ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 45/ मन्त्र 5
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - बृहती
स्वरः - मध्यमः
स्व॒युरि॑न्द्र स्व॒राळ॑सि॒ स्मद्दि॑ष्टिः॒ स्वय॑शस्तरः। स वा॑वृधा॒न ओज॑सा पुरुष्टुत॒ भवा॑ नः सु॒श्रव॑स्तमः॥
स्वर सहित पद पाठस्व॒ऽयुः । इ॒न्द्र॒ । स्व॒ऽराट् । अ॒सि॒ । स्मत्ऽदि॑ष्टिः । स्वय॑शःऽतरः । सः । व॒वृ॒धा॒नः । ओज॑सा । पु॒रु॒ऽस्तु॒त॒ । भव॑ । नः॒ । सु॒श्रवः॑ऽतमः ॥
स्वर रहित मन्त्र
स्वयुरिन्द्र स्वराळसि स्मद्दिष्टिः स्वयशस्तरः। स वावृधान ओजसा पुरुष्टुत भवा नः सुश्रवस्तमः॥
स्वर रहित पद पाठस्वऽयुः। इन्द्र। स्वऽराट्। असि। स्मत्ऽदिष्टिः। स्वयशःऽतरः। सः। ववृधानः। ओजसा। पुरुऽस्तुत। भव। नः। सुश्रवःऽतमः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 45; मन्त्र » 5
अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 9; मन्त्र » 5
Acknowledgment
अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 9; मन्त्र » 5
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे पुरुष्टुतेन्द्र ! यस्त्वं स्वयुः स्वराट् स्मद्दिष्टिः स्वयशस्तरोऽसि स त्वमोजसा वावृधानः सुश्रवस्तमो नोऽस्मभ्यं भव ॥५॥
पदार्थः
(स्वयुः) यः स्वं धनं याति सः (इन्द्र) परमैश्वर्यवन् (स्वराट्) यः स्वेनैव राजते (असि) (स्मद्दिष्टिः) कल्याणोपदेष्टा (स्वयशस्तरः) स्वकीयं यशो धनं प्रशंसनं वा यस्य सोऽतिशयितः (सः) (वावृधानः) वर्द्धमानः (ओजसा) पराक्रमेण (पुरुष्टुत) बहुभिः प्रशंसित (भव)। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (नः) अस्मभ्यम् (सुश्रवस्तमः) सुष्ठु धनः श्रवणयुक्तः सोऽतिशयितः ॥५॥
भावार्थः
स एव सम्राट् भवितुं योग्यो जायते योऽतिशयेन प्रशंसितगुणकर्मस्वभावो भवति स एव सम्राट् सर्वेषां वर्द्धको भवतीति ॥५॥ अत्र सूर्य्यविद्वद्राजगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति पञ्चचत्वारिंशत्तमं सूक्तं नवमो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।
पदार्थ
हे (पुरुष्टुत) बहुतों से प्रशंसित (इन्द्र) अत्यन्त ऐश्वर्यवाले ! जो आप (स्वयुः) धन को प्राप्त (स्वराट्) स्वतन्त्र राज्यकर्त्ता (स्मद्दिष्टिः) कल्याण कर्म का उपदेश देनेवाले और (स्वयशस्तरः) अपने यश धन और प्रशंसा से गम्भीर (असि) हैं (सः) वह (ओजसा) पराक्रम से (वावृधानः) वृद्धि को प्राप्त (सुश्रवस्तमः) श्रेष्ठ धन से युक्त बातचीत के अत्यन्त सुननेवाले (नः) हमलोगों के लिये (भव) होइये ॥५॥
भावार्थ
वही चक्रवर्त्ती राजा होने के योग्य होता है कि जो अत्यन्त प्रशंसायुक्त गुण-कर्म और स्वभाववाला है और वही राजा सबका वृद्धिकारक होता है ॥५॥ इस सूक्त में सूर्य विद्वान् और राजा के गुण वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ संगति जाननी चाहिये ॥ यह पैंतालीसवाँ सूक्त और नववाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
स्वराट्-स्मद्दिष्टिः
पदार्थ
[१] गतमन्त्र के अनुसार 'सम्पारण वसु' को प्राप्त करनेवाले इन्द्र हे जितेन्द्रिय पुरुष ! तू (स्वयुः) = [स्व=धन] धन को अपने साथ जोड़नेवाला धनवान् बनता है। इस प्रकार तू (स्व-राट् असि) = आत्मदीप्तिवाला होता है। (स्मद्दिष्टि:) = [स्मत् =सुमत्] आत्मदीप्ति के कारण सदा भद्र वाक्योंवाला होता है सदा शुभ शब्दों का ही उच्चारण करता है। (स्वयशस्तरः) = अपने उत्तम कर्मों के कारण अत्यन्त यशस्वी होता है। धन के साथ आत्मप्रवणता [स्वराट्] व भद्र शब्दों का उच्चारण इसे बड़ा यशस्वी बनाता है। सामान्यतः धन के साथ विषयासक्ति व अभिमान का सम्बन्ध है। इसके जीवन में विषयासक्ति का स्थान आत्मदीप्ति लेती है और अभिमान के स्थान में यह भद्रता व विनीततावाला होता है। [२] (सः) = वह तू (ओजसा) = ओजस्विता से (वावृधान:) = अत्यन्त बढ़ता हुआ हे (पुरुष्टुत) = बहुतों से स्तुत होनेवाला ! (नः) = हमारे लिए (सुश्रवस्तमः) = अत्यन्त उत्तम ज्ञानवाला (भव) = हो- हमें सदा उत्तम ज्ञान को देनेवाला बन ।
भावार्थ
भावार्थ – धनवान् होकर हम आत्मदीप्तिवाले व भद्रवाक्य बोलनेवाले बनें। इस प्रकार यशस्वी जीवनवाले हों। बहुतों से प्रशंसित होते हुए हम ओजस्वी व उत्तम ज्ञानी बनें। यह सूक्त मुख्यरूप से विषयों में न फँसने का संकेत करता है। अगले सूक्त में भी यही विषय अन्य शब्दों में वर्णित हो रहा है -
विषय
स्वराद् शासक सर्वोच्च, बहुश्रुत, कीत्तिमान् हो। सूक्त की अध्यात्म योजना।
भावार्थ
हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! हे शत्रुहन्तः ! तू (स्वयुः) धन की कामना करने वाला, उसका स्वामी और (स्वराट् असि) ‘स्व’ अर्थात् अपने ही ऐश्वर्य और कर्म सामर्थ्य से प्रकाशित होने वाला है। कल्याण-मार्ग का उपदेश करने वाला और (स्वयशस्तरः) अपने बहुत अधिक यश, कीर्त्ति और अन्न से समृद्ध एवं उससे प्रजा को भी दुःखों से तारने वाला है। (सः) वह तू हे (पुरुस्तुत) बहुतों से प्रशंसा योग्य ! (ओजसा वावृधानः) पराक्रम और शौर्य से बढ़ता हुआ (नः) हमारे बीच (सुश्रवस्तमः) उत्तम कीर्त्ति और ज्ञान से सबसे अधिक यशस्वी और बहुश्रुत (भव) हो। इस सूक्त की योजना अध्यात्म में निम्नलिखित दिशा से करनी चाहिये। (१) इन्द्र देह में आत्मा है, विश्वमय विराड् देह में परमेश्वर है। देह में ‘हरि’ प्राणगण हर्षजनक और तृप्तिजनक होने से मन्द्र और ‘मयु’ वाक् को उत्पन्न करने वाले मुख्य प्राण के रोमों के समान उसी से उत्पन्न होने वाले होने से आत्मा ‘मयू -रोमा’ है। उस आत्मा के वे प्राणादि अपनी वासनाओं से, भोग-पाशों में न जकड़ लें प्रत्युत वह असंग उन सबको अतिक्रमण करे। विश्व में नाना वर्णों की किरणों वाले सूर्यादि अनन्त लोक मयूररोमा हरि हैं वे सब भी उसको बन्धन में नहीं डालते। परमेश्वर सबका रक्षक, व्यापक और प्रकाशक होने से ‘वि’ है। वह उन सबको अतिक्रमण कर ‘धन्व’ अन्तरिक्ष को लांघकर सूर्य के समान विराजता है। (२) आत्मा ‘वृत्र’ अज्ञान का नाश करता देहपुरियों और इन्द्रियों को भेदता, प्राणों को प्रेरित करता है। ‘पराञ्चि खानि व्यतृणत् स्वयंभूः’ (उप०) वा (अपाम् अजः) प्राणों के बीच वह अजन्मा है। प्राण, अपान दो ‘हरि’ अश्व हैं। उनसे जुड़े ‘रथ’ रमणसाधन रथ के समान देह पर स्थित देह का अधिष्ठाता आत्मा है। सब तरफ़ इन्द्रियें मन को प्रेरित कर और स्वतः प्रकाश न होने से ‘अधिस्वर’ हैं। वह दृढ़ से दृढ़ बन्धनों को भी तोड़ डालता है। (३) क्रतुमय देह, गौ, वाणी और इन्द्रियाँ गम्भीर उदधि, प्राण हैं। उनको सुगोपा आत्मा पुष्ट करता है। और वे आत्मा के ऐश्वर्य को भोगते और समुद्र में नदियों के समान उसी में समा जाते हैं। यथा नद्यः स्यन्दमानाः समुद्रे अस्तं गच्छन्ति नाम रूपे विहाय। (उप०) (४) प्रत्येक पदार्थ का ज्ञान करने वाले चक्षु आदि को वह उनका अंश देता है। ज्ञानवान् होने से वह अङ्की है, कर्म फलोत्पादक, वृक्ष के समान यह देह ही वृक्ष है। उसको सञ्चालित कर आ उत्तम पालक पोषक शक्ति वीर्य बल को प्रदान करता है। (५) ‘स्वयंभू’ होने से ‘स्वयं’, स्वयं प्रकाश होने से स्वराड्, शोभन वाणी वा इच्छा होने से स्मद्दिष्टि है। आत्मबल से बलवत्तर है, श्रवण शक्तियुक्त बलवत्तम होने से ‘सुश्रवस्तम’ है। इति नवमो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः— १, २ निचृद् बृहती। ३, ५ बृहती। ४ स्वराडनुष्टुप्॥ पञ्चर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
तोच चक्रवर्ती राजा होण्यायोग्य असतो जो अत्यंत प्रशंसायुक्त गुण, कर्म, स्वभावाचा असतो. तोच सर्वांची उन्नती करणारा असतो. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, you are self-sufficient, self-refulgent, sovereign, innately honourable, self-growing with your own lustre, universally admired and celebrated. Be most kind and benevolent to us, we pray.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The qualities of enlightened persons are further stated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Indra (prosperous king) ! you are possessor opulence. You shine with your splendor. You teach us of our means of welfare. You are renowned and glorious. Ever-increasing in vigor, become the most bountiful to us and bestow knowledge and wealth. You are praised by many because of listening to our requests most attentively.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
He alone deserves to be a sovereign who is the most virtuous and righteous person. Only such sovereign can be the source of progress of all.
Foot Notes
(स्वराट् ) यः स्वेनैव राजते । (स्वराट्) राजृ-दीप्तौ (म्वा० ) = Shining by his own virtues. (स्मद्विष्टिः ) कल्याणोपदेष्टा = Teacher of our welfare. (सुश्रवस्तमः ) सुष्ठु धनः श्रवणयुक्तः सोऽतिशयितः । श्रवः । श्रव इति अन्ननाम श्रूयते इति सतः ( NRT 10,5 ) श्रवः श्रवणीयं यश इति (NRT 11,1,9)-Possessor of much wealth and listening to our requests and complaints most attentively. (स्वयंशस्तर:) स्वकीयं यशो धनं प्रशंसा वा यस्य सोऽतिशियितः । यश इति धननाम (NG 2,10 ):- Endowed with much good reputation and wealth.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal