ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 43/ मन्त्र 5
ऋषिः - पुरुमीळहाजमीळहौ सौहोत्रौ
देवता - अश्विनौ
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
उ॒रु वां॒ रथः॒ परि॑ नक्षति॒ द्यामा यत्स॑मु॒द्राद॒भि वर्त॑ते वाम्। मध्वा॑ माध्वी॒ मधु॑ वां प्रुषाय॒न्यत्सीं॑ वां॒ पृक्षो॑ भु॒रज॑न्त प॒क्वाः ॥५॥
स्वर सहित पद पाठउ॒रु । वा॒म् । रथः॑ । परि॑ । न॒क्ष॒ति॒ । द्याम् । आ । यत् । स॒मु॒द्रात् । अ॒भि । वर॑ते । वा॒म् । मध्वा॑ । मा॒ध्वी॒ इति॑ । मधु॑ । वा॒म् । प्र॒ुषा॒य॒न् । यत् । सी॒म् । वा॒म् । पृक्षः॑ । भु॒रज॑न्त । प॒क्वाः ॥
स्वर रहित मन्त्र
उरु वां रथः परि नक्षति द्यामा यत्समुद्रादभि वर्तते वाम्। मध्वा माध्वी मधु वां प्रुषायन्यत्सीं वां पृक्षो भुरजन्त पक्वाः ॥५॥
स्वर रहित पद पाठउरु। वाम्। रथः। परि। नक्षति। द्याम्। आ। यत्। समुद्रात्। अभि। वर्तते। वाम्। मध्वा। माध्वी इति। मधु। वाम्। प्रुषायन्। यत्। सीम्। वाम्। पृक्षः। भुरजन्त। पक्वाः ॥५॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 43; मन्त्र » 5
अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 19; मन्त्र » 5
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अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 19; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे अध्यापकोपदेशकौ ! यो वां रथो द्यामुरु परि नक्षति यद्यो वां समुद्रादभ्या वर्त्तते वां माध्वी मध्वा मधु सीम्भुरजन्त यद्ये पृक्षः पक्वा वां प्रुषायँस्तान् विदुषो युवां सम्पादयेतम् ॥५॥
पदार्थः
(उरु) बहु (वाम्) युवयोः (रथः) (परि) सर्वतः (नक्षति) व्याप्नोति (द्याम्) (आ) (यत्) यः (समुद्रात्) अन्तरिक्षाज्जलाशयाद्वा (अभि) आभिमुख्ये (वर्त्तते) (वाम्) युवाम् (मध्वा) मधुना (माध्वी) मधुरा नीतिः (मधु) (वाम्) युवाम् (प्रुषायन्) प्राप्नुवन्ति (यत्) ये (सीम्) सर्वतः (वाम्) युवाम् (पृक्षः) सम्बन्धिनः (भुरजन्त) प्राप्नुवन्ति (पक्वाः) परिपक्वज्ञानाः परिपक्वस्वरूपा वा ॥५॥
भावार्थः
हे मनुष्या ! ये युष्मान् विदुषः कुर्य्युस्तान् सेवध्वम् ॥५॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे अध्यापक और उपदेशक जनो ! जो (वाम्) आप दोनों का (रथः) वाहन (द्याम्) आकाश को (उरु) बहुत (परि) सब ओर से (नक्षति) व्याप्त होता है (यत्) जो (वाम्) आप दोनों को (समुद्रात्) अन्तरिक्ष वा जलाशय से (अभि) सम्मुख (आ, वर्त्तते) वर्त्तमान होता है तथा (वाम्) आप दोनों और (माध्वी) मधुर नीति (मध्वा) मधुर गुण से (मधु) मधुरकर्म्म को (सीम्) सब ओर से (भुरजन्त) प्राप्त होती हैं और (यत्) जो (पृक्षः) सम्बन्धी जन (पक्वाः) पूर्ण ज्ञान से युक्त वा जिनका स्वरूप परिपक्व अर्थात् पूर्ण अवस्थावाले (वाम्) आप दोनों को (प्रुषायन्) प्राप्त होते हैं, उनको विद्वान् आप दोनों करें ॥५॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! जो आप लोगों को विद्वान् करें, उनकी निरन्तर सेवा करो ॥५॥
विषय
द्युलोक की ओर
पदार्थ
[१] हे अश्विनी देवो! प्राणापानो ! (वां रथ:) = आपकी साधनावाला यह शरीररथ (उरु) = अत्यन्त (द्याम्) = द्युलोक की ओर (परिनक्षति) = सब प्रकार से गतिवाला होता है। (यत्) = क्योंकि (समुद्रात्) = [समुद्] उस आनन्दमय प्रभु से यह रथ (वां अभि आवर्तते) = आपकी ओर ही आनेवाला होता है । वस्तुतः प्रभु ने इस शरीर रथ को प्राणापान का ही रथ बनाया है। प्राणसाधना करने पर शरीर में शक्ति का रक्षण होता है। यह शक्ति ज्ञानाग्नि को दीप्ति करती है एवं यह रथ द्युलोक की ओर गति कर रहा होता है प्रकाशमय लोक की ओर चलता है। [२] (मध्वा) = इस शरीर में रक्षित सोम द्वारा आप (माध्वी) = जीवन को अति मधुर बनाते हो। (वाम्) = आपका (मधु) = यह सोम-आपकी साधना से रक्षित हुआ-हुआ यह सोम (प्रुषायन्) = शरीर के सब अंगों को सिक्त करता है। यह सब होता तब है, (यत्) = जब कि (सीम्) = निश्चय से (वाम्) = आपको (पक्वाः) = पके हुए (पृक्षः) = ये वानस्पतिक अन्न (भुरजन्त) = पोषित करते हैं । [पृक्षः इति अन्ननाम नि० २ । ७] वानस्पतिक पदार्थों के सेवन से जब प्राणापान का पोषण होता है, तो शरीर में सोम का रक्षण सुगम होता है। इसके रक्षण से जीवन सशक्त व मधुर बनता है।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु ने यह शरीर-रथ वस्तुत: प्राणापान का ही बनाया है। इनकी साधना होने पर यह रथ द्युलोक की ओर [प्रकाश की ओर] गतिवाला होता है।
विषय
स्त्री पुरुषों के उत्तम गुणों का वर्णन।
भावार्थ
(वां) आप दोनों का (रथः) रथ (द्याम्) पृथिवी को (उरु नक्षति) खूब व्यापे, भूमि पर वेग से चले, और (यत्) जो (वाम्) तुम दोनों का रथ (समुद्राद् अभि आ नक्षत्) समुद्र तक भी जावे । विद्वान् लोग (माध्वी) मधुर गुणों से युक्त (वां) आप दोनों पर (मध्वा) मधुर अन्न से (मधु प्रुषायन्) मधुर पदार्थों की वृष्टि करें । (वाम्) आप दोनों को (पृक्षः) प्रेम से सम्बद्ध जन (सीम्) सब ओर से प्राप्त हों और (पक्वाः वां सीं भुरजन्त) परिपक्व ज्ञान वाले विद्या-वयोवृद्ध जन आप दोनों को सब ओर से प्राप्त हों । इसी प्रकार अन्न फल, समृद्धियां भी प्राप्त हों ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
पुरुमीळ्हाजमीळ्हौ सौहोत्रावृषी। अश्विनौ देवते ॥ छन्द:– १, त्रिष्टुप। २, ३, ५, ६, ७ निचृत् त्रिष्टुप । ४ स्वराट् पंक्तिः ॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो ! जे तुम्हाला विद्वान करतात त्यांची निरंतर सेवा करा. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Great and grand is your chariot that goes round the regions of light, it comes to you from the oceans and from the oceans of spatial waters. Honey sweet you are, honey sweet is your wisdom. You and your wisdom shower us with sweetness of honey when your people at the stage of ripeness reach you for company and advice.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O teachers and preachers ! your vehicles (in the form of aircraft etc.) travel widely around the heaven and earth and take you even in the firmament or ocean. Your policy and you, both are of sweet temperament, spread sweetness all around i.e. make the atmosphere full of sweetness. Those your kith and kin of mature understanding or age, who come to you, endow them with full knowledge.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men! you should serve them well who make you highly learned or enlightened.
Foot Notes
(समुद्रात् ) अन्तरिक्षाज्जलाशयाद्वा । समुद्र इत्यन्तरिक्ष = (NG 1,3) = From firmament or ocean. (पृक्ष:) संबन्धिनः (पृक्षाः ) पुची -सम्पर्चने (अक्ष) = Kith and kin (प्रुषायन्) प्राप्नुवन्ति । = Approach.
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