ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 6/ मन्त्र 5
स नो॑ वृ॒ष्टिं दि॒वस्परि॒ स नो॒ वाज॑मन॒र्वाण॑म्। स नः॑ सह॒स्रिणी॒रिषः॑॥
स्वर सहित पद पाठसः । नः॒ । वृ॒ष्टिम् । दि॒वः । परि॑ । सः । नः॒ । वाज॑म् । अ॒न॒र्वाण॑म् । सः । नः॒ । स॒ह॒स्रिणीः॑ । इषः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
स नो वृष्टिं दिवस्परि स नो वाजमनर्वाणम्। स नः सहस्रिणीरिषः॥
स्वर रहित पद पाठसः। नः। वृष्टिम्। दिवः। परि। सः। नः। वाजम्। अनर्वाणम्। सः। नः। सहस्रिणीः। इषः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 6; मन्त्र » 5
अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 27; मन्त्र » 5
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अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 27; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे विद्वन् यथा स नो दिवो वृष्टिं करोति स नोऽनर्वाणं वाजः प्रापयति स नः सहस्रिणीरिषः परिजनयति तथा त्वं वर्त्तस्व ॥५॥
पदार्थः
(सः) अग्निः (नः) अस्मभ्यम् (वृष्टिम्) वर्षम् (दिवः) सूर्यप्रकाशान्मेघमण्डलात् (परि) सर्वतः (सः) (नः) अस्मान् (वाजम्) वेगयुक्तम् (अनर्वाणम्) अविद्यमानाऽश्वं रथम् (सः) (नः) अस्मभ्यम् (सहस्रिणीः) असंख्याताः (इषः) अन्नानि ॥५॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैस्तथा प्रयतितव्यं यथाऽग्नेः सकाशात्पुष्कलाः उपकाराः स्युः ॥५॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे विद्वान् ! जैसे (सः) वह अग्नि (नः) हम लोगों के लिये (दिवः) सूर्यप्रकाश और मेघमण्डल से (वृष्टिम्) वर्षाओं को करता है वा (सः) वह अग्नि (नः) हम लोगों को (अनर्वाणम्) घोड़े जिसमें नहीं विद्यमान हैं उस (वाजम्) वेगवान् रथ को प्राप्त कराता है वा (सः) वह अग्नि (नः) हमारे लिये (सहस्रिणीः) असंख्यात प्रकार के (इषः) अन्नों को (परि) सब ओर से उत्पन्न कराता है, वैसे आप वर्त्ताव कीजिये ॥५॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को वैसा यत्न करना चाहिये जिससे अग्नि की उत्तेजना से बहुत उपकार हों ॥५॥
विषय
वृष्टि-शक्ति-अन्न
पदार्थ
१. (सः) = वे प्रभु ही (नः) = हमारे लिए (दिवः परि) = अन्तरिक्षलोक से [परिः पञ्चम्यर्थे] (वृष्टिम्) = वृष्टि देनेवाले हैं। वस्तुतः गतमन्त्र के अनुसार जब समाज में पारस्परिक ईर्ष्या, द्वेष नहीं होता तो पापों की वृद्धि न होकर पवित्रता का वायुमण्डल आधिदैविक आपत्तियों को दूर करने का कारण बनता है। उस समय वृष्टि बड़े ठीक समय पर होती है । २. (सः) = वे आप (नः) = हमें (वाजम्) = शक्ति को दीजिए, जो कि (अनर्वाणम्) = [अर्व् to kill] हिंसा करनेवाली नहीं। वही शक्ति ठीक है जो कि रक्षा के कार्यों में विनियुक्त होती है । ३. (सः) = वे आप (नः) = हमारे लिए (सहस्त्रिणी:) = सहस्रसंख्यक (इषः) = अन्नों को प्राप्त कराइए । अन्नों की किसी प्रकार से कमी न हो । 'अन्नं वै प्राणिनां प्राणा: '= अन्न ही प्राणियों के प्राण हैं। उत्तम अन्नों को प्राप्त करके हम अपने जीवनों को ठीक बना पाएँ ।
भावार्थ
भावार्थ - वृष्टि की कमी न हो, रक्षकशक्ति प्राप्त हो तथा अन्न पर्याप्त हो ।
Bhajan
वैदिक मन्त्र
स नो वृष्टिं दिवस्पपरि स नो वाजमनर्वाणम्।
स न: सहस्त्रिणीरिष:।। ऋ•२.६.५
वैदिक भजन ११०१ वां
राग काफी
गायन समय रात्रि का दूसरा प्रहर
ताल रूपक सात मात्रा
भाग १
दिव्य वृष्टि बरसाने वाला
देवे धरा को सरसता
झुलसी जा रही ताप से भूमि
कृष्ण- मेघ जल बरसता।।
दिव्य वृष्टि..........
ग्रीष्म ताप से तरसी धरती
ताल तलैया सुख रहे
मेघों बीच बिजुरिया कौंधे
वर्षा-जल लाए आतुरता।।
दिव्य वृष्टि.......
प्रसन्नता की लहर आ रही
कृषकों में उमंग छाई(छा रही)
अन्ना वनस्पति औषधियों में
आए नज़र प्रभु- कृतार्थता
दिव्य वृष्टि..........
वही प्रभु आत्मा के भीतर
आनन्द -वर्षा करते रहता
ज्ञानेंद्रिय, मन, आत्म-प्राणों को
दृष्टि से पुलकित करता
दिव्य वृष्टि........झुलसी......
भाग २
दिव्य वृष्टि बरसाने वाला
देदे धरा को सरसता
तुलसी जा रही ताप से भूमि
कृष्ण मेघ जल बरसता।।
दिव्य वृष्टि.......
आतंकवाद भी तांडव करता
गोलियां खाते निर्दोष
किसने अहिंसा में पैदा की ?
शक्ति विलक्षण निर्भयता।।
दिव्य वृष्टि.......
एक बीज से पौधा निकले
कितने दाने उसमें उपजे
कौन है शाक- फलों की उपज में?
अत अपनी लीलाएं करता
दिव्य वृष्टि..........
आओ अग्निस्वरूप प्रभु का
नतमस्तक हो गुण गाएं
उसके उज्जवल कृत्यों को
कर पाएं जीवन में प्रवरता।।
दिव्य वृष्टि.......... झूलसी.....
शब्दार्थ:-
धरा=धरती
कृष्ण मेघ =काले बादल
आतुरता= व्यग्रता
कृषक=किसान
कृतार्थता=सफलता, दक्षता
पुलकित=रोमांचित, हर्ष युक्त
विलक्षण= अद्भुत
कृत्य= किए जाने वाले कर्तव्य कर्म
अत=इससे
प्रवरता = श्रेष्ठता,उत्तमता
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द्वितीय श्रृंखला का ९४ वां वैदिक भजन और अब तक का
११०१ वां वैदिक भजन। 🙏
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वैदिक भजन के श्रोताओं को हार्दिक धन्यवाद एवं शुभकामनाएं! 🙏
Vyakhya
भौतिक तथा दिव्य वृष्टि बरसाने वाला
प्रचंड ग्रीष्म के ताप से भूमि झुलसी जा रही है। ताल-तलैया-सरोवर सब सूख गए हैं। दुर्भिक्ष का आतंक छा रहा है। सहसा आकाश में बादल छा जाते हैं। मानसून पवन बहने लगता है। काले मेघा के बीच बिजली को कौंधने लगती है। यह लो, प्यासी धरती पर वर्षा की पुकार गिरकर सोंधी सोंधी महक उठाने लगी है। अब देखो, मूसलाधार वर्षा होने लगी, सूखे ताल फिर से भर गए। किसानों में प्रसन्नता की लहर दौड़ गई है। औषधियां वनस्पतियां हरी-भरी एवं सप्राण हो गई हैं। यह आकाश से वृष्टि करने वाला कौन है? अग्नि नामक प्रभु ही तो है। प्रभु केवल बाहर वृष्टि का ही नहीं, दिव्य दृष्टि का भी कर्ता है। वही हमारे आत्मा में आनंद की वर्षा करता है, वही आत्मा, मन, प्राण, ज्ञानेंद्रिय आदि को दिव्य दृष्टि से पुलकित एवं सरस करता है। देश में सर्वत्र हिंसा का तांडव नृत्य हो रहा है। आक्रांता लोग निर्दोष लोगों पर गोलियां बरसा रहे हैं। आतंकवाद का बोलबाला हो रहा है। ऐसे समय में स्नेह की मुस्कान मुख पर लिए, संतप्त लोगों को सान्त्वना देता हुआ, अहिंसक बल का धनी यह कौन मुहल्ले- मुहल्ले, ग्राम-ग्राम, नगर-नगर घूम रहा है?
परम प्रभु की ही यह लीला है। उसी का जादू है।
गेहूं का एक गाना बोलने पर जो पौधा निकलता है, वह कितने अधिक दाने उत्पन्न करता है। आम की गुठली बोलने पर जो पेड़ बनता है, वह अपनी सारी आयु में असंख्य आम दे देता है। सभी अन्नो, शाक- सब्जियों एवं फलों के विषय में यह बात चरितार्थ होती है।यह अद्भुत व्यवस्था किसकी है? यह आश्चर्य- भरा खेल किसका है?उस प्रभु की ही यह व्यवस्था है,उस प्रभु का ही यह खेल है।
आओ हम उसे अग्नि प्रभु के प्रति नतमस्तक हों, उसका महिमा गान करें, उसके उज्जवल कार्यों से कुछ शिक्षा ग्रहण करें, उसे अपना गुरु बनाएं। हम भी दीन दुखियों पर परोपकार की वर्षा करें, हम भी अहिंसक बल के धनी बनें, हम भी एक से सहस्त्रों उत्पन्न करें।
विषय
विद्वान् के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
जिस प्रकार विद्युत् रूप अग्नि ( दिवः परि वृष्टिम् ) आकाश से वृष्टि देता है । और ( अनर्वाणम् वाजम् ) बिना अश्व के वेगवान् रथ देता है और ( सहस्रिणी इषः ) सहस्रों सुखप्रद अन्न और कामनाएं पूर्ण करता है इसी प्रकार ( सः ) वह विद्वान् ( नः ) हमें ( दिवः ) अपने ज्ञान प्रकाश से ( वृष्टिम् ) सुखों का वर्षण करे, ( अनर्वाणम् वाजम् ) दोष रहित ऐश्वर्य और ज्ञान और हिंसक योद्धा से रहित संग्राम का विजय प्राप्त करावे, बिना अश्व के वेगवान् रथ को संचालित करे और ( सः नः ) वह हमें ( सहस्रिणीः ) सहस्रों सुख देने वाली ( इषः ) अन्नों, कामनाओं और सेनाओं को भी प्रेरित करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सोमाहुतिभर्गिव ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः– १, ३, ५,८ गायत्री । २,४, ६ निचृद्गायत्री । ७ विराड्गायत्री ॥ अष्टर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी अशा प्रकारचा प्रयत्न केला पाहिजे, की ज्यामुळे अग्नीच्या साहाय्याने पुष्कळ उपकार व्हावेत. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Agni gives us the rain showers from the regions of the sun and sky. Agni gives us the power and automotive speed of movement without the horse. Agni gives us a thousand forms of food and energy.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The theme of learned persons is again described.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned person ! the fire or energy gets us energy through sun and clouds. He also get us the fast chariot, (coach) not drawn by horses. Such energy or fire gets us the power, which is of thousands categories. May you behave with us likewise.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The man should endeavor to get optimum benefits.
Foot Notes
(वृष्टिम् ) वर्षम् - The rains. (दिव:) सूर्य प्रकाशान्मेघमंडलात् = From the sun-light and clouds (अनर्वाणम् ) अविद्यमानाऽश्वं रथम् = The chariots (coaches) moving without the horses from the power or energy. This particular word denotes that carriers are the conveyances used or plied with automation, and without any horses-Ed.).
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