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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 23 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 23/ मन्त्र 4
    ऋषिः - देवश्रवा देववातश्च भारती देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    नि त्वा॑ दधे॒ वर॒ आ पृ॑थि॒व्या इळा॑यास्प॒दे सु॑दिन॒त्वे अह्ना॑म्। दृ॒षद्व॑त्यां॒ मानु॑ष आप॒यायां॒ सर॑स्वत्यां रे॒वद॑ग्ने दिदीहि॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नि । त्वा॒ । द॒धे॒ । वरे॑ । आ । पृ॒थि॒व्याः । इळा॑याः । प॒दे । सु॒ऽदि॒न॒ऽत्वे । अह्ना॑म् । दृ॒षत्ऽव॑त्याम् । मानु॑षे । आ॒प॒याया॑म् । सर॑स्वत्याम् । रे॒वत् । अ॒ग्ने॒ । दि॒दी॒हि॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नि त्वा दधे वर आ पृथिव्या इळायास्पदे सुदिनत्वे अह्नाम्। दृषद्वत्यां मानुष आपयायां सरस्वत्यां रेवदग्ने दिदीहि॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नि। त्वा। दधे। वरे। आ। पृथिव्याः। इळायाः। पदे। सुऽदिनऽत्वे। अह्नाम्। दृषत्ऽवत्याम्। मानुषे। आपयायाम्। सरस्वत्याम्। रेवत्। अग्ने। दिदीहि॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 23; मन्त्र » 4
    अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 23; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्याः किं कुर्युरित्याह।

    अन्वयः

    हे अग्ने ! अहं यथा त्वा पृथिव्या वर इळायास्पदेऽह्नां सुदिनत्वे दृषद्वत्यामापयायां सरस्वत्यां मानुषे रेवन्निदधे तथा मामादिदीहि ॥४॥

    पदार्थः

    (नि) (त्वा) त्वाम् (दधे) (वरे) उत्तमे व्यवहारे (आ) समन्तात् (पृथिव्याः) भूमेरन्तरिक्षस्य वा (इळायाः) वाचः (पदे) प्रापणीये स्थाने (सुदिनत्वे) शोभनानां दिनानां भावे (अह्नाम्) दिवसानाम् (दृषद्वत्याम्) बहवो दृषदो विद्यन्ते यस्याम् (मानुषे) मननशीले (आपयायाम्) प्राणव्यापिकायाम् (सरस्वत्याम्) विज्ञानवत्यां वाचि (रेवत्) प्रशस्तधनेन तुल्यम् (अग्ने) पावकवद्विद्वन् (दिदीहि) प्रकाशय ॥४॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्याः सखायो भूत्वाऽन्योऽन्यस्मिन् विद्याधर्मसभ्यतासुखानि वर्द्धयेयुः ॥४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्य क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे (अग्ने) अग्नि के सदृश तेजस्वी विद्वान् पुरुष ! मैं जैसे (त्वा) आपको (पृथिव्याः) भूमि वा अन्तरिक्ष (वरे) उत्तम व्यवहार और (इळायाः) वाणी के (पदे) प्राप्त होने योग्य स्थान में (अह्नाम्) दिवसों के (सुदिनत्वे) उत्तम दिनों में (दृषद्वत्याम्) प्रस्तरयुक्त (आपयायाम्) प्राणों में व्यापक (सरस्वत्याम्) विज्ञानवाली वाणी और (मानुषे) मननशील में (रेवत्) श्रेष्ठ धन के तुल्य (नि) (दधे) धारण किया वैसे मननकर्त्ता आप मुझको (आ) (दिदीहि) प्रकाशित करो ॥४॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि परस्पर मित्रभाव से वर्त्तमान करके विद्याधर्म सज्जनता और सुखों को बढ़ावें ॥४॥

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    विषय

    'दृषद्वती आपया व सरस्वती' में स्नान

    पदार्थ

    [१] प्रभु कहते हैं कि (त्वा) = तुझे (पृथिव्याः) = इस पृथिवी के (वरे) = उत्कृष्ट स्थान में (निदधे) = स्थापित करता हूँ। विविध पार्थिव शरीरों में यह मानव शरीर सर्वोत्कृष्ट है। इससे ऊँची योनि सम्भव नहीं । पिछली सब भोग-योनियाँ थीं तो यही कर्मयोनि है। इस कर्मयोनि में भी (इडाया: पदे) = वेदवाणी के पद में तुझे स्थापित करता हूँ। प्रभु मानव शरीर देकर यह उत्कृष्ट वेदज्ञान हमें प्राप्त कराते हैं । वेदज्ञान देकर (अह्नां सुदिनत्वे) = दिनों में भी हमें शुभ दिनों में स्थापित करते हैं, अर्थात् हमें उत्तम माता-पिता व आचार्यों का सम्पर्क प्राप्त कराते हैं। संक्षेप में प्रभु हमें [क] सर्वोत्कृष्ट मानव शरीर देते हैं, [ख] उसमें वेदज्ञान प्राप्त कराते हैं [ग] उत्तम माता-पिता व आचार्य आदि के सम्पर्कवाले शुभ दिन हमें दिखाते हैं । [२] इस सबको प्राप्त कराके कहते हैं कि (मानुषे) = इस मानव जीवन में (दृषद्वत्याम्) = [दृषद्-पत्थर, अश्मा भवतु नस्तनू:] पत्थर के समान दृढ़ शरीर में (आपयायाम्) = [आपृ= प्राप्तौ, या=गतौ] प्रभुप्राप्ति के लिए गति की भावनावाले मन में तथा (सरस्वत्याम्) = [सरस्=प्रवाह] ज्ञान के प्रवाहवाले मस्तिष्क में स्थित हुआ-हुआ (अग्ने) = हे प्रगतिशील जीव! तू (रेवत्) = धनयुक्त होकर (दिदीहि) = दीप्त हो। हमारा कर्त्तव्य यह है कि – [क] हम शरीर को पत्थर जैसा दृढ़ बनाएँ, [ख] मन में प्रभुप्राप्ति की भावना से सब गतिविधियोंवाले हों, [ग] मस्तिष्क द्वारा सरस्वती [=ज्ञानाधिष्ठातृदेवता] का आराधन करें। [घ] उचित धनार्जन करते हुए दीप्त जीवनवाले हों ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभुकृपा से हमें मानव शरीर, वेदज्ञान तथा शुभ दिन प्राप्त होते हैं। इन्हें प्राप्त करके हम इस मानव जीवन में 'दृढ शरीर, प्रभुप्राप्ति के लिए गतिमय, सरस्वती के आराधक, धनयुक्त दीप्त जीवनवाले' बनें ।

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    विषय

    नायक का चुनाव और प्रतिष्ठा।

    भावार्थ

    हे (अग्ने) अग्नि के समान तेजस्विन् ! विद्वान् ! नायक! मैं प्रजाजन (त्वा) तुझको (पृथिव्याः) अतिविस्तृत, (इलायाः) पृथ्वी और वाणी के (वरे) सर्वश्रेष्ठ प्राप्त करने योग्य पद पर, सर्वोच्च आसन पर (अह्नां सुदिनत्वे) दिनों के बीच शुभ दिन में (निदधे) स्थापित करूं और तू (दृषद्वत्यां) प्रस्तरों में युक्त, शिला पर्वतादि वाली, (आपयायां) जलों से व्याप्त, नदी ताल आदि वाली और (सरस्वत्यां) उत्तम तालों वा सागरों से युक्त नाना भूमियों में (रेवत्) ऐश्वर्यवान् होकर (मानुषे) मनुष्यों के बीच में (दिदीहि) प्रकाशित हो। (२) विद्वान् गुरु, सरस्वती वेद वाणी जो ‘दृषद्वती’ अज्ञाननाशक निष्ठ पुरुषों में स्थित और (आपयायां) आप्त पुरुषों से प्राप्त होने योग्य वाणी में मननशील विद्वत्संघ में प्रकाशित हो। राजपक्षमें—राजा, दृषद्वती आपया, शस्त्रास्त्र से युक्त दूर देश गामिनी और वेगवती सेना में मननशील होकर चमके।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    देवश्रवा देववातश्च भारतावृषी॥ अग्निर्देवता पञ्चर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी परस्पर मित्रभावाने विद्या, धर्म, सज्जनता व सुख वाढवावे. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, divine fire and holy light, I place you on the best altar of the earth in the best words of holy speech in the holy light of the days. O brilliant power, treasure home of abundant wealth, shine in the rocky streams of mountains, smooth flowing rivers of the plains and in the minds of reflective people.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The uses of this fire are indicated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O enlightened person! you are purifier like the fire. I place you in the best and right dealings of the earth on the best right days, and in the command of the speech in its usage. It pervades the Pranas (vital energy) and in it there are many rock-lock powers capable to destroy all ignorance. Such in charge thoughtful persons become the masters of the admirable wealth. Please make me enlightened.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should be friendly to one another and extend the knowledge, Dharma (righteousness), civilization and happiness of all.

    Foot Notes

    (इलाया:) वाचः | इलेति वाङ्नाम । ( N.G. 1, 11) = Of the speech. (दुषद्वत्याम्) बहवो दुषदो विद्यन्ते यस्याम् । दुषन्तः अज्ञानविदारकाः । (दुषद्वती) दुषत्-दुणते: षुग्घ्रस्वश्च । (उणादिकोषे 1, 131) इति षुकप्रत्यय: ह्रस्वश्च । दु-विदारणे (स्वा ) - दुषन्तः अज्ञानविदारका पराक्रमा यस्यां सा = Many rock-like powers capable to destroy ignorance. (आप यायाम) प्राणव्यापिकायाम् = Pervading the Pranas (vital airs).

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