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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 30 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 30/ मन्त्र 10
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अ॒स्माके॑भिः॒ सत्व॑भिः शूर॒ शूरै॑र्वी॒र्या॑ कृधि॒ यानि॑ ते॒ कर्त्वा॑नि। ज्योग॑भूव॒न्ननु॑धूपितासो ह॒त्वी तेषा॒मा भ॑रा नो॒ वसू॑नि॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒स्माके॑भिः । सत्व॑ऽभिः । शू॒र॒ । शूरैः॑ । वी॒र्या॑ । कृ॒धि॒ । यानि॑ । ते॒ । कर्त्वा॑नि । ज्योक् । अ॒भू॒व॒न् । अनु॑ऽधूपितासः । ह॒त्वी । तेषा॑म् । आ । भ॒र॒ । नः॒ । वसू॑नि ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अस्माकेभिः सत्वभिः शूर शूरैर्वीर्या कृधि यानि ते कर्त्वानि। ज्योगभूवन्ननुधूपितासो हत्वी तेषामा भरा नो वसूनि॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अस्माकेभिः। सत्वऽभिः। शूर। शूरैः। वीर्या। कृधि। यानि। ते। कर्त्वानि। ज्योक्। अभूवन्। अनुऽधूपितासः। हत्वी। तेषाम्। आ। भर। नः। वसूनि॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 30; मन्त्र » 10
    अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 13; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे शूर यानि वीर्य्या ते ज्योक् ते कर्त्तवानि सन्ति तान्यस्माकेभिः सत्वभिः शूरैस्त्वं कृधि येऽनुधूपितासोऽभूवन्तान् रक्षयित्वा दुष्टान् हत्वी तेषां नो वसूनि त्वमाभर ॥१०॥

    पदार्थः

    (अस्माकेभिः) अस्मदीयैः। अत्र वाच्छन्दसीत्यणि वृद्ध्यभावः (सत्वभिः) (शूर) दुष्टानां हिंसक (शूरैः) निर्भयैः (वीर्य्या) वीरेभ्यो हितानि धनानि (कृधि) कुरु (यानि) (ते) तव (कर्त्त्वानि) कर्त्तुं योग्यानि (ज्योक्) निरन्तरम् (अभूवन्) भवेयुः (अनुधूपितासः) अनुकूलैः सुगन्धैः संस्कृताः (हत्वी) (तेषाम्) (आ) (भर) धर। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः (नः) अस्माकम् (वसूनि) उत्तमानि द्रव्याणि ॥१०॥

    भावार्थः

    यदा राजसु युद्धं प्रवर्त्तेत तदा प्रजास्थैर्जनैस्तान् प्रत्येवं वाच्यं नैव भेत्तव्यं यावन्तो वयं स्मस्तावन्तः सर्वे भवतां सहायाः स्मः यद्येवं यूयं वयं च न कुर्य्याम तर्हि कुतो विजयः ॥१०॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे (शूर) दुष्टों को मारनेहारे वीरजन (यानि) जो (वीर्य्या) वीर पुरुषों के लिये हितकारी धन (ते) आपके (ज्योक्) निरन्तर (कर्त्त्वानि) करने योग्य हैं उनको (अस्माकेभिः) हमारे सम्बन्धी (सत्वभिः) शरीरधारी प्राणी (शूरैः) निर्भय पुरुषों के साथ आप (कृधि) कीजिये। जो (अनुधूपितासः) अनुकूल गन्धों से संस्कार किये हुए (अभूवन्) होवें उनकी रक्षाकर दुष्टों को (हत्वी) मारके (तेषाम्) उनके और (नः) हमारे (वसूनि) उत्तम द्रव्यों को आप (आ,भर) अच्छे प्रकार धारण कीजिये ॥१०॥

    भावार्थ

    जब राजाओं में युद्ध प्रवृत्त हो प्रजास्थ मनुष्य उनके प्रति ऐसे कहें कि तुम डरो नहीं, जितने हमलोग हैं, वे सब तुम्हारे सहायक हैं, जो ऐसे आप हम आपस में एक-दूसरे से सहायक न हों तो विजय कहाँ से होवे? ॥१०॥

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    विषय

    प्रेम, करुणा व दानवृत्ति

    पदार्थ

    १. प्रभु जीव से कहते हैं कि हे शूर-शत्रुओं को शीर्ण करनेवाले जीव! (अस्माकेभिः) = हमारे से दिये हुए (शूरै:) = शत्रुओं को शीर्ण करनेवाले (सत्वभिः) = बलों से वीर्या कृधि-शक्तिशाली कर्मों को तू करनेवाला हो । (यानि) = जो शक्तिशाली कर्म (ते कर्त्वानि) = तेरे कर्त्तव्य हैं । वस्तुतः जीव का मूल कर्त्तव्य यही है कि यह अन्तः शत्रुओं को पराजित करने का प्रयत्न करे । काम-क्रोध-लोभ का विजय ही सब उन्नतियों का मूल है। ३. तेरे शत्रु (ज्योक्) = चिरकाल तक (अनुधूपितासः) = सन्तप्त (अभूवन्) = हों । हत्वी इनको मारकर (तेषां वसूनि) = उनके वसुओं को (नः) = हमारी प्राप्ति के लिए (आभर) = धारण कर । काम के विनाश से 'प्रेम' का विकास होता है। क्रोध विनष्ट होकर करुणा के रूप में हो जाता है और लोभ नष्ट होकर सद्गुणों के संग्रह की रुचि को व दानवृत्ति को जन्म देता है । 'प्रेम, करुणा व दान' ही वे वसु हैं, जो हमें इन शत्रुओं के विनाश से प्राप्त होते हैं। इनको प्राप्त करनेवाला प्रभुप्राप्ति का अधिकारी बनता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रभु से शक्ति को प्राप्त करके काम, क्रोध, लोभ को नष्ट करें तथा 'प्रेम, करुणा व दान' को धारण करनेवाले बनकर प्रभु को प्राप्त हों।

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    विषय

    सेना का कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( शूर ) शूरवीर सेनापते ! ( अस्माकेभिः ) हमारे ( सत्वभिः ) शत्रुनाशकारी, वेगवान् बलवान्, ( शूरैः ) शुरवीर पुरुषों से मिलकर ( यानि ) जो २ ( वीर्याणि ) बल पराक्रम के कार्य ( कर्त्त्वानि ) करने योग्य हों उनको ( कृधि ) कर। ( अनुधूपितासः ) सुगंधित पदार्थों से संस्कार किये गये जन ( ज्योक् अभूवन् ) चिरंजीवी हों। और जो दुष्ट पुरुष हों ( तेषाम् ) उनको ( हत्वी ) मारकर उनके ( वसूनि ) धन ( नः आभर ) हमें प्रदान कर । अथवा—जो ( ज्योग् अनुधूपितासः अभूवन् ) शत्रुगण चिरकाल से सुलगते रहे हों उनको मारकर उनके धन हमें दे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषिः ॥ १–५, ७, ८, १० इन्द्रः । ६ इन्द्रासोमौ। ९ बृहस्पतिः। ११ मरुतो देवता ॥ छन्दः– १, ३ भुरिक पक्तिः । २, ८ निचृत् त्रिष्टुप् । ४, ५, ६, ७,९ त्रिष्टुप् । १० विराट् त्रिष्टुप् । ११ भुरिक् त्रिष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जेव्हा राजांमध्ये युद्ध सुरू असेल तेव्हा प्रजेने त्यांना म्हणावे की तुम्ही घाबरू नका, आम्ही सर्वजण तुमचे सहायक आहोत. जर आपण एकमेकांचे सहायक बनलो नाही तर विजय कसा मिळेल? ॥ १० ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O Indra, valiant hero and ruler of the world, with our resolute heroes of real mettle, do the deeds worthy of your character and majesty. And if there be adversaries long puffed up with pride and arrogance, break them down to their reality and hold and manage their assets and ours for the nation.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The relationship between the rulers and ruled are elaborated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O brave persons (and killers of wicked army men) ! you share your wealth of velour with our fearless human beings. By protecting the cultured men and finishing the wickeds, you ensure safety of our valuables and hold them well.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    In the case of battle with the enemy rulers, the State officials should seek full participation and cooperation from the masses and tell them that mutual help is the key to our victory.

    Foot Notes

    (शूर) दुष्टानां हिंसक। = Brave person who is killer of wickeds. (वीय्र्या) वीरेभ्यो हितानि धनानि। = Wealth of velour. (कर्त्वानि) कर्त्तु योग्यानि। = Duties. (ज्योक) निरन्तरम्। = Incessantly (अनुधूपितास:) अनुकूलै: सुगन्धै: संस्कृता:। = Cultured or virtuous.

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