (एष:) यह (न अस्ति) नहीं है (इति) ऐसा कहते हैं । (स:) वह (अर्य:) संसार का स्वामी (पुष्टी:) ऐश्वर्यों और समृद्धियों को (विज इव) कँपाकर (आ मिनाति) नष्ट कर देता है । ( जनास:) हे मनुष्यो ! (अस्मै ) उसके लिए (श्रत् धत्त) श्रद्धा करो (स: इन्द्रः) वह ऐश्वर्यशाली परमात्मा है ।
भावार्थ
संसार में ईश्वर के विषय में लोगों की भिन्न-भिन्न धारणाएँ हैं। कुछ लोग कहते हैं ईश्वर यदि है तो दीखता क्यों नहीं ? कुछ लोगों का विचार है कि ईश्वर घोरकर्मा है, वह दण्डदाता है, वह प्राणियों को रुलाता है । कुछ लोग घोषणापूर्वक यह कह दिया करते हैं कि इस संसार का निर्माता कोई नहीं है। इसका नियन्ता और पालक कोई नहीं है । इस मन्त्र में ईश्वर - सिद्धि के लिए दो युक्तियाँ दी हैं। प्रथम है स्वाभाविक इच्छा । प्रत्येक व्यक्ति ईश्वर के विषय में जानना चाहता है, अत: ईश्वर है। दूसरी है संसार में होनेवाली आकस्मिक घटनाएँ जो मनुष्यों के जीवन में प्रायः घटती रहती हैं। बाह्य दृष्टि से उनका कोई कारण दिखाई नहीं देता परन्तु कोई कारण तो होना ही चाहिए। वह कारण परमेश्वर ही हो सकता है। सांसारिक ऐश्वर्यों को क्षणभर में मिट्टी में मिला देनेवाली कोई सत्ता है । मनुष्यो ! उसमें श्रद्धा धारण करो ।
विषय
प्रभु में अनास्था
पदार्थ
१. गतमन्त्र के अनुसार सब लोकों को नश्वर बनानेवाले (यं घोरम्) = जिस उग्र प्रभु को आसुरीवृत्तिवाले लोग (कुह सः) = 'कहाँ है वह !' (इति) = इस प्रकार (पृच्छन्ति स्म) = पूछते हैं। (उत) = और (ईम्) = निश्चय से (एनम्) = इस परमात्मा को (एषः न अस्ति) = यह नहीं है (इति) = इस प्रकार (आहुः) = कहते हैं। सामान्यतः 'वे प्रभु नहीं हैं' ऐसा ही उनका विचार बनता है। ऐसा मानकर वे अन्याय्य मार्गों से धनों का संग्रह करते हैं । २. (सः) = वे प्रभु (अर्यः) = इन धनार्जन-प्रसित पुरुषों की (पुष्टी:) = [Pressessions] धनों व सम्पत्तियों को (विजः इव) = भूकम्प की तरह (आमिनाति)=सर्वथा = नष्ट कर देते हैं । हे (जनासः) = लोगो! (अस्मै) = इस बात के लिए (श्रुत् धत्त) = श्रद्धा धारण करो । (सः इन्द्रः) = वे ही परमैश्वर्यशाली प्रभु हैं। सब शक्तिशाली कर्मों के वे करनेवाले हैं। अन्यायार्जित धनों का भी वे विनाश कर देते हैं । अन्याय्य मार्ग से धर्नाजन में लगता है। वे प्रभु इन धनों
भावार्थ
भावार्थ- मनुष्य प्रभु को भूल कर का विनाश कर देते हैं ।
विषय
बलवान् राजा, सभापति, जीवात्मा और परमेश्वर का वर्णन ।
भावार्थ
( यं ) जिस परमेश्वर के विषय में ( स्म ) प्रायः लोग ( पृच्छन्ति ) पूछा करते हैं बतलाओ ( कुह सः इति ) वह कहां है ? ( उत ) और ( ईम् ) इस परमेश्वर को कुछ लोग ( घोरम् ) घोर, सब का हनन करने वाला, भयानक काल ( आहुः ) बतलाते हैं और कुछ लोग ( एनम् ) इसके विषय में कहा करते हैं कि ( न एषः अस्ति इति ) वह है ही नहीं, परमेश्वर की कोई सत्ता नहीं । ( सः ) वह ( अर्यः ) सब का स्वामी ( विजः इव ) भयदायक व्याध के समान ( पुष्टीः ) समस्त हृष्ट पुष्ट जीवों को ( आमिनाति ) विनाश करता है ( अस्मै ) इसके विषय में ( श्रत् ) सत्य ज्ञान प्राप्त करो, विश्वास पूर्वक यह सत्य जानो कि हे (जनासः) विद्वान् लोगो ( सः इन्द्रः ) वही ‘इन्द्र’ सर्वैश्वर्यवान् परमेश्वर है । ( २ ) जिस प्रसिद्ध राजा के विषय में लोग सदा पूछते रहते हैं वह कहां है ? शत्रु उसे घोर हत्याकारी कहते, विपक्षी अभिमानी उसकी सत्ता से इन्कार करते और वह दुष्ट शत्रुसेनाओं को भयभीत पशुओं को व्याघ्र के समान मारता है । सच जानो वही वीर ‘इन्द्र’ कहाने योग्य है । इति सप्तमो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गृत्समद ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः- १–५, १२–१५ त्रिष्टुप् । ६-८, १०, ११ निचृत् त्रिष्टुप । भुरिक् त्रिष्टुप । पंचदशर्चं सूक्तम् ॥
मन्त्रार्थ
(यं पृच्छन्ति स्म कुह स इति) जिस को वैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक जिज्ञासु जन पूछा करते हैं वह कहां है 'सः सु विभक्ते लुक्-छान्दसः'- "सुपा सुलुक्” (अष्टा ७|१|३६) उसके अदृश्य होने से सर्वत्र व्याप्त विद्यततत्त्व अदृश्य है, अग्नि जैसा दृश्य नहीं। परमात्मा भी अदृश्य है नेत्रों से दीखने वाला न होने से (एनं घोरम् ईम्-आहुः) इसे घोर भयङ्कर विनाशकारी या पुण्य कर्म न करके पाप कर्म का दुःख भुगाने पर परमात्मा को क्रूर दयाहीन कुछ जन कहते हैं, उसे मानते हुए भी (न-एषः-अस्ति-इति-एनम्) यह इन्द्र नाम से अदृश्य पदार्थ व्याप्त विद्युत् या परमात्मा है ही नहीं ऐसा भी इसे कुछ अज्ञानी या नास्तिक जन कहते हैं (सः-विज:-इव-अर्य:-पुष्टीः-मिनाति) वह जैसे भयानक व्याध स्वामी अधिकर्ता पुष्ट वन. प्राणी व्यक्तियों को हिंसित करता है ऐसे जल से पुष्ट मेघपंक्तियों का तथा पाप की कमाई से पुष्ट व्यक्तियों का लोकहितार्थ विनाश करता है (जनास: स:-इन्द्रः) हे जनो! वह इन्द्र व्याप्त विद्युद्देव या परमात्मा है ॥५॥
विशेष
देवताः-इन्द्रः (अध्यात्म में व्यापक परमात्मा आधिदैविक क्षेत्र में सर्वत्र प्राप्त विद्युत्)
मराठी (1)
भावार्थ
आश्चर्यगुणकर्मस्वभावयुक्त परमेश्वर कुठे आहे असे काही जण विचारतात, तर तो भयंकर आहे असे काहीजण म्हणतात. तो शांत आहे असेही काही जण म्हणतात, तर तो असा नाही असेही पुष्कळ जण म्हणतात. तो सर्वांचा आधारभूत असून सत्य, धर्म व जीवनाच्या उपायांना वेदाद्वारे उपदेश करतो, तोच सर्वांनी उपासना करण्यायोग्य आहे. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Of whom they often ask: Where is he? He is terrible, say they. He is everywhere, say some. He is nowhere, say others. He is the master and lord of all, creates, evolves and devolves, elevates with a heave and, “like a victor” he shoots down the thriving ones: Such, O people, is Indra. Know him well in truth, and have faith.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
More knowledge about God is given.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned men ! all people have an urge to know about Him that where is He? Some describe Him as very cruel and killing. But the others deny. According to them He is Master of the universe and because of His fear all vices and evils are stamped out. He is a great holder of prosperity, truth and power for the soul. We should always hold Him.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
It is strange that some people doubt the existence and abode of God, while others have positive faith in His existence and actions, who guides the truth, righteousness and principles of life through the Vedas. We all should adore Him.
Foot Notes
(घोरम् ) हननम् 1 = Killing or commit violence. (पुष्टी:) पोषणानि = The covers and supports. ( विज इव ) भयेन सञ्चालित इव | = Activated because of His fear.
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