ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 34/ मन्त्र 8
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
स॒त्रा॒साहं॒ वरे॑ण्यं सहो॒दां स॑स॒वांसं॒ स्व॑र॒पश्च॑ दे॒वीः। स॒सान॒ यः पृ॑थि॒वीं द्यामु॒तेमामिन्द्रं॑ मद॒न्त्यनु॒ धीर॑णासः॥
स्वर सहित पद पाठस॒त्रा॒ऽसहम् । वरे॑ण्यम् । स॒हः॒ऽदाम् । स॒स॒वांस॑म् । स्वः॑ । अ॒पः । च॒ । दे॒वीः । स॒सान॑ । यः । पृ॒थि॒वीम् । द्याम् । उ॒त । इ॒माम् । इन्द्र॑म् । म॒द॒न्ति॒ । अनु॑ । धीऽर॑णासः ॥
स्वर रहित मन्त्र
सत्रासाहं वरेण्यं सहोदां ससवांसं स्वरपश्च देवीः। ससान यः पृथिवीं द्यामुतेमामिन्द्रं मदन्त्यनु धीरणासः॥
स्वर रहित पद पाठसत्राऽसहम्। वरेण्यम्। सहःऽदाम्। ससवांसम्। स्वः। अपः। च। देवीः। ससान। यः। पृथिवीम्। द्याम्। उत। इमाम्। इन्द्रम्। मदन्ति। अनु। धीऽरणासः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 34; मन्त्र » 8
अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 16; मन्त्र » 3
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अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 16; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
यः सत्रासाहं वरेण्यं सहोदां ससवांसं स्वर्देवीरपश्चेमां पृथिवीमुतेमां द्यां ससान तमिन्द्रं धीरणासो मदन्ति स ताननुमदेदानन्देत् ॥८॥
पदार्थः
(सत्रासाहम्) यः सत्रा सत्यानि सहते स तम् (वरेण्यम्) स्वीकर्तुं योग्यम् (सहोदाम्) बलप्रदम् (ससवांसम्) पापपुण्ययोर्विभक्तारम् (स्वः) सुखम् (अपः) प्राणान् (च) (देवीः) दिव्याः (ससान) विभजेत (यः) (पृथिवीम्) अन्तरिक्षं भूमिं वा (द्याम्) विद्युतम् (उत) (इमाम्) वर्त्तमानाम् (इन्द्रम्) (मदन्ति) आनन्दन्ति (अनु) (धीरणासः) धीः प्रशस्ता प्रज्ञा रणः सङ्ग्रामो येषान्ते ॥८॥
भावार्थः
योऽसत्यत्यागी सत्यग्राही बलवर्धकः प्रजासुखेच्छुर्विद्युत्पृथिव्यादिगुणान् विद्यया विभाजकः स्यात् तमेव परीक्षकं धीमन्तो वीराः प्राप्याऽऽनन्दन्ति तेऽपीदृशादेवानन्दं प्राप्तुमर्हन्ति ॥८॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।
पदार्थ
(यः) जो (सत्रासाहम्) सत्यों के सहनेवाले (वरेण्यम्) स्वीकार करने योग्य (सहोदाम्) बल के देने तथा (ससवांसम्) पाप और पुण्य का विभाग करनेवाले (स्वः) सुख (च) और (देवीः) उत्तम (अपः) प्राणों को (इमाम्) प्रत्यक्ष वर्त्तमान इस (पृथिवीम्) अन्तरिक्ष वा पृथिवी (उत) और इस (द्याम्) बिजुली को (ससान) अलग-अलग करै उस (इन्द्रम्) तेजस्वी पुरुष को (धीरणासः) उत्तम बुद्धि और संग्राम से युक्त लोग (मदन्ति) आनन्दित करते हैं, वह उनके (अनु) पीछे आनन्द को प्राप्त होवें ॥८॥
भावार्थ
जो असत्य का त्याग और सत्य का ग्रहण करने बल को बढ़ाने और प्रजा के सुख की इच्छा करनेवाला पुरुष बिजुली और पृथिवी आदि के गुणों का विद्या से विभागकर्त्ता हो, उसी परीक्षा करनेवाले जन को बुद्धिमान् वीर लोग प्राप्त होके आनन्द करते हैं और वे भी ऐसे ही पुरुष से आनन्द को प्राप्त हो सकते हैं ॥८॥
विषय
'सत्राषाट्' प्रभु
पदार्थ
[१] (धीरणास:) = [धिया रणन्ति] बुद्धिपूर्वक प्रभु का स्तवन करनेवाले लोग (इन्द्रं अनुमदन्ति) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु की अनुकूलता में हर्ष का अनुभव करते हैं। उपासना द्वारा जितना-जितना प्रभु के समीप होते जाते हैं, उतना उतना आनन्द का अनुभव करते हैं । [२] उस प्रभु की अनुकूलता में, जो कि (सत्रासाहम्) = सदा शत्रुओं का पराभव करनेवाले हैं-काम-क्रोध आदि महान् शत्रुओं को ये प्रभु ही कुचलते हैं। (वरेण्यम्) = ये प्रभु वरणीय हैं व श्रेष्ठ हैं। (सहोदाम्) = उपासकों के लिए (सहस्) = [बल] को देनेवाले हैं। (स्वः) = प्रकाश को (च) = और (देवी: अप:) = सब रोगों को जीतने की कामना करनेवाले [दिव् - विजिगीषा] रेत:कणों को (ससवांसम्) = [षण् संभक्तौ] सम्भक्त = करनेवाले [देनेवाले] हैं। [३] उस परमात्मा की अनुकूलता में ये हर्ष का अनुभव करते हैं (यः) = जो कि (पृथिवीं ससान) = अन्तरिक्षलोक को हमारे लिए देते हैं, (उत) = और (द्याम्) = द्युलोक को देते हैं तथा (इमाम्) = इस पृथिवी को हमारे लिए देते हैं। बाहर की त्रिलोकी को तो वे प्रभु देते ही हैं, शरीरस्थ त्रिलोकी को भी वे प्रभु प्राप्त कराते हैं। 'दृढ़ शरीर' ही पृथ्वीलोक है, निर्मल हृदय ही अन्तरिक्षलोक है तथा ज्ञानदीप्त मस्तिष्क ही द्युलोक है। इन सबके दाता प्रभु का स्तवन करते हुए स्तोता लोग आनन्द का अनुभव करते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- ज्ञानी-भक्त प्रभु का स्तवन करते हुए आनन्दमग्न होते हैं। प्रभु इनके सब शत्रुओं का पराभव करते हैं और इन्हें सबल बनाते हैं।
विषय
सैन्यादि का श्रेणी विभाग, चिकित्सा, छाया वाले वृक्षों और जल, सैन्यादि का प्रबन्ध।
भावार्थ
(यः) जो (स्वः) सुख और दुष्टों का सन्तापकारी, प्रतापी और (देवीः अपः) दिव्य प्रजागणों को (ससान) धारण करता और अन्यों को देता है और (यः) जो (पृथिवीम् ससान) भूमि को अपने शासन से धारण करता और अन्यों में विभक्त करता है, (उत इमां द्याम्) और इस सबकी रक्षा करने वाली राजसभा या भूमि को (ससान) धारण करता है उस (सत्रसहं) सत्य के बल पर और सत्वोद्वेग से शत्रुओं का पराजित करने वाले (वरेण्यम्) प्रजाओं द्वारा वरण करने और श्रेष्ठ मार्ग में प्रजा को ले चलने हारे (सहोदाम्) दुर्बलों को बल देने वाले (स्वः अपः देवीः च) तेज, विजयेच्छुक असक्त, कुशल, सेना और प्रजाओं को धारण करने वाले (इन्द्रम्) ऐश्वर्यवान् शत्रुहन्ता राजा को (अनु) प्राप्त करे (धीरणासः) बुद्धिकौशल, कर्मकौशल से रक्षा करने वाले वीर और ध्यान स्तुति में रमण करने वाले बुद्धिमान् पुरुष (मदन्ति) हर्ष का अनुभव करते हैं। (२) परमेश्वर पक्ष में स्पष्ट है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, २, ११ त्रिष्टुप्॥ ४, ५, ७ १० निचृत्त्रिष्टुप्। ९ विराट् त्रिष्टुप्। ३, ६, ८ भुरिक् पंक्तिः॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
असत्य-त्यागी, सत्याग्रही, बलवर्धक, प्रजेच्या सुखाची इच्छा करणारा, विद्युत व पृथ्वी इत्यादींच्या गुणांचा विद्येने विभाजन करणारा अशा परीक्षकाला बुद्धिमान वीर लोक मिळतात व ते आनंद प्राप्त करतात. तसेच तेही अशाच पुरुषाकडून आनंद प्राप्त करू शकतात. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
People of intelligence, patience and intelligence may please and share the pleasure with Indra, lord of the world, who upholds truth and challenges untruth, who is worthy of choice, giver of strength and courage, who distinguishes between good and evil, and gives happiness, pranic energy and divine bliss, and who creates, gives and shares the gifts and beauty of this earth and heaven with us.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of State officials are re-emphasized.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
Those intelligent and brave persons please that Indra (wealthy King or President) who likes truthful persons and does not tolerate falsehood. He is ever victorious, excellent, bestower of strength and distinguishes between truth and untruth. He knows very well the nature of the truth, happiness, divine Pranas (vital energy), this earth and this firmament. He can examine the energy and its false resources. Such as (Indra) should also please them to their satisfaction.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The wise and the brave persons are gladly to welcome only such a ruler or president who renounces untruth, and accepts truth. He augments strength, and is fond of welfare of the people and distinguisher between merit and sin; and possess deep knowledge the sources of energy, earth and other objects through his scientific knowledge. Only such a highly learned discrete person can impart bliss.
Foot Notes
(सन्नासाहम् ) य: सत्ता सत्यानि सहते स तम् । सनेति सत्यनाम (NG 3,10 ) (ससवांसम् ) पण संभक्तौ ( स्वा० ) (ससवांसम् ) पापपुण्ययोविभक्तारम् । = Who- ever likes truth and never tolerates untruth of falsehood. (अप:) प्राणान् आपो वै प्राणा: = Jaiminiyopanishad Vital airs or energy. (Brahman 3,10 ) ( पृथिवीम् ) अन्तरिक्ष भूमिवा पृथिवीत्यन्तरिक्षनाम् । (NG 1,3) = The earth or the firmament. (धोरणास:) धी: प्रशस्ता प्रज्ञा रणां सङ्ग्रामो येषान्ते। = Endowed with good intellect and the power in battles. ( द्याम् ) विद्युतम् । = Electricity.
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