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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 42 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 42/ मन्त्र 3
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - कपिञ्जलइवेन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अव॑ क्रन्द दक्षिण॒तो गृ॒हाणां॑ सुम॒ङ्गलो॑ भद्रवा॒दी श॑कुन्ते। मा नः॑ स्ते॒न ई॑शत॒ माघशं॑सो बृ॒हद्व॑देम वि॒दथे॑ सु॒वीराः॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अव॑ । क्र॒न्द॒ । द॒क्षि॒ण॒तः । गृ॒हाणा॑म् । सु॒ऽम॒ङ्गलः॑ । भ॒द्र॒ऽवा॒दी । श॒कु॒न्ते॒ । मा । नः॒ । स्ते॒नः । ई॒श॒त॒ । मा । अ॒घऽशं॑सः । बृ॒हत् । व॒दे॒म॒ । वि॒दथे॑ । सु॒ऽवीराः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अव क्रन्द दक्षिणतो गृहाणां सुमङ्गलो भद्रवादी शकुन्ते। मा नः स्तेन ईशत माघशंसो बृहद्वदेम विदथे सुवीराः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अव। क्रन्द। दक्षिणतः। गृहाणाम्। सुऽमङ्गलः। भद्रऽवादी। शकुन्ते। मा। नः। स्तेनः। ईशत। मा। अघऽशंसः। बृहत्। वदेम। विदथे। सुऽवीराः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 42; मन्त्र » 3
    अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 11; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे शकुन्ते सुमङ्गलो भद्रवादी संस्त्वं गृहाणां दक्षिणतोऽवक्रन्द यतः स्तेनो नो मेशत अघशंसो नो मेशत यतस्सुवीरा वयं विदथे बृहद्वदेम ॥३॥

    पदार्थः

    (अव) (क्रन्द) शब्दं कुरु (दक्षिणतः) दक्षिणपार्श्वे (गृहाणाम्) प्रसादानाम् (सुमङ्गलः) (भद्रवादी) (शकुन्ते) शक्तिमन् (मा) (नः) अस्मान् (स्तेनः) चोरः (ईशत) समर्थो भवेत्। अत्र विकरणव्यत्ययेन शः (मा) निषेधे (अघशंसः) योऽघं पापं शंसति स दस्युः (बृहत्) (वदेम) (विदथे) (सुवीराः) ॥३॥

    भावार्थः

    शुद्धाचारास्सत्यवादिनो महात्मानो यत्रोपदिशन्ति तत्र चोरादयो दुष्टा नष्टा भूत्वा सर्वेषाम्महत्सुखं वर्द्धते ॥३॥ अत्रोपदेशकगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह संगतिर्वेद्या ॥ इति द्विचत्वारिंशत्तमं सूक्तमेकादशो वर्गश्च समाप्तः॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को कहते हैं।

    पदार्थ

    (शकुन्ते) शक्तिमान् (सुमङ्गलः) सुन्दर मङ्गलयुक्त (भद्रवादी) कल्याण के कहनेवाले होते हुए आप (गृहाणाम्) उत्तम घरों के (दक्षिणतः) दाहिनी ओर से (अव,क्रन्द) शब्द करो अर्थात् उपदेश करो जिससे (स्तेनः) चोर (नः) हम लोगों को कष्ट देने को (मा) मत (ईशत) समर्थ हो (अघशंसः) पाप की प्रशंसा करता वह डाकू हम लोगों को दुष्टता देने को (मा) मत समर्थ हो जिससे (सुवीराः) सुन्दर वीरोंवाले हम लोग (विदथे) संग्राम में (बृहत्) बहुत कुछ (वदेम) कहें ॥३॥

    भावार्थ

    शुद्धाचरणों को करनेवाले सत्यवादी महात्मा जहाँ उपदेश करते हैं, वहाँ चोर आदि दुष्ट नष्ट होकर सबको बहुत सुख बढ़ता है ॥३॥ इस सूक्त में उपदेशक के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पूर्व सूक्तार्थ के साथ संगति जाननी चाहिये ॥ यह बयालीसवाँ सूक्त और ग्यारहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    चोर व अयशंस से बचें

    पदार्थ

    १. संन्यासी घर में आये तो गृहस्थ उसे अपने दाहिने पार्श्व में [उत्तराभिमुख] बिठाते हैं । दाहिनी ओर बिठाना आदर का सूचक होता है। उपदेश लेनेवाले गृहस्थ लोग पूर्वाभिमुख बैठें तो इस संन्यासी को वे अपने दक्षिण हाथ की ओर उत्तराभिमुख बिठाते हैं। (गृहाणाम्) = गृहस्थ लोगों के (दक्षिणतः) = दक्षिण की ओर बैठा हुआ शकुन्ते शक्तिशाली तू (अवक्रन्द) = इन नीचे बैठे लोगों को आहूत कर—इन्हें सम्बोधित करके उपदेश देनेवाला हो। 'अव' नीचे की भावना देता है, 'क्रन्द' सम्बोधन की। उपदेश लेनेवाले कुछ नीचे नम्रतापूर्वक बैठते हैं । २. संन्यासी का हृदय सबके लिए (सुमङ्गलः) = मंगलकामनावाला हो और वह सदा (भद्रवादी) = भद्र शब्दों में ही उपदेश दे । ३. हे प्रभो ! (नः) = हमें कभी भी कोई छद्मवेशवाला (स्तेन) = चोर साधु (मा ईशत) = अपने वश में मत कर ले । (अघशंसः) = बुराइयों को भी अच्छाइयों के रूप में कहनेवाला भी (मा) = हमारे पर प्रभुत्ववाला मत हो। हम उसकी बातों में न आ जाएँ। (विदथे) = ज्ञानयज्ञों में (बृहद्वदेम) = हम खूब ही आपकी चर्चा करें और (सुवीराः) = उत्तम वीर बनें व वीर-प्रजाओंवाले हों।

    भावार्थ

    भावार्थ- सुमंगल भद्रवादी शक्तिशाली संन्यासी का हम आदर करें। छद्मवेश चोर व अघशंस से बचें। इस सूक्त में आदर्श संन्यासी का सुन्दर चित्रण है। यही विषय अगले सूक्त का भी है -

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    विषय

    शकुनि, श्येन, शकुन्त, आदि का रहस्य ।

    भावार्थ

    हे ( शकुन्ते ) शक्तिशालिन् ! हे ज्ञानवन् ! शान्तिकर ! आप ( गृहाणां ) घरों के बीच ( दक्षिणतः ) दायें ओर से हमारे बीच विराजकर ( अब क्रन्द्र ) उपदेश करो। आप ( सुमङ्गलः ) उत्तम कल्याणकारी और (भद्रवादी) हितकारी वचन कहने वाले हो । ( स्तेनः ) चोर-स्वभाव का पुरुष ( नः मा ईशत ) हम पर शक्ति शाली न हो । ( अघशंसः ) पाप की बात कहने या सिखाने वाला या ‘अघ’ पापाचार इत्यादि से शासन करने वाला धोर, क्रूर, हत्यारा ( नः मा ईशत ) हम पर शासन न करे । हम लोग ( सुवीराः ) उत्तम वीर्यवान् और पुत्रों से युक्त होकर ( विदथे ) संग्राम और ज्ञान यज्ञादि में ( बृहत् ) तुम्हारा बड़ा यश ( वदेम ) गान करें । पहरेदार लोग घरों के दायें से पहरा दिया करें और विद्वान् मान्य पुरुष घरों, गृहजनों के बीच दायें बैठकर उपदेश करें। पिता के समान वृद्ध जनों को दायें रखना आदर सूचक है । उनको बायें या पीठ पीछे न करना चाहिये । इत्येकाशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषिः॥ कपिञ्जल इवेन्द्रो देवता॥ छन्द:—१, २, ३ त्रिष्टुप्॥ तृचं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    शुद्ध आचरण करणारे सत्यवादी महात्मा जेथे उपदेश करतात तेथे चोर इत्यादी दुष्ट लोक नष्ट होऊन सर्वांचे सुख वाढते. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Speak aloud, proclaim from the house tops on the right the good things to come. Speak of good fortune, man of power and the Word as you are. May no thief rule over us, no sinner, no maligner boss over us. And we would all, blest with the brave, sing aloud in praise of you and celebrant.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    More about the preachers.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O mighty preacher ! you are auspicious and utter beneficent sweet words leading to happiness and speak out sitting on the right side (proper places) of the houses. May no thief, no evil - doer praise the sin and prevail upon us, so that we good heroes tell about that great God in the Yajnas or amidst the assemblies.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Where the Mahatmas (great souls) of the purest character and absolutely truthful persons preach, thieves and other wicked persons disappear from there and all enjoy great happiness.

    Translator's Notes

    Shri Sayanancharya, Prof. Wilson, Griffith and many other translators of the Vedas have interpreted it under the erroneous impression that the reference here is to a bird named Kapinjala. But it is clear that the attributes and duties of a preacher like सुमंगलो भद्रवादी वदिह are quite evident on the point, Pandit Damodara Satavalekar has also confirmed it.

    Foot Notes

    (दक्षिणतः) दक्षिणपाश्रवें। = From the right location. (अधशंस:) योऽघं पापं शंसति सः दस्युः। = A sinner or a thief.

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