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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 4 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 4/ मन्त्र 5
    ऋषिः - गाथिनो विश्वामित्रः देवता - आप्रियः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    स॒प्त हो॒त्राणि॒ मन॑सा वृणा॒ना इन्व॑न्तो॒ विश्वं॒ प्रति॑ यन्नृ॒तेन॑। नृ॒पेश॑सो वि॒दथे॑षु॒ प्र जा॒ता अ॒भी॒३॒॑मं य॒ज्ञं वि च॑रन्त पू॒र्वीः॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒प्त । हो॒त्राणि॑ । मन॑सा । वृ॒णा॒नाः । इन्व॑न्तः । विश्व॑म् । प्रति॑ । य॒न् । ऋ॒तेन॑ । नृ॒ऽपेश॑सः । वि॒दथे॑षु । प्र । जा॒ताः । अ॒भि । इ॒मम् । य॒ज्ञम् । वि । च॒र॒न्त॒ । पू॒र्वीः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सप्त होत्राणि मनसा वृणाना इन्वन्तो विश्वं प्रति यन्नृतेन। नृपेशसो विदथेषु प्र जाता अभी३मं यज्ञं वि चरन्त पूर्वीः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सप्त। होत्राणि। मनसा। वृणानाः। इन्वन्तः। विश्वम्। प्रति। यन्। ऋतेन। नृऽपेशसः। विदथेषु। प्र। जाताः। अभि। इमम्। यज्ञम्। वि। चरन्त। पूर्वीः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 4; मन्त्र » 5
    अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 22; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    ये विदथेषु प्रजाता नृपेशसो मनसा सप्त होत्राणि वृणाना विश्वमिन्वता ऋतेनेमं यज्ञमभियेन विश्वं प्रतियन् पूर्वीराहुतयो विचरन्त स यज्ञः सर्वैरनुष्ठेयः ॥५॥

    पदार्थः

    (सप्त) सप्तविधानि (होत्राणि) हवनसम्बन्धीनि कर्माणि (मनसा) विज्ञानेन (वृणानाः) स्वीकुर्वाणाः (इन्वन्तः) व्याप्नुवन्तः (विश्वम्) सर्वं जगत् (प्रति) (यन्) प्राप्नुवन्ति (ऋतेन) जलेन। ऋतमित्युदकनाम०। निघं०१। १२। (नृपेशसः) नृणां पेशो रूपमिव रूपं येषान्ते (विदथेषु) यज्ञेषु (प्र) (जाताः) प्रादुर्भूताः (अभि) सर्वतः (इमम्) ) (यज्ञम्) (वि) (चरन्त) विचरन्तु। अत्र व्यत्ययेनात्मनेपदम्। (पूर्वीः) पूर्वं सम्पादिताः ॥५॥

    भावार्थः

    यदि मनुष्याः सुगन्ध्यादियुक्तानां द्रव्याणां वह्नौ प्रक्षेपेण वायुवृष्टिजलौषध्यन्नानि संशोधयेयुस्तर्हि सर्वमारोग्यमाप्नुयुः ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    जो (विदथेषु) यज्ञों में (प्रजाताः) उत्पन्न हुए (नृपेशसः) मनुष्यों के रूप के समान जिनका रूप वे पदार्थ (मनसा) विज्ञान से (सप्तहोत्राणि) सात प्रकार के हवन सम्बन्धी कामों को (वृणानाः) स्वीकार करते और (विश्वम्) समस्त जगत् को (इन्वन्तः) व्याप्त होते हुए (ऋतेन) जल के साथ (इमम्) इस (यज्ञम्) यज्ञ को (अभि) सब ओर से जिससे विश्व को (प्रतियन्) प्रतीति से प्राप्त होते हैं तथा (पूर्वीः) पूर्व सिद्ध हुई आहुतियाँ (विचरन्त) विशेषता से प्राप्त होतीं वह यज्ञ सब विद्वानों को करने योग्य है ॥५॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य सुगन्ध्यादियुक्त पदार्थों के अग्नि में छोड़ने से वायु, वृष्टि, जल, ओषधि और अन्नों को अच्छे प्रकार शोधें, तो सब आरोग्यपन को प्राप्त हों ॥५॥

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    विषय

    प्रभुप्राप्ति के मार्ग पर

    पदार्थ

    [१] 'कर्णाविभौ नासिके चक्षणी मुखम्' इस मन्त्रभाग में जीवनयज्ञ के सात होताओं का उल्लेख है। ये ही सात ऋषि कहलाते हैं 'सप्त ऋषयः प्रतिहिताः शरीरे'। इन सातों होताओं के सप्त-सात होत्राणि होतृकर्मों का (मनसा वृणाना:) = मन से वरण करते हुए (विश्वं इन्वन्तः) = और शरीर के सब अंगों को प्रीणित करते हुए (ऋतेन प्रतियन्) = ऋत से प्रत्येक कार्य में प्रवृत्त होते हैं । प्रत्येक कार्य को ठीक समय व ठीक स्थान पर करते हैं। [२] इस प्रकार सब कार्यों को ऋतपूर्वक करते हुए (नृपेशसः) = अपने को नर [=प्रगतिशील] बनानेवाले, (विदथेषु प्रजाता:) = ज्ञान-यज्ञों में विकास को प्राप्त हुए हुए पूर्वी-अपना पालन व पूरण करनेवाले ये लोग इमं यज्ञं अभि- इस पूज्य प्रभु की ओर ( यज्ञेन यज्ञं अयजन्त देवा:) (विचरन्त) = विचरण करते हैं। प्रभु की ओर जाने का मार्ग यही है कि ऋत का पालन करते हुए हम अपने को प्रगतिशील बनाएँ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हमारे कान, नासिका, आँखें व मुख जीवनयज्ञ के होता बनें। ऋतपूर्वक चलते हुए हम नर बनकर प्रभुप्राप्ति के मार्ग पर बढ़ें।

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    विषय

    वीरों का कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    (मनसा) ज्ञानपूर्वक (सप्त होत्राणि) सातों प्रकार के ग्रहण करने योग्य और दान देने योग्य पदार्थों को (यज्ञ के) सप्त होत्र आदि कर्मों के समान इच्छापूर्वक (वृणानाः) स्वीकार करते हुए (ऋतेन) सत्यज्ञान, अन्न तथा ऐश्वर्य के द्वारा (विश्वं) समस्त राष्ट्र को (इन्वन्तः) व्यापते हुए (प्रति यन्) अपने विपक्ष का मुकाबला करें । (विदथेषु) यज्ञों और संग्रामों में (प्रजाताः) प्रसिद्ध, कीर्त्तिमान् (नृपेशसः) वीर पुरुषों से बने स्वरूप को धरने वाली (पूर्वीः) पूर्व से ही तैयार, सुशिक्षित, पहले ही विद्यमान सेनाएं प्राप्त कर । (इमं यज्ञं) इस परस्पर के मैत्रीभाव से व्यवस्थित राष्ट्र को (विचरन्त) प्राप्त हों, उसका उपयोग करें । राष्ट्र के ‘सप्तहोत्र’ सात प्रकृतियां हैं । (२) अध्याममें—देहगत सात प्राण या सर्पणशील प्राण ‘सप्त होत्र’ हैं । उनको मानस बल से वश करते हुए सत्य के बल से ‘विश्व’ अर्थात् आत्मतत्व को प्राप्त होते हैं । ‘नृ’ अर्थात् आत्मा को रूपवान् करने वाली (पूर्वीः) पूर्व की वासनाएं ही (विदथेषु प्रजाताः) प्राप्त होने योग्य देहों में प्रकट होकर (इमं यज्ञ) इस आत्मा को (वि चरन्त) विविध भोगों में प्राप्त होती हैं। इति द्वाविंशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्र ऋषिः॥ आप्रियो देवता॥ छन्दः– १, ४, ७ स्वराट् पङ्क्तिः। २, ३, ५ त्रिष्टुप्। ६, ८, १०, ११ निचृत् त्रिष्टुप्। ६ विराट् त्रिष्टुप्॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जी माणसे सुगंध इत्यादी पदार्थ अग्नीमध्ये टाकतात व वायू, जल, वृष्टी, औषधी आणि अन्नाचे चांगल्या प्रकारे संशोधन करतात तेव्हा सर्वांना आरोग्य प्राप्त होते. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Seven rituals of yajna consciously and judiciously selected spread out, go round and round and fill up the world with the light of truth and cool of vapours. Born of nature in yajnas with human vitality, ancient as ever, they emanate from the vedi and roam around at their own freedom giving fresh life to yajna.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    More light about the duties of learned persons thrown.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The Yajna should be performed in which standard oblations are put. Such performers are charming like beautiful leaders, in which seven kinds of actions relating to the Yajna are accepted with full knowledge that water is placed on all sides, as a symbol of peace and for extinguishing fire when necessary.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    If man put in the fire oblations full of fragrant and other substances and thereby purify air, rain, water and herbs, then they all can attain good health.

    Foot Notes

    (विदथेषु ) यज्ञेषु = In the Yajnas. (ऋतेन) जलेन । ऋतमित्युदकनाम (NG. 1/12) = With water. (मनसा ) विज्ञानेन। = With knowledge.

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