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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 23 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 23/ मन्त्र 7
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    द्रुहं॒ जिघां॑सन्ध्व॒रस॑मनि॒न्द्रां तेति॑क्ते ति॒ग्मा तु॒जसे॒ अनी॑का। ऋ॒णा चि॒द्यत्र॑ ऋण॒या न॑ उ॒ग्रो दू॒रे अज्ञा॑ता उ॒षसो॑ बबा॒धे ॥७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दुह॑म् । जिघां॑सम् । ध्व॒रस॑म् । अ॒नि॒न्द्राम् । तेति॑क्ते । ति॒ग्मा । तु॒जसे॑ । अनी॑का । ऋ॒णा । चि॒त् । यत्र॑ । ऋ॒ण॒ऽयाः । नः॒ । उ॒ग्रः । दू॒रे । अज्ञा॑ताः । उ॒षसः॑ । ब॒बा॒धे ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    द्रुहं जिघांसन्ध्वरसमनिन्द्रां तेतिक्ते तिग्मा तुजसे अनीका। ऋणा चिद्यत्र ऋणया न उग्रो दूरे अज्ञाता उषसो बबाधे ॥७॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दुहम्। जिघांसन्। ध्वरसम्। अनिन्द्राम्। तेतिक्ते। तिग्मा। तुजसे। अनीका। ऋणा। चित्। यत्र। ऋणऽयाः। नः। उग्रः। दूरे। अज्ञाताः। उषसः। बबाधे ॥७॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 23; मन्त्र » 7
    अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 10; मन्त्र » 2
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ शत्रुनिवारणसेनोन्नतिविषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! यत्र नो य उग्रो दूरेऽज्ञाताः शत्रुसेना उषसस्तमः सूर्य्य इव बबाध ऋणयाश्चित् तुजसे तिग्मा ऋणा अनीका तेतिक्ते द्रुहं ध्वरसं जिघांसन्ननिन्द्रां बबाधे ॥७॥

    पदार्थः

    (द्रुहम्) द्रोग्धारम् (जिघांसन्) हन्तुमिच्छन् (ध्वरसम्) हिंसकम् (अनिन्द्राम्) अनीश्वरीं गतिम् (तेतिक्ते) भृशं तीक्ष्णं करोति (तिग्मा) तिग्मानि तीव्राणि (तुजसे) बलाय शत्रूणां हिंसनाय वा (अनीका) शत्रुभिः प्राप्तुमनर्हाणि सैन्यानि (ऋणा) प्राप्तानि (चित्) अपि (यत्र) (ऋणयाः) प्राप्तया सेनया (नः) अस्माकम् (उग्रः) तीव्रः प्रभावः (दूरे) विप्रकृष्टे (अज्ञाताः) न ज्ञाताः (उषसः) प्रभातान् (बबाधे) बाधते ॥७॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे राजन् ! ये सुशिक्षितान्युत्तमानि शत्रूणां सद्यः पराजयकराणि सैन्यानि सम्पादयेयुर्यतोऽदूरेऽपि सन्तः शत्रवो बिभियुर्दारिद्र्यं भयञ्च दूरीकृत्य स्वप्रजाञ्चाऽऽनन्द्य दुष्टान् सततं हिंस्युस्तांस्त्वं सदैव सत्कुर्याः ॥७॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब शत्रुनिवारण के अनुकूल सेना की उन्नति के विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! (यत्र) जहाँ (नः) हम लोगों का जो (उग्रः) तीव्र प्रताप (दूरे) दूर स्थान में (अज्ञाताः) नहीं जानी गई शत्रुओं की सेनाओं को (उषसः) प्रातःकाल से अन्धकार को जैसे सूर्य्य वैसे (बबाधे) विलोता है (ऋणयाः) प्राप्त सेना से (चित्) भी (तुजसे) बल के लिये अथवा शत्रुओं के नाश के लिये (तिग्मा) तीव्र (ऋणा) प्राप्त (अनीका) शत्रुओं से प्राप्त नहीं होने योग्य सैन्यसमूहों को (तेतिक्ते) अत्यन्त तीक्ष्ण करता है (द्रुहम्) द्रोह करने और (ध्वरसम्) हिंसा करनेवाले को (जिघांसन्) नष्ट करने की इच्छा करता हुआ (अनिन्द्राम्) ईश्वरसम्बन्धरहित मार्ग को (बबाधे) विलोता है ॥७॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे राजन् ! जो लोग उत्तम प्रकार शिक्षित, श्रेष्ठ, शत्रुओं को शीघ्र पराजय करनेवाली सेनाओं को सिद्ध करें, जिनसे दूर स्थान में भी वर्त्तमान शत्रु लोग डरें, दारिद्र्य और भय को दूरकर अपनी प्रजा को आनन्द देकर दुष्टों का निरन्तर नाश करें, उनका आप सदा ही सत्कार करो ॥७॥

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    विषय

    द्रोहवृत्ति का विनाश

    पदार्थ

    [१] (ध्वरसम्) = हिंसिका अनिन्द्राम् इन्द्र [प्रभु] के स्मरण से रहित (द्रुहम्) = द्रोहवृत्ति को (जिघांसन्) = नष्ट करना चाहता हुआ उपासक (तुजसे) = इस द्रोहवृत्ति के विनाश के लिए (तिग्मा अनीका) = अपने पहले से तीव्र आयुधों को (तेतिक्ते) = अत्यन्त तीव्र करता है। इन्द्रियाँ, मन व बुद्धि ही आयुध हैं। इनको तीव्र बनाने से हम अशुभ वृत्तियों का विध्वंस कर पाते हैं। इन द्रोह आदि वृत्तियों के प्रबल होने पर हम प्रभुस्मरण से दूर हो जाते हैं। ये वृत्तियाँ 'अनिन्द्रा' हैं । [२] (यत्र) = जिन उषाओं में (ऋणा चित्) = निश्चय से ऋण होते हैं जिन उषाओं में हम ऋणों के बोझ से दबे होते हैं, (ऋणयाः) = ऋण का नष्ट करनेवाला [यातिर्वधकर्मा सा०] (उग्रः) = वह तेजस्वी प्रभु (नः) = हमारी (उषसः) = उन उषाओं को (अज्ञाता:) = हमारे से अननुभूत रूप में ही (दूरे बबाधे) = सुदूर रोक देते हैं। हम ऋण के बोझवाली उषाओं का अनुभव करनेवाले नहीं होते, अर्थात् हम सब ऋणों को [पितृ ऋण, ऋषि ऋण, देव-ऋण व मानव-ऋण] उतारनेवाले होते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभुस्मरण हमें इस योग्य बनाता है कि हम द्रोह की वृत्ति से ऊपर उठते हैं और अपने सब ऋणों को उतारनेवाले बनते हैं।

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    विषय

    शत्रु का निःशेषकरण ।

    भावार्थ

    (उग्रः) शत्रुओं को नाश करने में अति बलवान् पुरुष (द्रुहं) द्रोहकारिणी, (ध्वरसम्) हिंसा करने वाली (अनिन्द्राम्) इन्द्र अर्थात् ऐश्वर्यवान् राजा से रहित शत्रु सेना को (जिघांसन्) मारने या दण्ड देने की इच्छा करता हुआ, (तुजसे) प्रजा के पालन और शत्रु के नाश के लिये (तिग्मा अनीका) तीक्ष्ण स्वभाव के सैन्यों और शस्त्रास्त्रों को (तेतिक्ते) और अधिक तीक्ष्ण करे । (ऋणयाः ऋणा चित्) जिस प्रकार ऋण शेष करने वाला, अधमर्ण (ऋणा) लिये ऋण रूप धनों का अन्त कर देता है उसी प्रकार (नः) हमारा (उग्रः) बलवान् राजा (दूरे) दूर विद्यमान (अज्ञाता) अज्ञात (उषसः) उषाओं को सूर्य के समान अज्ञात सन्ताप करिणी शत्रु सेनाओं को भी (बबाध) पीड़ित करे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः ॥ १–७, ११ इन्द्रः । ८, १० इन्द्र ऋतदेवो वा देवता॥ छन्द:– १, २, ३, ७, ८, ६,२ त्रिष्टुप् । ४, १० निचृत्त्रिष्टुप् । ५, ६ भुरिक् पंक्ति: । ११ निचृत्पंक्तिः॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे राजा! जे लोक उत्तम प्रकारे शिक्षित, श्रेष्ठ, शत्रूंना पराजित करणारी सेना तयार करतात, ज्यांना दूर असलेल्या शत्रूंनीही भ्यावे, दारिद्र्य व भय दूर करून अपल्या प्रजेला आनंदित करून दुष्टांचा सतत नाश करतात त्यांचाच सदैव सत्कार कर. ॥ ७ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Keen to eliminate the hateful, destructive and rebellious elements, Indra sharpens his blazing armies to greater force, and where the existing forces thus grow fiercer, our ruler, awesome and bold as terror, like a man under pressure of an obligation, wipes out unknown fears like the dawns dispelling darkness.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The subject of removal of the enemies and progress of the army is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men ! a man full of splendor and influence destroys even the fore-standing and out-of-sight (hidden) armies of the enemies, like the sun dispels darkness of the dawn. He prepares his own armies on strong base for the defeat of the powerful armies of his adversaries. With an intention to kill the oppressing male- violent, he stops the activities initiated against God that is atheism.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O king ! you should always honor the person, who organizes and trains well his armies, and defeats the armies of enemies. Because of it, he defeats the foes and enemies in distant areas and becomes frightener. He eradicates poverty and sense of insecurity, gladdens his people and destroys the wicked.

    Foot Notes

    (ध्वरसम् ) हिंसकम् । ध्वरति वधकर्मा (NG 2, 19 ) = Violent.( तुजसे) बलाय, शत्रूर्णा हिंसनाय वा । = For strength or destruction of enemies. (ऋणयाः) प्राप्तया सेनया । = With the ready army.

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