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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 4 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 4/ मन्त्र 7
    ऋषिः - गाथिनो विश्वामित्रः देवता - आप्रियः छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    दैव्या॒ होता॑रा प्रथ॒मा न्यृ॑ञ्जे स॒प्त पृ॒क्षासः॑ स्व॒धया॑ मदन्ति। ऋ॒तं शंस॑न्त ऋ॒तमित्त आ॑हु॒रनु॑ व्र॒तं व्र॑त॒पा दीध्या॑नाः॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दैव्या॑ । होता॑रा । प्र॒थ॒मा । नि । ऋ॒ञ्जे॒ । स॒प्त । पृ॒क्षासः॑ । स्व॒धया॑ । म॒द॒न्ति॒ । ऋ॒तम् । शंस॑न्तः । ऋ॒तम् । इत् । ते । आ॒हुः॒ । अनु॑ । व्र॒तम् । व्र॒त॒ऽपाः । दीध्या॑नाः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दैव्या होतारा प्रथमा न्यृञ्जे सप्त पृक्षासः स्वधया मदन्ति। ऋतं शंसन्त ऋतमित्त आहुरनु व्रतं व्रतपा दीध्यानाः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दैव्या। होतारा। प्रथमा। नि। ऋञ्जे। सप्त। पृक्षासः। स्वधया। मदन्ति। ऋतम्। शंसन्तः। ऋतम्। इत्। ते। आहुः। अनु। व्रतम्। व्रतऽपाः। दीध्यानाः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 4; मन्त्र » 7
    अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 23; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    यौ प्रथमा दैव्या होतारा सप्तविधानि हवींष्याधत्तो य ऋतं पृक्षास ऋतमिच्छंसन्तो दीध्याना व्रतपा अनुव्रतमाहुस्ते स्वधया मदन्ति तानहं न्यृञ्जे ॥७॥

    पदार्थः

    (दैव्या) दिव्यगुणावेव (होतारा) दातारौ (प्रथमा) विस्तारकौ (नि) (ऋञ्जे) भर्जयामि (सप्त) (पृक्षासः) संपर्काः (स्वधया) जलेनान्नेन वा (मन्दति) हृष्यन्ति (ऋतम्) जलम् (शंसन्तः) स्तुवन्तः (ऋतम्) सत्यम् (इत्) एव (ते) (आहुः) कथयन्तु (अनु) (व्रतम्) शीलम् (व्रतपाः) सुशीलरक्षका (दीध्यानाः) देदीप्यमानाः ॥७॥

    भावार्थः

    ये यज्ञाहुतिभिः शुद्धानि पवनजलान्नादीनि सेवन्ते ते सुशीलाः सन्तः प्रशंसका भूत्वाऽऽनन्दन्ति ॥७॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    जो (प्रथमा) विस्तार करनेवाले (दैव्या) दिव्य गुणी (होतारा) अनेक पदार्थों के ग्रहणकर्ता (सप्त) सात प्रकार के होमने योग्य पदार्थों को अच्छे प्रकार धारण करते हैं वा जो (ऋतम्) जल का (पृक्षासः) संबन्ध करनेवाले (ऋतम्) सत्य की (इत्) ही (शंसन्तः) स्तुति करते हुए (दीध्यानाः) देदीप्यमान (व्रतपाः) उत्तम शील की रक्षा करनेवाले (अनु, व्रतम्) अनुकूल शील को (आहुः) कहें (ते) वे (स्वधया) अन्न और जल से (मदन्ति) हर्षित होते हैं, इन सबको मैं (नि, ऋञ्जे) न नष्ट करूँ ॥७॥

    भावार्थ

    जो यज्ञ की आहुतियों से शुद्ध पवन, जल और अन्नादिकों का सेवन करते हैं, वे सुशील होते हुए प्रशंसावाले होकर आनन्द को प्राप्त होते हैं ॥७॥

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    विषय

    दो मुख्य होता अथवा ऋत व व्रत का पालन

    पदार्थ

    [१] (प्रथमा होतारा) = इस जीवनयज्ञ के मुख्य होता प्राण और अपान हैं। ये दैव्या हमें देव-प्रभु की ओर ले चलते हैं। इनको मैं निऋञ्जे-निश्चय से प्रसाधित करता हूँ। प्राणायाम द्वारा इनकी शक्ति को बढ़ाना ही इनका प्रसाधन है। उस समय सप्त- 'कर्णाविमौ नासिके चक्षणी मुखम्' दो कान, दो नासिकाछिद्र, दो आँखें व मुख ये सात होता [येन यज्ञस्तायते सप्त होता] अथवा ये सात ऋषि [सप्त ऋषय: प्रतिहिताः शरीरे] (पृक्षासः) = सदा ज्ञानों व उत्तम कर्मों के साथ सम्पर्कवाले होते हैं और (स्वधया) = आत्मधारण शक्ति के साथ मदन्ति आनन्द व हर्ष का अनुभव करते हैं। प्राणसाधना से निर्दोष बनी हुई इन्द्रियाँ ज्ञान व उत्तम कर्मों में ही प्रवृत्त होती हैं और मनुष्य को 'स्व-धा' द्वारा आनन्दित करती हैं। 'सुख' है ही 'सुख' - इन्द्रियों का उत्तम होना [खं इन्द्रिय] । [२] इस प्रकार के लोग (ऋतं शंसन्तः) = सदा ऋत का शंसन करते हैं। (ते) = वे (इत्) = निश्चय से (ऋतं आहुः) = अपने जीवनों में ऋतपालन करते हैं, जीवन में ऋत करते हैं, अर्थात् इनकी कोई क्रिया अनृतवाली नहीं होती। ये व्यक्ति (अनुव्रतम्) = व्रतों के अनुसार अपना जीवन चलाते हैं । (व्रतपा:) = व्रतों का रक्षण करते हैं और अतएव (दीध्वाना:) = दीप्यमान होते हैं- दीप्त जीवनवाले होते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्राणसाधना में प्रवृत्त हों। हमारी इन्द्रियाँ आत्मधारण-शक्तिवाली हों। ऋतपालन करते हुए, व्रतों के रक्षण द्वारा हम दीप्त- जीवनवाले हों ।

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    विषय

    वीरों का कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    (दैव्या) देव अर्थात् विद्वानों के हितकारी, दिव्य गुणों को धारण करने वाले, (होतारा) एक दूसरे को सुख देने वाले स्त्री पुरुष (प्रथमा) सबसे मुख्य जानकर उनदोनों को (निऋञ्जे) अच्छी प्रकार सुसज्जित, कार्य दक्ष करता है क्योंकि उनके आश्रय पर ही (सप्त) देश से देशान्तर में भ्रमण करने वाले (पृक्षासः) प्रेम-सम्पर्क के योग्य या मेघों के समान जलवत् ज्ञान रस की वर्षा करने वाले विद्वान् जन (स्वधया) अपनी ज्ञान, धारणा शक्ति या आत्मा से या अन्न से (सदन्ति) स्वयं प्रसन्न होते और औरों को तृप्त करते हैं। वे स्वयं (व्रतपाः) व्रतों नियमों का पालन करने हारे (व्रतम् अनु दीध्यानाः) सदा अपने व्रत का ही चिन्तन करते हुए अपने व्रतानुसार दीप्तियुक्त या सुशोभित होते हुए (ऋतं शंसन्तः) सत्य वेदज्ञान का उपदेश करते हुए (ते ) वे (ऋतम् इत्) सदा सत्य धर्म का पालन और सत्यस्वरूप परमेश्वर का ही (आहुः) उपदेश करते हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्र ऋषिः॥ आप्रियो देवता॥ छन्दः– १, ४, ७ स्वराट् पङ्क्तिः। २, ३, ५ त्रिष्टुप्। ६, ८, १०, ११ निचृत् त्रिष्टुप्। ६ विराट् त्रिष्टुप्॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे यज्ञाच्या आहुतींनी शुद्ध वायू, जल, अन्न इत्यादीचे सेवन करतात ते सुशील व प्रशंसायुक्त बनून आनंद भोगतात. ॥ ७ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    I celebrate the first and foremost divine highpriests of nature in the universe, the sun and the fire. The seven ministering priests of yajna, too, together, with offers of ghrta and fragrant materials, feed and propitiate the same two. Praising and celebrating the universal Law of Nature and the waters of life, they proclaim the Law and the joy of life and, observing the rules of the Law and shining in accordance with the Law and the Truth, they exult with heavenly joy.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties and aims of enlightened persons.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    We disseminate knowledge in the fire. I propitiate the two chief divine priests and put seven kinds of oblations. I never harm or insult those noble persons in any way who hold truth, and always admire it. Such people observe vows, are brilliant and always accomplish their vows. Such people boost good character and conduct. They are satisfied with pure food and water.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those who use the air, water, food and other things purified by the oblations put in the fire of the Yajnas become men of good character and conduct and they admire good virtues of others and always enjoy happiness.

    Foot Notes

    (निर्ऋजे ) न भर्जयामि = Never harm or break into pieces or insult. (स्वधया) जलेनान्नेन वा। स्वधा इति उदकनाम (NG 1, 12 ) । स्वधा इत्यत्र नाम (NG. 2, 7) = With water or/and food. Seven kinds of oblations are mentioned according to Rishi Dayananda Sarasvati in his commentary here. But in the Sanskara Vidhi, we find these seven as follows:- (1) Fragrant substances like camphor इलायची Cardamom, Kasturi (Musk), Sandal, Agar, Tagar, Permury. जायफल जावित्री (2) Nourishing substances like ghee fruits, wheat, rice, milk etc. (3) Sweet articles like sugar, dried grapes, etc. (4) Destroyers of diseases like Soma, Giloy etc. (5) चारु सामग्री (6) Fuel-wood समिधा (7) स्थाली पाक or a particular kind of oblation made of sweet rice etc. (ऋतम्) सत्यम्। = Truth.

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