ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 58/ मन्त्र 9
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - अश्विनौ
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अश्वि॑ना मधु॒षुत्त॑मो यु॒वाकुः॒ सोम॒स्तं पा॑त॒मा ग॑तं दुरो॒णे। रथो॑ ह वां॒ भूरि॒ वर्पः॒ करि॑क्रत्सु॒ताव॑तो निष्कृ॒तमाग॑मिष्ठः॥
स्वर सहित पद पाठअश्वि॑ना । म॒धु॒सुत्ऽत॑मः । यु॒वाकुः॑ । सोमः॑ । तम् । पा॒त॒म् । आ । ग॒त॒म् । दु॒रो॒णे । रथः॑ । ह॒ । वा॒म् । भूरि॑ । वर्पः॑ । करि॑क्रत् । सु॒तऽव॑तः । निः॒ऽकृ॒तम् । आऽग॑मिष्ठः ॥
स्वर रहित मन्त्र
अश्विना मधुषुत्तमो युवाकुः सोमस्तं पातमा गतं दुरोणे। रथो ह वां भूरि वर्पः करिक्रत्सुतावतो निष्कृतमागमिष्ठः॥
स्वर रहित पद पाठअश्विना। मधुसुत्ऽतमः। युवाकुः। सोमः। तम्। पातम्। आ। गतम्। दुरोणे। रथः। ह। वाम्। भूरि। वर्पः। करिक्रत्। सुतऽवतः। निःऽकृतम्। आऽगमिष्ठः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 58; मन्त्र » 9
अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 4; मन्त्र » 4
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अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 4; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ शिल्पविद्याफलमाह।
अन्वयः
हे अश्विना यो ह वां रथो भूरि वर्पः सुतावतो निष्कृतमागमिष्ठः करिक्रदस्ति तेन यो मधुषुत्तमो युवाकुस्सोमोऽस्ति तं दुरोणे पातं परदेशात् स्वदेशमागतम् ॥९॥
पदार्थः
(अश्विना) सर्वाधीशसेनाधीशौ (मधुषुत्तमः) यो मधूनि सुनोति सोऽतिशयितः (युवाकुः) मिश्रिताऽमिश्रितः (सोमः) ऐश्वर्यलाभः (तम्) (पातम्) रक्षतम् (आ) (गतम्) आगच्छतम् (दुरोणे) गृहे (रथः) (ह) किल (वाम्) युवयोः (भूरि) बहु (वर्पः) रूपयुक्तः (करिक्रत्) भृशं करोति (सुतावतः) निष्पन्नैश्वर्यकोशस्य (निष्कृतम्) निष्पन्नम् (आगमिष्ठः) अतिशयेनाऽऽगन्ता ॥९॥
भावार्थः
ये मनुष्या शिल्पविद्ययाऽनेकानि कलायन्त्राणि निर्माय यानादीनि निर्मिमते ते स्वगृहकुलदेशे पूर्णमैश्वर्यं कर्त्तुं शक्नुवन्ति ॥९॥ अत्राश्विशिल्पकृत्यवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह संगतिर्वेद्या ॥ इत्यष्टपञ्चाशत्तमं सूक्तं चतुर्थो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब शिल्पविद्याफल को अगले मन्त्र में कहते हैं।
पदार्थ
हे (अश्विना) सबके अधीश और सेनाके अधीश ! जो (ह) निश्चय (वाम्) आप दोनों का (रथः) (भूरि) बड़े (वर्पः) रूप से युक्त (सुतावतः) उत्पन्न ऐश्वर्य कोश के (निष्कृतम्) सिद्ध हुए विषय को (आगमिष्ठः) अतिशय करके प्राप्त होनेवाला (करिक्रत्) निरन्तरकारी है उससे जो (मधुषुत्तमः) मीठे रसों को निचोड़नेवाला (युवाकुः) मिला और अनमिला (सोमः) ऐश्वर्य का लाभ है (तम्) इसकी (दुरोणे) गृह में (पातम्) रक्षा कीजिये और अन्य देश से अपने देश में (आ, गतम्) आइए ॥९॥
भावार्थ
जो मनुष्य शिल्पविद्या से अनेक कलायन्त्रों का निर्माण करके वाहन आदि को रचते हैं, वे अपने गृह कुल और देश में पूर्ण ऐश्वर्य कर सकते हैं ॥९॥ इस सूक्त में अश्वि शब्द से शिल्पीजनों का कृत्य वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ संगति जाननी चाहिये ॥ यह अट्ठावनवाँ सूक्त और चौथा वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
'मधुषुत्तम युवाकु' सोम
पदार्थ
[१] हे (अश्विना) = प्राणापानो ! (सोमः) = सोम [वीर्य] (मधुषुत्तमः) = अत्यन्त माधुर्य को उत्पन्न करनेवाला है, (युवाकु:) = यह सब बुराईयों को दूर करनेवाला अच्छाईयों को मिलानेवाला है। (तम्) = उस सोम को आप (पातम्) = रक्षित करो। प्राणसाधना से इस सोम की शरीर में ऊर्ध्वगति होती ही है। हे प्राणापानो! आप (दुरोणे) = हमारे इस शरीरगृह में (आगतम्) = आओ। आपके आने से यह सचमुच दुरोण बनता है इससे सब बुराईयों का अपनयन हो जाता है। [दुर्+ओण्] (ह) = निश्चय से (वाम्) = आपका यह (रथः) = शरीर-रथ (भूरिवर्प:) = बहुत अधिक तेज को (करिक्रत्) = करता है। आपकी साधना से यह दीप्तरूपवाला बनता है। आपका यह रथ (सुतावत:) = इस सोम का सम्पादन करनेवाले पुरुष के (निष्कृतम्) = संस्कृतगृह में (आगमिष्ठः) = अतिशयेन आनेवाला होता है। जब मनुष्य प्राणायाम का अभ्यासी बनता है, तो यह शरीर-रथ प्राणापान का रथ हो जाता है। यह सुतावान् के संस्कृतगृह में आता है, अर्थात् सोम का सम्पादन करनेवाले पुरुष को ही प्राप्त होता है।
भावार्थ
भावार्थ- प्राणसाधना से सोम का रक्षण होता है और उससे शरीर-रथ सोम जीवन को मधुर व निर्दोष बनाता है। यह सूक्त प्राणसाधना के महत्त्व का सुन्दरता से प्रतिपादन कर रहा है। अगले सूक्त का देवता 'मित्र' है - सूर्य । सूक्त का प्रारम्भ इस प्रकार है दीप्त बनता है। रक्षित
विषय
अश्वी, नासत्य, सोमपान आदि पदों की व्याख्या।
भावार्थ
हे (अश्विना) अश्वादि सैन्यों के स्वामिजनो ! नायक, सेनापतियो ! (युवाकुः) तुम्हें प्राप्त होने वाला वा पृथक् २ वा सम्मलित (सोमः) ऐश्वर्य, पुत्र प्रजा आदि तुम दोनों के लिये (मधुसुत्तमः) मधुर रस, अन्न, अभिषेक आदि उत्पन्न करने में सबसे उत्तम सिद्ध हो। आप दोनों उसको (पातम्) पालन करो। आप दोनों (दुरोणे) घर में (आगतम्) आइये। (वां) तुम दोनों का (रथः) रथ (वर्पः) वरण करने योग्य (भूरि) बहुतसा उत्तम ऐश्वर्य (करिक्रत्) उत्पन्न करे और वह (सुतावतः) उत्तम ऐश्वर्य वाले के (निष्कृतम् आगमिष्टः) घर में प्राप्त हो। इति चतुर्थो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः– १, ८, ९ त्रिष्टुप्। २, ३, ४, ५, ७ निचृत्त्रिष्टुप्। ६ भुरिक् पंक्तिः॥ नवर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
जी माणसे शिल्पविद्येने अनेक यंत्रे निर्माण करून वाहने तयार करतात ती आपले गृह, कुल व देशात पूर्ण ऐश्वर्य निर्माण करू कशतात. ॥ ९ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Ashvins, leaders of the nation’s defence and governance, the power and glory of the soma of our success is overflowing, with the highest sweetness of honey, pure as well as shared by you and all. Come, taste of it and enjoy and celebrate, and protect it in the home. Your chariot indeed is wondrous of form and perennial in performance. Surely the action and effort of the creator and builder and of the maker of soma is come to success. Let us call it a day!
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The achievements of the technical science is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Ashvinau! the President of the State and the Commander-in-chief of the Army! seated in your beautiful car that goes to the house of a wealthy person and does much gainful work, come to protect wealth in your house. It is free from evils and is good and gives the sweetest happiness. Return to your own country from your foreign trip.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those persons who manufacturing many machines aero planes and other vehicles with technology can create prosperity in their home, family and country.
Foot Notes
(अश्विना ) सर्वाधीशसेनाधीशौ तवन्तौ सर्वाधीशो वीर्य वा अश्व Stph 2, 14, 23) =President of the State and Commander in-chief of the Army. (सोमः) ऐश्वर्यलाभ: = Acquisition of wealth or prosperity. (वर्पः ) रूपयुक्तः । = Beautiful, charming.
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