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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 13 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 13/ मन्त्र 5
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराड्जगती स्वरः - निषादः

    अधा॑कृणोः पृथि॒वीं सं॒दृशे॑ दि॒वे यो धौ॑ती॒नाम॑हिह॒न्नारि॑णक्प॒थः। तं त्वा॒ स्तोमे॑भिरु॒दभि॒र्न वा॒जिनं॑ दे॒वं दे॒वा अ॑जन॒न्त्सास्यु॒क्थ्यः॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अध॑ । अ॒कृ॒णोः॒ । पृ॒थि॒वीम् । स॒म्ऽदृशे॑ । दि॒वे । यः । धौ॒ती॒नाम् । अ॒हि॒ऽह॒न् । अरि॑णक् । प॒थः । तम् । त्वा॒ । स्तोमे॑भिः । उ॒दऽभिः॑ । न । वा॒जिन॑म् । दे॒वम् । दे॒वाः । अ॒ज॒न॒न् । सः । अ॒सि॒ । उ॒क्थ्यः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अधाकृणोः पृथिवीं संदृशे दिवे यो धौतीनामहिहन्नारिणक्पथः। तं त्वा स्तोमेभिरुदभिर्न वाजिनं देवं देवा अजनन्त्सास्युक्थ्यः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अध। अकृणोः। पृथिवीम्। सम्ऽदृशे। दिवे। यः। धौतीनाम्। अहिऽहन्। अरिणक्। पथः। तम्। त्वा। स्तोमेभिः। उदऽभिः। न। वाजिनम्। देवम्। देवाः। अजनन्। सः। असि। उक्थ्यः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 13; मन्त्र » 5
    अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 10; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे अहिहन् यो भवान् धौतीनां पथोऽरिणगध दिवे पृथिवीं संदृशेऽकृणोः। यं त्वा वाजिनं देवं देवा अजनँस्तं त्वामुदभिर्न स्तोमेभिः प्रशंसेम स त्वमुक्थ्योऽसि ॥५॥

    पदार्थः

    (अध) (अकृणोः) करोति (पृथिवीम्) भूमिम् (संदृशे) सम्यग्द्रष्टुं (दिवे) प्रकाशाय (यः) (धौतीनाम्) धावन्तीनां नदीनाम् (अहिहन्) अहेर्मेघस्य हन्तेव शत्रुहन् (अरिणक्) विरिणक्ति (पथः) मार्गान् (तम्) (त्वा) त्वाम् (स्तोमेभिः) स्तुतिभिः (उदभिः) उदकैः (न) इव (वाजिनम्) वेगवन्तम् (देवम्) दिव्यगुणकर्मस्वभावम् (देवाः) देदीप्यमानाः (अजनन्) जनयन्ति (सः) (असि) (उक्थ्यः) ॥५॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। हे मनुष्या यथा सविता नदीनां मार्गान् जनयति सर्वं मूर्त्तन्द्रव्यं प्रकाशयति तथा न्यायमार्गान् संचाल्य विद्याशिक्षे यूयं प्रकाशयत ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे (अहिहन्) मेघहन्ता सूर्य के समान शत्रुओं को हननेवाले ! (यः) जो आप (धौतीनाम्) धावन करती हुई नदियों के (पथः) मार्गों को (अरिणक्) अलग-अलग करते हैं (अध) इसके अनन्तर (दिवे) प्रकाश के लिये (पृथिवीम्) भूमि को (संदृशे) अच्छे प्रकार देखने को (अकृणोः) करते हैं अर्थात् मार्गों को शुद्ध कराते जिन (त्वा) आपको (वाजिनम्) वेगवान् और (देवम्) दिव्य गुण, कर्म, स्वभाववाले को (देवाः) देदीप्यमान विद्वान् जन (अजनन्) उत्पन्न करते हैं (तम्) उन आपको (उदभिः) जलों से (न) जैसे वैसे (स्तोमेभिः) स्तुतियों से हम लोग प्रशंसित करते हैं (सः) वह आप (उक्थ्यः) कथनीय जनों में प्रसिद्ध (असि) हैं ॥५॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं । हे मनुष्यो ! जैसे सविता नदियों के मार्गों को उत्पन्न करता सब मूर्तिमान् द्रव्य को प्रकाशित करता, वैसे न्याय मार्गों को अच्छे प्रकार चला कर विद्या और शिक्षा का प्रकाश तुम करो ॥५॥

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    विषय

    दर्शनीय प्रकाशमय जीवन

    पदार्थ

    १. हे (अहिहन्) = वासना रूप 'अहि' वृत्र का विनाश करनेवाले प्रभो ! (यः) = जो आप (धौतीनाम्) [धाव् गतिशुद्धयोः] = जीवन को शुद्ध बनानेवाले ज्ञानप्रवाहों के (पथः) = मार्गों को (आरिणक्) = वासनारूप विघ्नों से खाली कर देते हैं और इस प्रकार ज्ञानप्रवाहों को ठीक से गतिमय करते हैं, वे आप (अध) = 'अहि' का विनाश करने के बाद (पृथिवीम्) = इस शरीररूप पृथिवी को संदृशे देखने योग्य, नीय व सुन्दर बनाते हैं और दिवे (आकृणोः) = प्रकाशमय करते हैं । २. (तं देवं त्वा) = उन प्रकाशमय आपको (देवाः) = देववृत्ति के पुरुष (स्तोमेभिः) = स्तुतियों द्वारा अजनन् अपने में प्रकट करते हैं। उसी प्रकार आपको अपने हृदयों में प्रादुर्भूत करते हैं, (न) = जैसे कि (उदभि:) = जलों अर्थात् रेत: कणों से [आप: रेतः] (वाजिनम्) = अपने को शक्तिशाली बनाते हैं । वस्तुतः ज्ञानप्रवाहों के ठीक चलने पर ये वासनाओं को दग्ध करके अपने में शक्ति का रक्षण करते हैं। शक्तिरक्षण से शक्तिशाली बनकर ये आपके दर्शनों के अधिकारी होते हैं। (सः) = वे आप (उक्थ्यः असि) = स्तुति के योग्य हैं। आपकी कृपा से ही वासना का विनाश होकर ज्ञानप्रवाहों का ठीक से चलना होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभुकृपा से वासना का विनाश होकर ज्ञान दीप्ति होती है और हमारा जीवन दर्शनीय व प्रकाशमय बनता है। इसीलिए देववृत्ति के पुरुष स्तवन द्वारा प्रभुदर्शन के लिए यत्नशील होते हैं।

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    विषय

    गृहपतिवत् राजा के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( अहिहन ) मेघ के नाशक सूर्य या विद्युत् के समान अज्ञान आवरण के नाशक या प्रकृति के अविकृत तमस को दूर करनेवाले ! परमेश्वर ! तू ( दिवे संदृशे ) सूर्य के प्रकाश के द्वारा अच्छी प्रकार से देखने के लिये ( पृथिवीम् ) पृथिवी को ( अकृणोः ) बनाता है । और ( यः ) जो तू ( धौतीनाम् ) दौड़ती हुई, वेग से जाती हुई, भूमियों, नदियों और लोक प्रजाओं के ( पथः ) मार्गों को ( आरिणक् ) स्वच्छ, प्रकट और बेरोक कर देता है । ( उदभिः वाजिनं ) जलों से सींचकर जिस प्रकार अन्न से युक्त क्षेत्र गत ओषधिवर्ग को उत्पन्न करते और बढ़ाते हैं उसी प्रकार ( देवाः ) विद्वान् पुरुष ( स्तोमेभिः ) उत्तम स्तुतियों से ( देवं ) सर्वप्रकाशक, सर्वदानी ( वाजिनम् ) बलवान् ( त्वा ) तुझ को ( अजनन् ) प्रकट करते हैं ( सः उक्थ्यः असि ) वह तू सब से प्रशस्त वचन वेद वाक्यों से स्तुति के योग्य है । इति दशमो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १, २, ३, १०, ११, १२ भुरिक् त्रिष्टुप् । ७, ८ निचृत्त्रिष्टुप् । ९, १३ त्रिष्टुप् । ४ निचृज्जगती । ५, ६ विराट् जगती ॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. हे माणसांनो! जसा सूर्य नद्यांचे मार्ग उत्पन्न करतो, सर्व मूर्तिमान द्रव्यांना प्रकाशित करतो तसे तुम्ही न्यायमार्गाने विद्या व शिक्षण प्रकट करा. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    And you develop the earth to a festival of lights for all to see and celebrate, O breaker of the cloud of rain showers of wealth, and you open the various channels of wealth for the streams to flow. Such as you are, Indra, lord of light, wealth and power, brilliant and generous, dynamic and tempestuous as wind and energy, brilliant scholars of the world anoint you with holy waters, and celebrate you with citations and presentations, and raise you to eminence. Adorable you are, indeed.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The benefits from learned persons are stated in detail.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned persons ! you are comparable with sun, smashing or killing the clouds. You also defeat the enemy same way by crossing over the fast flowing rivers and roads separately. During the day-light, you search the various areas of the land thoroughly and make your paths smooth. This all is possible only because of the learned persons, who are full of divine acts and mature and are quick and shining. We adore them with nice waters or drinks along with praise-worthy languages. Such learned men are prominent and eminent, both.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Here are two similes. The sun by melting the snow on the summits of mountains gradually make big flowing rivers by suitably providing waterways. The same way, a learned man gets the various substances shining and leads the human-beings on the path of justice. Likewise, you should also create light of learning and education among the common men.

    Foot Notes

    (धौतिनांम्) धावन्तिनांम नदीनाम् = Of the flowing rivers. (अहिहन्) अहेर्मेघस्य हन्तेवशत्रुहन (अहिहन्) अहेर्मेघस्य हन्तेव शत्नुहन् = Smasher or killer of the clouds comparable with a warrior killing his foes. (स्तोमेभिः ) स्तुतिभिः। = By dint of adoration.

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