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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 28 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 28/ मन्त्र 3
    ऋषिः - वामदेवः देवता - इन्द्रासोमौ छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अह॒न्निन्द्रो॒ अद॑हद॒ग्निरि॑न्दो पु॒रा दस्यू॑न्म॒ध्यन्दि॑नाद॒भीके॑। दु॒र्गे दु॑रो॒णे क्रत्वा॒ न या॒तां पु॒रू स॒हस्रा॒ शर्वा॒ नि ब॑र्हीत् ॥३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अह॑न् । इन्द्रः॑ । अद॑हत् । अ॒ग्निः । इ॒न्दो॒ इति॑ । पु॒रा । दम्यू॑न् । म॒ध्यन्दि॑नात् । अ॒भीके॑ । दुः॒ऽगे । दु॒रो॒णे । क्रत्वा॑ । न । या॒ताम् । पु॒रु । स॒हस्रा॑ । शर्वा॑ । नि । ब॒र्ही॒त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अहन्निन्द्रो अदहदग्निरिन्दो पुरा दस्यून्मध्यन्दिनादभीके। दुर्गे दुरोणे क्रत्वा न यातां पुरू सहस्रा शर्वा नि बर्हीत् ॥३॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अहन्। इन्द्रः। अदहत्। अग्निः। इन्दो इति। पुरा। दस्यून्। मध्यन्दिनात्। अभीके। दुःऽगे। दुरोणे। क्रत्वा। न। याताम्। पुरु। सहस्रा। शर्वा। नि। बर्हीत् ॥३॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 28; मन्त्र » 3
    अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 17; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे इन्दो ! ये इन्द्र इव मध्यन्दिनाद् दस्यूनहन्नग्निरिवाभीके दुष्टानदहत् पुरा दुर्गे दुरोणे क्रत्वा न पुरू शर्वा सहस्रा नि बर्हीत् स त्वं चैवं सुखं याताम् ॥३॥

    पदार्थः

    (अहन्) हन्ति (इन्द्रः) सूर्य्य इव राजा (अदहत्) दहति भस्मीकरोति (अग्निः) पावक इव (इन्दो) परमैश्वर्य्ययुक्त प्रजाजन (पुरा) प्रथमतः (दस्यून्) महासाहसिकान् (मध्यन्दिनात्) मध्यन्दिने वर्त्तमानात् तापात् (अभीके) समीपे (दुर्गे) प्रकोटे (दुरोणे) गृहे (क्रत्वा) प्रज्ञया कर्मणा वा (न) इव (याताम्) गच्छताम् (पुरू) बहूनि (सहस्रा) सहस्राणि (शर्वा) सर्वाणि हिंसनानि (नि) (बर्हीत्) ॥३॥

    भावार्थः

    अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा मध्याह्ने सूर्य्यस्सर्वान् प्रतापयति तथैव न्यायशीलो राजा दुष्टाञ्चोरादीन् दुःखयति, अग्निवद्भस्मीभूतान् कृत्वा सर्वा हिंसा निवारयेत् ॥३॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (इन्दो) अत्यन्त ऐश्वर्य्य से युक्त प्रजाजन जो (इन्द्रः) सूर्य्य के सदृश राजा (मध्यन्दिनात्) मध्य दिन में वर्त्तमान ताप से (दस्यून्) बड़े साहस करनेवालों को (अहन्) नाश करता है (अग्निः) अग्नि के सदृश (अभीके) समीप में दुष्टों को (अदहत्) जलाता है और (पुरा) पहिले से (दुर्गे) राजगढ़ (दुरोणे) गृह में (क्रत्वा) बुद्धि वा कर्म्म के (न) सदृश (पुरू) बहुत (शर्वा) सम्पूर्ण हिंसनों और (सहस्रा) हजारों को (नि, बर्हीत्) नाश करे वह और आप इस प्रकार से सुख को (याताम्) प्राप्त होओ ॥३॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमावाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे मध्याह्न में सूर्य्य सब को तपाता है, वैसे ही न्यायकारी राजा दुष्ट चोरादिकों को दुःख देता है और अग्नि के सदृश भस्मीभूत करके सम्पूर्ण हिंसा दूर करे ॥३॥

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    विषय

    पुरा मध्यन्दिनात्

    पदार्थ

    [१] हे (इन्दो) = हमें शक्तिशाली बनानेवाले सोम! (इन्द्रः) = एक जितेन्द्रिय पुरुष (अभीके) = संग्राम में (मध्यन्दिनात् पुरा) = जीवन के मध्याह्न से पूर्व जीवन के पूर्वाह्न में ही, (दस्यून्) = दास्यववृत्तियों को (अहन्) = नष्ट करता है। (अग्निः) = यह प्रगतिशील जीव इन शत्रुओं को (अदहत्) = जला देता है। जीवन के अपराह्न में तो वासनाएँ स्वयं भी कुछ शान्त ही हो जाती हैं। जीवन के पूर्वाह्न में ही इन वासनाओं को नष्ट करना व दग्ध करना आवश्यक है 'प्रथमे वयसि यः शान्तः स शान्त इति कथ्यते । धातुषु क्षीयमाणेषु शमः कस्य न जायते' । [२] (न) = और [न इति चार्थे] (दुरोणे) = [दुरवनेरक्षितुमशक्ये] जिस में रक्षण बड़ा कठिन है, ऐसे दुर्गे कठिन संसारमार्ग में (क्रत्वा) = पुरुषार्थ के साथ व यज्ञों के साथ (याताम्) = जाते हुओं के (पुरूसहस्रा) = बहुत हजारों शत्रुओं को (शर्वा) = वह शत्रुओं का संहार करनेवाला प्रभु (निबर्हीत्) = विनष्ट करता है। हम यज्ञादि कर्मों में प्रवृत्त रहते हैं, तो प्रभु हमारे वासनारूप शत्रुओं को विनष्ट करते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम 'इन्द्र' बनें- जितेन्द्रिय बनें। 'अग्नि' बनें - प्रगतिशील बनें, तभी हम यौवन में वासनाओं को जीत पाएँगे। इस कठिन जीवनमार्ग में यदि हम यज्ञादि कर्मों में प्रवृत्त रहते हैं, तो प्रभु हमारी वासनाओं का संहार करते हैं। सोमरक्षण हमें वासना-विजय के लिए समर्थ करता है।

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    विषय

    शत्रु नाश का कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    (इन्द्रः) सूर्य के तुल्य शत्रुहन्ता राजा (अभीके) संग्राम में (मध्यन्दिनात्) मध्याह्न काल के ताप के समान असह्य प्रताप से (दस्यून्) दुष्ट, प्रजा-नाशक पुरुषों को (अहन्) विनाश करे और वह हे (इन्दो) दयार्द्रस्वभाव, ऐश्वर्यवन् विद्वन् एवं प्रजाजन ! (अग्निः) अग्नि के तुल्य तेजस्वी, अग्रणी नायक भी उसी प्रकार दुष्ट पुरुषों को (अदहत्) भस्म करे । (दुरोणे) घर में (क्रत्वा) यज्ञ से जिस प्रकार मनुष्य (यातां) पीड़ादायक (पुरू सहस्रा शर्मा) बहुत से हज़ारों हिंसाकारी, रोग बाधाओं का नाश करता है (न) उसी प्रकार (दुर्गे) गढ़ में स्थित होकर (क्रत्वा) अपनी प्रज्ञा और कर्म कौशल से ही (यातां) प्रयाण करने वाले पीड़ादायक शत्रुओं के (पुरु सहस्रा शर्वा) अनेक हज़ारों हिंसाकारी सैन्यों वा शस्त्राघातों को (नि बर्हीत) निवारण करता है ।

    टिप्पणी

    एकः शतं योधयति । पञ्चतन्त्र ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः ॥ इन्द्रासोमौ देवते ॥ छन्दः– १ निचृत् त्रिष्टुप् । ३ विराट्- त्रिष्टुप् । ४ त्रिष्टुप् । २ भुरिक् पंक्तिः । ५ पंक्तिः ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जसा मध्यान्हीचा सूर्य सर्वांना ताप देतो तसा न्यायी राजा दुष्ट चोरांना दुःख देतो व अग्नीप्रमाणे भस्मीभूत करून संपूर्ण हिंसा दूर करतो. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indu, Soma, cool and bliss of mind, nature and people of the land and forces of peace, with your balancing action, Indra, powerful and blazing, destroys darkness and evil, as fire burns off the demoniac forces before the mid-day yajna in the battle of life. Thus does the spirit of life, with Indra and Soma, hot and cold in the existential circuit of nature, destroy and ward off a thousand onslaughts of impending dangers and attacks. And so do the acts of yajna in the home of the family and fortress of the ruler.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The subject of Indra (ruler) is dealt.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O prosperous person ! let that king become mighty like sun and with you enjoys happiness jointly, because he destroys the robbers like the sun of the midday and burns the wicked intensely like fire. In his fort and palace, he gulled thousands of violent acts with his wisdom and good actions.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As the sun conveys heat to all in midday, in the same manner, a just king inflicts punishment upon all the wicked persons, thieves and other sinners. He should burn away ( annihilate) such extremely wicked persons and should put a stop to all categories of violence.

    Foot Notes

    (इन्द्रो) परमेश्वर्य्ययुक्त प्रजाजन । = O prosperous subjects. (शर्वा) सर्वाणि हिंसनानि । = All acts of violence. (अभीके) समीपे । प्रपिते अभीके इत्यासन्नस्य (NKT 3, 4, 20 ) = Near.

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