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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 56 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 56/ मन्त्र 2
    ऋषिः - प्रजापतिर्वैश्वामित्रो वाच्यो वा देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    षड्भा॒राँ एको॒ अच॑रन्बिभर्त्यृ॒तं वर्षि॑ष्ठ॒मुप॒ गाव॒ आगुः॑। ति॒स्रो म॒हीरुप॑रास्तस्थु॒रत्या॒ गुहा॒ द्वे निहि॑ते॒ दर्श्येका॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    षट् । भा॒रान् । एकः॑ । अच॑रन् । बि॒भ॒र्ति॒ । ऋ॒तम् । वर्षि॑ष्ठम् । उप॑ । गावः॑ । आ । अ॒गुः॒ । ति॒स्रः । म॒हीः । उप॑राः । त॒स्थुः॒ । अत्याः॑ । गुहा॑ । द्वे इति॑ । निहि॑ते॒ इति॒ निऽहि॑ते । दर्शि॑ । एका॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    षड्भाराँ एको अचरन्बिभर्त्यृतं वर्षिष्ठमुप गाव आगुः। तिस्रो महीरुपरास्तस्थुरत्या गुहा द्वे निहिते दर्श्येका॥

    स्वर रहित पद पाठ

    षट्। भारान्। एकः। अचरन्। बिभर्ति। ऋतम्। वर्षिष्ठम्। उप। गावः। आ। अगुः। तिस्रः। महीः। उपराः। तस्थुः। अत्याः। गुहा। द्वे इति। निहिते इति निऽहिते। दर्शि। एका॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 56; मन्त्र » 2
    अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 1; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे मनुष्या येन जगदीश्वरेणात्र संसारे द्वे निहिते तयोरेका दर्श्यत्या गुहा उपराश्च तस्थुरुपराश्च तिस्रो महीर्गाव उपागुस्तान् षड् भारानचरन्त्सन्नेक असहाय ईश्वर वर्षिष्ठमृतं च बिभर्त्ति तमेव सततं ध्यायत ॥२॥

    पदार्थः

    (षट्) (भारान्) पञ्चतत्त्वानि महत्तत्त्वञ्च (एकः) (अचरन्) स्थिरः (बिभर्त्ति) धरति पुष्यति वा (ऋतम्) सत्यं कारणम् (वर्षिष्ठम्) अतिशयेन वृद्धम् (उप) (गावः) किरणाः (आ) (अगुः) आगच्छन्ति (तिस्रः) स्थूला मध्या सूक्ष्मा च (महीः) भूमीः (उपराः) मेघाः (तस्थुः) तिष्ठन्ति (अत्याः) अतन्ति सर्वत्र व्याप्नुवन्ति त आकाशादयः (गुहा) गुहायां महत्तत्त्वाख्यायां समष्टिबुद्धौ (द्वे) कार्य्यकारणे (निहिते) संधृते (दर्शि) दृश्यते (एका) कार्याख्या ॥२॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या येन परमेश्वरेण प्रकृत्यादिभूम्यन्तं जगन्निर्माय धृत्वा संपाल्य व्यवस्थाप्यते स एव पूज्योऽस्तीति मन्यध्वम् ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जिस जगदीश्वर ने इस संसार में (द्वे) दो कार्य और कारण (निहिते) धारण किये उन दोनों के मध्य में (एका) एक कार्य नामक (दर्शि) देख पड़ता है (अत्याः) सर्वत्र व्यापक होनेवाले आकाशादि वा (गुहा) महत्तत्त्वनामक सम्पूर्ण बुद्धि में (उपराः) मेघ (तस्थुः) स्थित होते और मेघ (तिस्रः) स्थूलमध्य और सूक्ष्म (महीः) भूमियों को और (गावः) किरणें (उप, आ, अगुः) प्राप्त होते हैं उन (षट्) छः (भारान्) पञ्चतत्त्व और महत्तत्त्व अर्थात् बुद्धि को (अचरन्) न कम्पाता हुआ (एकः) सहायरहित ईश्वर (वर्षिष्ठम्) अतीव बढ़े हुए (ऋतम्) सत्य कारण का (बिभर्त्ति) धारण वा पोषण करता है, उसीका निरन्तर ध्यान करो ॥२॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! जिस परमेश्वर से प्रकृति आदि भूमि पर्य्यन्त संसार रच धारण कर और उत्तम प्रकार पालन करके व्यवस्थापित अर्थात् ढंग पर चलाया जाता है, वही पूज्य है, ऐसा मानो ॥२॥

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    विषय

    जीव का स्वरूप

    पदार्थ

    [१] (एकः) = एक जीव (अचरन्) = वस्तुतः कूटस्थरूपेण रहता हुआ या न खाता हुआ [चर भक्षणे] (षट्वः भारान्) = [भ्रियते ज्ञानादिकं यैः] ज्ञानप्राप्ति के साधनभूत ज्ञानेन्द्रियों व मन [अन्त:करण] को (बिभर्ति) = धारण करता है। [२] इनके द्वारा इसे (गावः उप आगुः) = ज्ञान-वाणियाँ समीपता से प्राप्त होती हैं। प्राप्त तब होती हैं, जब कि यह (ऋतम्) = ऋत का पालन करता हुआ 'ऋतमय' व ऋत ही बन जाता है, जब यह सब कार्य बड़े नियमित रूप से करता है तथा जब यह (वर्षिष्ठम्) = वृद्धतम बनता है अपनी शक्तियों को बढ़ाने का पूर्ण प्रयत्न करता है। [३] इस जीव के इस भौतिक जीवन में (अत्या) = निरन्तर गतिशील (तिस्त्र:) = तीन (मही:) = चित्त की भूमिकाएँ (उपरा:) = [उपर्युपरि] एक के ऊपर दूसरी इस प्रकार (तस्थुः) = स्थित हैं। 'जागरित' के बाद 'स्वप्न' की भूमिका आती है, स्वप्न के बाद 'सुषुप्ति' । इस प्रकार इनका क्रम चलता ही रहता है। इनमें (द्वे) = स्वप्न व सुषुप्तिरूप दो भूमिकाएँ तो (गुहा निहिते) = बुद्धिरूप गुहा में ही स्थापित होती हैं । (एका) = एक यह जागरित ही है, जो कि (दर्शि) = इन्द्रियों का विषय बनती है।

    भावार्थ

    भावार्थ - जीव पाँच ज्ञानेन्द्रियों व छठे अन्तःकरण को धारण करता हुआ सब ज्ञानों को प्राप्त करता है। यह प्रतिदिन जागिरत, स्वप्न व सुषुप्ति रूप तीन चित्त की भूमिकाओं में से गुजरता है |

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    विषय

    सूर्य, आत्मा, परमेश्वर का वर्णन।

    भावार्थ

    जिस प्रकार (एकः) अकेला, एक सूर्य (अचरन्) स्वयं न चलता हुआ भी स्थिर रहकर (षट् भारान् विभर्त्ति) सबके पालक पोषक ६ ऋतुओं को धारण करता है। (वर्षिष्ठम् ऋतम्) और खूब वर्षाने वाले जल को (गावः उप आ अगुः) किरणें प्राप्त करती हैं और (अत्याः उपराः) व्यापनशील मेघ (तिस्रः महीः आ तस्थुः) तीनों लोकों को आच्छादित करते हैं और (द्वे गुहा निहिते) तीनों लोकों में से दो अन्तरिक्ष में अदृश्य हो जाती हैं और (एका) एक यह पृथिवी ही (दर्शि) दिखाई देती रहती है। उसी प्रकार एक (अचरन्) स्वयं स्थिर आत्मा पांच इन्द्रिय और छठा मन इन छः (भारान्) विषयों को हरण करने और ज्ञानों के धारक साधनों को (बिभर्त्ति) धारण करता है। (गावः) ये इन्द्रियां विषयों तक जाने से ‘गौ’ हैं । वे सब (वर्षिष्ठम्) सबसे अधिक बड़े, सूर्यवत् तेजस्वी (ऋतम्) बलस्वरूप, सत्यमय, ज्ञानमय आत्मा को (उप आगुः) प्राप्त होती हैं। (अत्याः) व्यापने वाले या गतिशील (उपराः) विषयों में रमण करने वाले संकल्प विकल्प (तिस्रः-महीः) चित्त की तीनों भूमियों को ही व्यापते हैं। (द्वे गुहा निहिते) दो भूमियां बुद्धि में ही स्थित रहती हैं और एक भूमि अर्थात् दशा, स्थिति, जाग्रत् (दर्शि) सर्व प्रत्यक्ष दिखाई देती है। (३) परमेश्वर स्थिर एवं अभोक्ता होकर पांच भूतों और एक महत्तत्व को धारण करता है। (गावः) सब लोकगण उसी सनातन पुरुष को प्राप्त हैं। तीनों लोकों में व्यापक आप व्याप्त है। (द्वे) दोनों कार्य-कारण दशाएं उसी के बुद्धिमय ज्ञान में स्थित हैं । एक कार्य दशा सबको प्रत्यक्ष होती है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रजापतिर्वैश्वामित्रो वाच्यो वा ऋषयः॥ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्द:- १, ६, ८ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ४ विराट्त्रिष्टुप्। ५, ७ त्रिष्टुप्। २ भुरिक् पंक्तिः॥ अष्टर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो! ज्या परमेश्वराने प्रकृती इत्यादीपासून भूमीपर्यंत जग निर्माण केलेले आहे, धारण केलेले आहे, उत्तम प्रकारे पालन करून व्यवस्थित केलेले आहे. तोच पूज्य आहे. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    One constant and unmoving bears six burdens. The moving ones go round the one which is sun and shower and the universal law. Three great regions go round in space in constancy. Two remain hidden in the cave of mystery. One is apparently seen.$(The one unmoving is Ishvara who creates Mahat and five elements from Prakrti. Three great ones are Bhu, earth, Bhuvah, the middle region of the sky, and Svah, the region of light, of which the higher two are unseen while the earth is seen. Another interpretation is that the one unmoving is the sun, the six are the seasons. The one constant can be interpreted as Prakrti also which bears Mahat and the elements and the three greats as sattva, rajas and tamas. The mantra is mystical and mysterious and the beauty is deep in mystery.)

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The merits of God are stated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men ! you should always meditate upon that One God, Who has established two stages in this world-substances are cause and effect. The effects or the gross visible, but not the subtle causes. The clouds are in the sky and subtle causes are in the MAHATTATVA or cosmic intelligence. The clouds cover the rays of the sun on the earth, which is of three kinds-gross, subtle and middle. The sky and other elements are dependent upon that One God, Who does not move Himself, but upholds five elements and Mahat Tatva (Great Principle) and also the Highest Truth.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men ! you must have faith in that Ore God as Adorable, Who creates the earth and other worlds, upholds and sustains them and keeps them in proper order.

    Foot Notes

    (षट्भारान् ) पंचतत्त्वानि महत्तत्त्वं च = Five elements and Mahat Tatva (Great Principle). (उपरा:) मेघाः । उपर इति मेघनाम (NG 1, 10 ) = Clouds. (अत्या:) अतन्ति सर्वत्र व्याप्नुवन्ति त आकाशादयः । =The sky (ether) and other elements. (गुहा) गुहार्या महत्तत्त्वाख्यायां समष्टियुद्धौ । In the cave named Mahat Tatva or cosmic intelligenee. (द्वे) कार्य्यकारणे (ऋतम्) सत्यं कारणम् । ऋतमिति सत्यनाम (NG 3, 10 ) = The effect and cause.

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