ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 45/ मन्त्र 4
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - स्वराडनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
आ न॒स्तुजं॑ र॒यिं भ॒रांशं॒ न प्र॑तिजान॒ते। वृ॒क्षं प॒क्वं फल॑म॒ङ्कीव॑ धूनु॒हीन्द्र॑ सं॒पार॑णं॒ वसु॑॥
स्वर सहित पद पाठआ । नः॒ । तुज॑म् । र॒यिम् । भ॒र॒ । अंश॑म् । न । प्र॒ति॒ऽजा॒न॒ते । वृ॒क्षम् । प॒क्वम् । फल॑म् । अ॒ङ्कीऽइ॑व । धू॒नु॒हि॒ । इन्द्र॑ । स॒म्ऽपार॑णम् । वसु॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ नस्तुजं रयिं भरांशं न प्रतिजानते। वृक्षं पक्वं फलमङ्कीव धूनुहीन्द्र संपारणं वसु॥
स्वर रहित पद पाठआ। नः। तुजम्। रयिम्। भर। अंशम्। न। प्रतिऽजानते। वृक्षम्। पक्वम्। फलम्। अङ्कीऽइव। धूनुहि। इन्द्र। सम्ऽपारणम्। वसु॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 45; मन्त्र » 4
अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 9; मन्त्र » 4
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अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 9; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे इन्द्र ! त्वमंशं न नोऽस्मभ्यं प्रतिजानते च तुजं रयिमाभर। वृक्षं पक्वं फलमङ्कीव सम्पारणं वसु धूनुहि ॥४॥
पदार्थः
(आ) (नः) अस्मभ्यम् (तुजम्) आदातव्यम् (रयिम्) धनम् (भर) धेहि (अंशम्) भागम् (न) इव (प्रतिजानते) प्रतिज्ञया व्यवहारस्य साधकाय (वृक्षम्) (पक्वम्) (फलम्) (अङ्कीव) यथाङ्कुशी तथा (धूनुहि) कम्पय (इन्द्र) धनप्रद (सम्पारणम्) सम्यग् दुःखस्य पारं गच्छति येन तत् (वसु) धनम् ॥४॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। त एव धार्मिका ये परमसुखाय श्रियं धृत्वा परदुःखभञ्जनाः स्युः ॥४॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।
पदार्थ
हे (इन्द्र) धन के दाता ! आप (अंशम्) भाग के (न) तुल्य (नः) हमलोगों के लिये (प्रतिजानते) प्रतिज्ञा से व्यवहार के सिद्ध करनेवाले के लिये और (तुजम्) ग्रहण करने के योग्य (रयिम्) धन को (आ) सब ओर से (भर) दीजिये (वृक्षम्) वृक्ष को और (पक्वम्) पाकयुक्त (फलम्) फल को (अङ्कीव) अंकुश धारण किये हुए के सदृश (सम्पारणम्) उत्तम प्रकार दुःख के पार जाता है जिससे ऐसे (वसु) धन को (धूनुहि) कम्पाइये अर्थात् भेजिये ॥४॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। वे ही धार्मिक पुरुष हैं, जो अन्य लोगों के सुख के लिये लक्ष्मी धारण करके औरों के दुःख नाश करनेवाले होवें ॥४॥
विषय
सम्पारण वसु
पदार्थ
[१] हे प्रभो! आप (नः) = हमारे लिए (तुजं रयिम्) = शत्रुओं के बाधक धन को (आभर) = सर्वथा प्राप्त कराइये । हमें वह धन दीजिए, जो कि हमारी सब आवश्यकताओं का पूरण करता हुआ हमें वासनाओं व विषयों का शिकार नहीं होने देता। आप इस प्रकार हमें धन दीजिए (न) = जैसे कि (प्रतिजानते) = ज्ञानी-समझदार पुत्र के लिए [not minor] पिता (अंशम्) = धनांश को प्राप्त कराता है। हम भी आप से धनांश प्राप्त करके समझदार पुत्र की तरह व्यवहार करनेवाले हों। [२] (इव) = जैसे (अङ्की) = हुक [hook] वाले दण्डवाला पुरुष (पक्कं फलम्) = पके हुए फल को लक्ष्य करके (वृक्षम्) = वृक्ष को कम्पित करता है और उन पके फलों को वृक्ष से नीचे प्राप्त कराता है, इसी प्रकार हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यवाले प्रभु आप हमारे लिये उस (वसु) = धन को (धूनुहि) = कम्पित करिए प्राप्त कराइये जो कि (सम्पारणम्) = हमारी सब आवश्यकताओं को पूर्ण करनेवाला है ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभुकृपा से हमें वह धन प्राप्त हो, जो कि हमारी सब आवश्यकताओं को पूर्ण करनेवाला हो ।
विषय
पिता का पुत्रवत् राजा का प्रजा को सम्पत्ति देना।
भावार्थ
जिस प्रकार पिता या राजा (प्रति जानते) व्यवहार जानने वाले वालिग पुत्र को उसका (अंशं न) अंश, जायदाद का भाग प्रदान करता है उसी प्रकार हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! राजन् ! तू (नः) हमें और हममें से (प्रति जानते) तेरे कार्य करने की प्रतिज्ञा करने वाले को ( तुजं रयिं आ भर) पालक ऐश्वर्य दान कर। (अङ्की इव) टेढ़ा अंकुशाकार बांस लिये हुए मनुष्य जिस प्रकार (वृक्ष) वृक्ष को और (फलं पक्वं) पके फल को (धुनोति) कंपा २ कर झाड़ लेता है उसी प्रकार हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! हे शत्रुहन्तः ! तू भी (वृक्ष) व्रश्चन करने योग्य, काट गिराने योग्य शत्रु को (धुनुहि) अपने बड़े भारी सैन्य-बल से कंपा डाल और (पक्वं फलम् धुनुहि) परिपक्व फल, अतिपुष्ट, परिणाम, धनैश्वर्य ले ले, और उसे भयभीत व परास्त करके तू (सम्पारणं) प्रजा को उत्तम रीति से पालन करने वाले (वसु) ऐश्वर्य को (धुनुहि) ले ले।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः— १, २ निचृद् बृहती। ३, ५ बृहती। ४ स्वराडनुष्टुप्॥ पञ्चर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे अन्य लोकांच्या सुखासाठी लक्ष्मीला धारण करतात व इतरांच्या दुःखाचा नाश करतात तेच धार्मिक पुरुष असतात. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Bring us wealth of the world, brilliant and indestructible, as our share, for the devotees in a bond of covenant. As a gardener with his hook shakes a tree laden with ripe fruit, so shake for us the auspicious tree of life and bring down the fruits of wealth and light from the heights of heaven to help us cross the seas of the material world.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject of qualities of enlightened is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Indra (giver of wealth) ! grant us truthful persons who fulfil their acceptable riches, like a father bestows his portion on a son. As a hook brings down the ripe fruit from a tree, likewise you bestow upon us wealth that takes us across all miseries.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
There is a simile in the mantra. Only those are to be regarded as righteous persons who uphold wealth for the happiness and welfare of others and who alleviate others' sufferings.
Foot Notes
(तुजम्) आदातव्यम्। = Worth taking, acceptable. (अङ्कीव ) यथाङकुशी तथा । = Hook, crook. (सम्पारणम्) सम्यग् दुःखस्य पारं गच्छति येन तत् । = Which takes across all misery.
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