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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 5 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 5/ मन्त्र 14
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - वैश्वानरः छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    अ॒नि॒रेण॒ वच॑सा फ॒ल्ग्वे॑न प्र॒तीत्ये॑न कृ॒धुना॑तृ॒पासः॑। अधा॒ ते अ॑ग्ने॒ किमि॒हा व॑दन्त्यनायु॒धास॒ आस॑ता सचन्ताम् ॥१४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒नि॒रेण॑ । वच॑सा । फ॒ल्ग्वे॑न । प्र॒तीत्ये॑न । कृ॒धुना॑ । अ॒तृ॒पासः॑ । अध॑ । ते । अ॒ग्ने॒ । किम् । इ॒ह । व॒द॒न्ति॒ । अ॒ना॒यु॒धासः॑ । आस॑ता । स॒च॒न्ता॒म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अनिरेण वचसा फल्ग्वेन प्रतीत्येन कृधुनातृपासः। अधा ते अग्ने किमिहा वदन्त्यनायुधास आसता सचन्ताम् ॥१४॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अनिरेण। वचसा। फल्ग्वेन। प्रतीत्येन। कृधुना। अतृपासः। अध। ते। अग्ने। किम्। इह। वदन्ति। अनायुधासः। असता। सचन्ताम्॥१४॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 5; मन्त्र » 14
    अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 3; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ समाधातृविषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे अग्ने विद्वन् ! येऽनिरेण प्रतीत्येन फल्ग्वेन कृधुना वचसाऽतृपास आसताऽनायुधास इवेह किं वदन्त्यध ते किं सचन्तामित्यस्योत्तरं ब्रूत ॥१४॥

    पदार्थः

    (अनिरेण) अरमणीयेन (वचसा) वचनेन (फल्ग्वेन) महता (प्रतीत्येन) प्रतीतौ भवेन (कृधुना) ह्रस्वेनाऽल्पेन। (अतृपासः) अतृप्ताः सन्तः (अध) अथ। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (ते) (अग्ने) विद्वन् (किम्) (इह) अस्मिन् संसारे जन्मनि वा। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (वदन्ति) (अनायुधासः) अविद्यमानायुधाः (आसता) अवर्त्तमानेन। अत्रान्येषामपीत्याद्यचो दीर्घः। (सचन्ताम्) प्राप्नुवन्तु ॥१४॥

    भावार्थः

    यदि श्रोतार उपदेशेन प्राप्तोत्तराः सन्तुष्टा न स्युस्ते तावत्पृच्छन्तु यदा प्राप्तसमाधानाः स्युस्तदा तत्कर्म्मारभन्ताम् ॥१४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब समाधाता के विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) विद्वान् पुरुष ! जो (अनिरेण) नहीं रमने योग्य (प्रतीत्येन) प्रतीति में प्रसिद्ध हुए (फल्ग्वेन) बड़े (कृधुना) छोटे (वचसा) वचन से (अतृपासः) अतृप्त होते हुए (आसता) नहीं वर्त्तमान बल आदि से (अनायुधासः) विना शस्त्र-अस्त्रवालों के सदृश (इह) इस संसार वा इस जन्म में (किम्) क्या (वदन्ति) कहते हैं (अध) इसके अनन्तर (ते) आपके लिये किसे (सचन्ताम्) प्राप्त होवें, इसका उत्तर कहिये ॥१४॥

    भावार्थ

    जो श्रोता लोग उपदेश से उत्तर को प्राप्त हुए सन्तुष्ट न होवें, वे तब तक पूछें, जब कि समाधान को प्राप्त होवें, तब उस कर्म का आरम्भ करें ॥१४॥

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    विषय

    अनिर वचस् का परिणाम

    पदार्थ

    [१] (अनिरेण) = न उत्कृष्ट प्रेरणा देनेवाले (वचसा) = वचन से अतृपास: अतृप्ति को अनुभव करनेवाले लोग (असता) = असत् कार्यों से (आसचन्ताम्) = समवेत हों, युक्त हों। जिस समय मनुष्य को उत्कृष्ट ज्ञान नहीं प्राप्त होता, तो वह व्यर्थ समय को नष्ट करनेवाले उत्तेजक साहित्य को पढ़कर क्षणिक आनन्द को प्राप्त करके भी, किसी उत्कृष्ट प्रेरणा के न मिलने से असत् कार्यों में प्रवृत्त होते हैं। इसलिए ज्ञान वही ठीक है जो कि उत्कृष्ट प्रेरणा को दे। इसके विपरीत साहित्य 'असत्' है। (फल्ग्वेन) = वह तो व्यर्थ व निःसार है। (प्रतीत्येन) = [प्रति न] विरुद्ध मार्ग पर ले जानेवाला है। (कृधुना) = अल्प है, मनोवृत्ति को व दृष्टिकोण को संकुचित बनानेवाला है। ऐसे ज्ञान से सन्तोष व तृप्ति का अनुभव नहीं हो सकता। [२] ऐसे न उत्कृष्ट प्रेरणा देनेवाले, निस्सार विरुद्ध मार्ग पर ले जानेवाले अल्प ज्ञान से अतृप्त वे लोग (अधा) = अब, हे (अग्ने) = परमात्मन् ! (इह) = इस जीवन में, (ते) = आपका (किम्) = क्या (आवदन्ति) = चर्चण करते हैं? वे आपकी चर्चा न कर व्यर्थ की सांसारिक बातों में उलझे रहते हैं। (अनायुधास:) = इस संसार संग्राम में काम-क्रोध आदि से लड़ने के लिये उन्हें उत्तम ज्ञान शस्त्र प्राप्त नहीं होता। वे आयुध रहित होते हुए इनके शिकार हो जाते हैं और असत् कार्यों में प्रवृत्त होते रहते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- उत्कृष्ट वेदज्ञान न प्राप्त होने पर व्यर्थ के उत्तेजनात्मक साहित्य में उलझे हुए लोग उत्कृष्ट प्रेरणा न मिलने से भटक जाते हैं। वे असत् मार्ग में प्रवृत्त हो जाते हैं ।

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    विषय

    उनके प्रति गुरु के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे (अग्ने) ज्ञानवन् ! विद्वन् ! परमेश्वर ! (अनिरेण) मन को सुन्दर न लगने वाले, अरुचि कर (फलवेन) व्यर्थ, निःसार (प्रतीत्येन) विरुद्ध ज्ञान वाले, बाधित, (कृधुना) स्वल्प (वचसा) वचन से (अतृपासः) न तृप्त होने वाले लोग (इह) इस लोक में (ते) तेरे (किम्) किस ज्ञान की (आ वदन्ति) चर्चा करें । वे (अनायुधासः) हथियार के साधनों से रहित, निहत्थों के समान (असता) असत् ज्ञान से (सचन्ताम्) युक्त हो जायेंगे । इसलिये हे विद्वन् ! तू उनको विस्तृत रमणीय, सारवान्, अबाधित, अनन्त वेद का उपदेश कर ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः ॥ वैश्वानरो देवता ॥ छन्दः– १ विराट् त्रिष्टुप। २, ५, ६, ७, ८, ११ निचृत् त्रिष्टुप् । ३, ४, ९, १२, १३, १५ त्रिष्टुप। १०, १४ भुरिक् पंक्तिः॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जर श्रोते उपदेशाने उत्तर प्राप्त करून संतुष्ट होणार नसतील तोपर्यंत त्यांनी प्रश्न विचारावे. जेव्हा समाधान होईल तेव्हा त्या कार्याचा आरंभ करावा. ॥ १४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, light and spirit of knowledge and master of the language of knowledge, listeners remain unsatisfied, their thirst for knowledge unquenched, with lifeless, unsubstantial, ambiguous and deficient words. Then what do the speakers speak of you, or to you, or about you, here? Being like warriors without arms, they should come to you, speakers as well as listeners, for light, knowledge and words for effective and living communication.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The teachers are told to answer the questions of their students.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned person ! those who are not satisfied and convinced with an answer to big or small complicated question, they can not speak with authority like an unarmed soldier in the battles. What is to their credit? Therefore, answer their questions well.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    If listeners or students are not satisfied or convinced with the answers received from the learned preachers and teachers, they should go on putting such searching questions, till they are satisfied. After receiving satisfactory answers, they should begin the desired work.

    Foot Notes

    (अनिरेण) अरमणीयेन । = Not charming or convincing. (फल्ग्वेन) महता । = Big. (कृघुना ) ह्रस्वेनाऽल्पेन । = Small or short.

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