ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 31/ मन्त्र 8
उ॒त स्मा॑ स॒द्य इत्परि॑ शशमा॒नाय॑ सुन्व॒ते। पु॒रू चि॑न्मंहसे॒ वसु॑ ॥८॥
स्वर सहित पद पाठउ॒त । स्म॒ । स॒द्यः । इत् । परि॑ । श॒श॒मा॒नाय॑ । सु॒न्व॒ते । पु॒रु । चि॒त् । मं॒ह॒से॒ । वसु॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
उत स्मा सद्य इत्परि शशमानाय सुन्वते। पुरू चिन्मंहसे वसु ॥८॥
स्वर रहित पद पाठउत। स्म। सद्यः। इत्। परि। शशमानाय। सुन्वते। पुरु। चित्। मंहसे। वसु ॥८॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 31; मन्त्र » 8
अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 25; मन्त्र » 3
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अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 25; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्न्यायपालनराजप्रजाधर्मविषयमाह ॥
अन्वयः
हे विद्वन् ! यतस्त्वं शशमानाय सुन्वते चित् पुरू वसु परि मंहसे तस्मात्त्वं सद्य उत स्मेदैश्वर्य्यं प्राप्नोति ॥८॥
पदार्थः
(उत) अपि (स्मा) एव (सद्यः) (इत्) (परि) सर्वतः (शशमानाय) प्रशंसिताय (सुन्वते) पुरुषार्थेनाभिषवं कुर्वते (पुरू) बहु। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (चित्) अपि (मंहसे) वर्धयसि (वसु) धनम् ॥८॥
भावार्थः
ये मनुष्या आप्तानां सत्कारं कुर्वन्ति ते तूर्णं गुणवन्तो भूत्वैश्वर्य्ययुक्ता भवेयुः ॥८॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर न्यायपालन राजप्रजाधर्मविषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे विद्वन् ! जिससे कि आप (शशमानाय) प्रशंसित और (सुन्वते) पुरुषार्थ से ओषधियों के रस को उत्पन्न करते हुए के लिये (चित्) भी (पुरू) बहुत (वसु) धन को (परि) सब प्रकार (मंहसे) बढ़वाते हो इससे आप (सद्यः) शीघ्र (उत) फिर (स्म) ही (इत्) निश्चित ऐश्वर्य्य को प्राप्त होते हो ॥८॥
भावार्थ
जो मनुष्य यथार्थवक्ता पुरुषों का सत्कार करते हैं, वे शीघ्र गुणवान् होकर ऐश्वर्य्य से युक्त होवें ॥८॥
विषय
शशमान+सुन्वन्
पदार्थ
[१] (उत) = और हे प्रभो! आप (सद्यः इत्) = शीघ्र ही (पुरूचित्) = अत्यन्त (वसु) = धन (परि मंहसे) = सब ओर से देते ही हैं। प्रभु सब वसुओं के स्वामी हैं, 'वसूनां वसुपति' वे प्रभु हैं। उनसे दिये जानेवाले वसुओं में किसी प्रकार की कमी सम्भव ही नहीं। [२] हम उन वसुओं की प्राप्ति का अपने को पात्र बनाएँ। (शशमानाय) = [शंसमानाय] स्तवन करनेवाले के लिए प्रभु इन वसुओं को प्राप्त कराते हैं। (सुन्वते) = सोम का अभिषव करनेवाले के लिए प्रभु के ये वसु प्राप्त होते हैं हम 'शशमान व सुन्वन्' बनकर प्रभु से सब वसुओं को प्राप्त करें। सदा प्रभु का शंसन करें और शरीर में सोम का संपादन करें। सोम का रक्षण करते हुए ही तो हम अपने अन्दर ज्ञान का प्रकाश प्राप्त करेंगे ।
भावार्थ
भावार्थ– 'शशमान व सुन्वन्' बनकर हम प्रभु से दिये जानेवाले वसुओं के पात्र हों।
विषय
परमेश्वर और राजा से प्रार्थना । और राजा के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
(उत स्म) और हे राजन् ! तू (सद्यः इत्) शीघ्र ही, (शशमानाय) अन्यों को उत्तम वचनों का अनुशासन या शिक्षा करने वाले, स्वयं प्रशंसित आचारवान् विद्यावान् (सुन्वते) अन्यों को और स्वयं भी ज्ञान और धनैश्वर्य का सम्पादन करने कराने वाले को (परि) आदरपूर्वक (पुरु वसु) बहुत सा जीवनोपयोगी धन (मंहसे) प्रदान करता है, एवं तू किया कर ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः। इन्द्रो देवता॥ छन्दः- १, ७, ८, ९, १०, १४ गायत्री। २, ६, १२, १३, १५ निचृद्गायत्री । ३ त्रिपाद्गायत्री । ४, ५ विराड्गायत्री । ११ पिपीलिकामध्या गायत्री ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जी माणसे विद्वान पुरुषांचा सत्कार करतात ती ताबडतोब गुणवान बनून ऐश्वर्याने युक्त होतात. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, lord of knowledge and power, you give immense wealth for the celebrant devotee and creator of soma instantly, and ever more augment it many ways all round.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The ruler is told to deliver proper and quick justice.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned people! with your strenuous right efforts, you prepare rejuvenating juices of medicinal herbs. Thus you create larger areas of fiscal activities. Consequent upon this you become positively prosperous very soon.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The people (or ruler) who honor the State forward and plain speaking persons, they become virtuous very soon and become full of prosperity.
Foot Notes
(शशमानाय ) प्रशंसिताय । = Right or admirable efforts. (सुन्वते ) पुरुषार्थेनाभिषवं कुर्वते । = For a person making strenuous efforts. (महसे-वसु) वर्धयसि धनम् = Create large areas of fiscal activities.
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