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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 28 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 28/ मन्त्र 2
    ऋषिः - वामदेवः देवता - इन्द्रासोमौ छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    त्वा यु॒जा नि खि॑द॒त्सूर्य॒स्येन्द्र॑श्च॒क्रं सह॑सा स॒द्य इ॑न्दो। अधि॒ ष्णुना॑ बृह॒ता वर्त॑मानं म॒हो द्रु॒हो अप॑ वि॒श्वायु॑ धायि ॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वा । यु॒जा । नि । खि॒द॒त् । सूर्य॑स्य । इन्द्रः॑ । च॒क्रम् । सह॑सा । स॒द्यः । इ॒न्दो॒ इति॑ । अधि॑ । स्नुना॑ । बृ॒ह॒ता । वर्त॑मानम् । म॒हः । द्रु॒हः । अप॑ । वि॒श्वऽआ॑यु । धा॒यि॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वा युजा नि खिदत्सूर्यस्येन्द्रश्चक्रं सहसा सद्य इन्दो। अधि ष्णुना बृहता वर्तमानं महो द्रुहो अप विश्वायु धायि ॥२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वा। युजा। नि। खिदत्। सूर्यस्य। इन्द्रः। चक्रम्। सहसा। सद्यः। इन्दो इति। अधि। स्नुना। बृहता। वर्तमानम्। महः। द्रुहः। अप। विश्वऽआयु। धायि ॥२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 28; मन्त्र » 2
    अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 17; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे इन्दो ! त्वा युजा द्रुहोऽप धायि महो वर्त्तमानं विश्वायु अधिधायि बृहता स्नुना सहसा सद्यः सूर्य्यस्येन्द्र इव चक्रं यो नि खिदत् स इष्टं सुखमाप्नुयात् ॥२॥

    पदार्थः

    (त्वा) त्वाम् (युजा) युक्तेन (नि) (खिदत्) दैन्यम्प्राप्नोति (सूर्य्यस्य) (इन्द्रः) विद्युत् (चक्रम्) (सहसा) बलेन (सद्यः) शीघ्रम् (इन्दो) ऐश्वर्य्यवन् (अधि) उपरि (स्नुना) व्याप्तेन (बृहता) महता (वर्त्तमानम्) (महः) महत् (द्रुहः) द्वेष्टुः (अप) (विश्वायु) सर्वमायुः (धायि) ध्रियते ॥२॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये विदुषा राज्ञा पालिता विद्याधर्म्मब्रह्मचर्य्यादियुक्ताश्चिरञ्जीविनः स्युस्ते शत्रूणां विजेतारो भवन्ति ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (इन्दो) ऐश्वर्य्यवान् ! (त्वा) आपको (युजा) युक्तजन से (द्रुहः) द्वेष करनेवाले का सम्बन्ध (अप, धायि) नहीं धारण किया जाता और (महः) बड़ी (वर्त्तमानम्) वर्त्तमान (विश्वायु) सम्पूर्ण अवस्था (अधि) अधिक धारण की जाती है (बृहता) बड़े (स्नुना) व्याप्त (सहसा) बल से (सद्यः) शीघ्र (सूर्य्यस्य) सूर्य्य की (इन्द्रः) बिजुली के सदृश (चक्रम्) चक्र की जो (नि, खिदत्) दीनता को प्राप्त होता है, वह अपेक्षित सुख को प्राप्त होवे ॥२॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो विद्वान् राजा से पालित विद्या धर्म्म और ब्रह्मचर्य्य आदि से युक्त अतिकाल पर्य्यन्त जीवनेवाले होवें, वे शत्रुओं के जीतनेवाले होते हैं ॥२॥

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    विषय

    सूर्यचक्र का पराभव

    पदार्थ

    [१] हे (इन्दो) = हमें शक्तिशाली बनानेवाले सोम! (त्वा युजा) = तुझ साथी के साथ (इन्द्रः) = यह जितेन्द्रिय पुरुष (सद्यः) = शीघ्र ही (सहसा) = शत्रुओं को अभिभूत करनेवाले बल से (सूर्यस्य) = सूर्य के (चक्रम्) = चक्र को (निखिदत्) = [overpower] पराभूत कर देता है। इस इन्द्र की तेजस्विता के सामने सूर्य की तेजस्विता भी हीन प्रतीत होने लगती है। सूर्य के उस चक्र को यह पराभूत कर देता है, जो कि (बृहता) = बड़े (ष्णुना) = शिखर के साथ [स्यु-top] (अधिवर्तमानम्) = वर्तमान है, अर्थात् जो अत्युच्च स्थान में स्थित है, उस सूर्य-चक्र को भी यह पराभूत कर देता है। [२] इस प्रकार सूर्य-चक्र को पराभूत करनेवाले तेज से युक्त हुआ हुआ यह पुरुष (विश्वायु) = सम्पूर्ण जीवन में (महः द्रुहः) = महान् द्रोह से (अपधायि) = दूर रखा जाता है। तेजस्वी बनकर यह किसी के प्रति द्रोहवृत्तिवाला नहीं होता।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोमरक्षण से हम तेजस्वी बनते हैं। अपने तेज से सूर्य-मण्डल को भी पराभूत करनेवाले होते हैं। यह तेजस्विता हमें द्रोहवृत्तियों से पृथक् रखती है ।

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    विषय

    राजा का प्रबल सहायक ।

    भावार्थ

    हे (इन्द्रो) दयार्द्र हृदय ! चन्द्र के समान कान्ति और ऐश्वर्य से युक्त प्रजाजन ! (इन्द्रः) वायु वा विद्युत् जिस प्रकार जल की सहायता से सूर्य के ज्योतिर्मण्डल को हीनकान्ति बना देता है उसी प्रकार (त्वा युजा) तुझ सहायक से ही (इन्द्रः) शत्रुओं का नाश करने हारा, विद्युत् के समान गर्जन, छेदन भेदन शील, वायु के तुल्य शत्रु-वृक्षों को कंपाने हारा, बलवान् पुरुष (सूर्यस्य) सूर्य के तुल्य तेजस्वी राजा के भी (चक्रं) राज्य-चक्र को (सहसा) अपने शत्रुविजयी सैन्यबल से (सद्यः) अति शीघ्र (नि खिदत्) बिलकुल हीन दीन कर सकता है। और (बृहत) बहुत बड़े (स्नुना) उपरिस्थित वा दूर २ तक फैलाने वाले सैन्य बल से (अधि वर्त्तमानं) ऊपर अध्यक्ष रूप से कार्य करने वाले (द्रुहः) द्रोही शत्रु के (महः) बड़े (विश्वायु) सर्व जीवन सामर्थ्य, सर्वत्रगामी बल को भी (अप धायि) दूर हटा देने में समर्थ होता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः ॥ इन्द्रासोमौ देवते ॥ छन्दः– १ निचृत् त्रिष्टुप् । ३ विराट्- त्रिष्टुप् । ४ त्रिष्टुप् । २ भुरिक् पंक्तिः । ५ पंक्तिः ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. विद्वान राजाकडून ज्यांचे पालन होते ते विद्या, धर्म आणि ब्रह्मचर्य इत्यादींनी युक्त असतात व दीर्घजीवी होतात, ते शत्रूंना जिंकणारे असतात. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Soma, power of cool and bliss of nature’s cosmic energy, with force, constantly counters the cycle of solar radiations operating with mighty catalysis and coming from higher regions, and thus the great all round negativity of sun rays against life is warded off.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes of a ruler are stated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O prosperous king! by alliance with you, the degree of malice is smashed and great long life is upheld. As the sun with its pervasive force upholds the cycle of creation like the electricity, in the same manner, a humble person enjoys the desirable happiness.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those persons who are cherished by a learned person and are endowed with Vidya (knowledge), Dharma (righteousness), Brahmacharya (continence) and other virtues are blessed with long-life they become conquerors of enemies.

    Foot Notes

    (स्नुना ) व्याप्तेन । = Pervasive, vast. ( खिदत्) दैन्यम्प्राप्नोति । = Is humble. (इन्द्र) विद्युत् । यदशनिरिन्द्रस्तेन (कोषीतकी ब्रा 11.6.3.9) स्तनयित्मरेवेन्द्र: ( siph 11,6, 3, 9 ) = Electricity, lightening.

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