ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 51/ मन्त्र 11
तद्वो॑ दिवो दुहितरो विभा॒तीरुप॑ ब्रुव उषसो य॒ज्ञके॑तुः। व॒यं स्या॑म य॒शसो॒ जने॑षु॒ तद्द्यौश्च॑ ध॒त्तां पृ॑थि॒वी च॑ दे॒वी ॥११॥
स्वर सहित पद पाठतत् । वः॒ । दि॒वः॒ । दु॒हि॒त॒रः॒ । वि॒ऽभा॒तीः । उप॑ । ब्रु॒वे॒ । उ॒ष॒सः॒ । य॒ज्ञऽके॑तुः । व॒यम् । स्या॒म॒ । य॒शसः॑ । जने॑षु । तत् । द्यौः । च॒ । ध॒त्ताम् । पृ॒थि॒वी । च॒ । दे॒वी ॥
स्वर रहित मन्त्र
तद्वो दिवो दुहितरो विभातीरुप ब्रुव उषसो यज्ञकेतुः। वयं स्याम यशसो जनेषु तद्द्यौश्च धत्तां पृथिवी च देवी ॥११॥
स्वर रहित पद पाठतत्। वः। दिवः। दुहितरः। विऽभातीः। उप। ब्रुवे। उषसः। यज्ञऽकेतुः। वयम्। स्याम। यशसः। जनेषु। तत्। द्यौः। च। धत्ताम्। पृथिवी। च। देवी ॥११॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 51; मन्त्र » 11
अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 2; मन्त्र » 6
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अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 2; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ पुरुषविषयमाह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! विभातीर्दिवो दुहितर उषस इव स्त्रियो वो यद् ब्रूयुस्तद्यज्ञकेतुरहं युष्मानुप ब्रुवे यथा तद्देवी द्यौश्च पृथिवी च धत्तां तथा वयं जनेषु यशसः स्याम ॥११॥
पदार्थः
(तत्) (वः) युष्माकम् (दिवः) प्रकाशस्य (दुहितरः) कन्या इव वर्त्तमानाः (विभातीः) प्रकाशयन्त्यः (उप) (ब्रुवे) उपदिशामि (उषसः) प्रातर्वेलायाः (यज्ञकेतुः) यज्ञस्य प्रापकः (वयम्) (स्याम) (यशसः) यशस्विनः (जनेषु) विद्वत्सु (तत्) (द्यौः) विद्युत् (च) (धत्ताम्) (पृथिवी) (च) (देवी) देदीप्यमाना ॥११॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये परस्परानुपदिश्य सत्यं ग्राहयन्ति ते सूर्यवत्प्रकाशका भूमिवत्प्रजाधर्त्तारो भवन्तीति ॥११॥ अत्रोषःस्त्रीपुरुषगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥११॥ इत्येकाधिकपञ्चाशत्तमं सूक्तं द्वितीयो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब पुरुष विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! (विभातीः) प्रकाश करती हुईं (दिवः) प्रकाश की (दुहितरः) कन्याओं के सदृश वर्त्तमान (उषसः) प्रातर्वेला के सदृश स्त्रियाँ (वः) आप लोगों का जो विषय कहें (तत्) उसको (यज्ञकेतुः) यज्ञ का जनानेवाला मैं आप लोगों को (उप, ब्रुवे) उपदेश देता हूँ जैसे (तत्) उसको (देवी) प्रकाश (द्यौः) बिजुली (च) और (पृथिवी) पृथिवी (च) भी (धत्ताम्) धारण करें, वैसे (वयम्) हम लोग (जनेषु) विद्वानों में (यशसः) यशस्वी (स्याम) होवें ॥११॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो परस्पर जनों को उपदेश देकर सत्य का ग्रहण कराते हैं, वे सूर्य्य के सदृश प्रकाश करने और भूमि के सदृश प्रजा के धारण करनेवाले होते हैं ॥११॥ इस सूक्त में प्रातःकाल स्त्री और पुरुष के गुण कर्म वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की पिछिले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥११॥ यह इक्क्यावनवाँ सूक्त और दूसरा वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
यज्ञकेतु का यशस्वी जीवन
पदार्थ
[१] (यज्ञकेतुः) = यज्ञ के ज्ञानवाला मैं-यज्ञों के महत्त्व को समझनेवाला मैं हे (दिवः दुहितर:) = प्रकाश की प्रपूरक (विभाती:) = चमकती हुई (उषस:) = उषाओ ! (वः तत्) = आपके उस महत्त्व को मैं (ब्रुवः) = कहता हूँ । [२] उषाओं के महत्त्व को समझते हुए हम उषाओं में जागनेवाले बनें। और (वयम्) = हम (जनेषु) = लोगों में (यशसः स्याम) = यशस्वी हों । उत्कृष्ट जीवनवाले बनकर हम यशस्वी क्यों न होंगे! (तद्) = उस हमारे यश को (द्यौः च) = मस्तिष्करूप द्युलोक (च) = और देवी (पृथिवी) = यह [दिव गतौ] गतिमय पृथिवीरूप शरीर (धत्ताम्) = धारण करें। हमारा मस्तिष्क ज्ञानदीप्त होकर तथा हमारा शरीर दृढ़ होकर हमारे जीवन को यशस्वी बनाएँ ।
भावार्थ
भावार्थ– उषाकालों में जागकर हम यज्ञशील बनें। हमारा शरीर व मस्तिष्क हमारे जीवन को यशस्वी बनाएँ । अगले सूक्त में भी उषा का ही वर्णन है -
विषय
उषावत् उनका वर्णन । पक्षान्तर में अध्यात्म वर्णन ।
भावार्थ
जिस प्रकार (यज्ञकेतुः दिवः दुहितरः विभातीः उषसः उपब्रूते) यज्ञ का जानने हारा, वा उपास्य प्रभु को जानने वाला योगी ज्ञान प्रकाश का देने वाली, सूर्य की कन्या के तुल्य दीप्तियुक्त उषाओं और विशोका प्रज्ञाओं को लक्ष्य कर स्तुति करते हैं । उसी प्रकार (यज्ञकेतुः) परस्पर सत्संग, मान-आदर, सत्कार और परस्पर दान प्रतिदान को भली प्रकार जानने वाला, होकर मैं (दिवः दुहितरः) कामनाओं को पूर्ण करने में (विभातीः) विविध गुणों से प्रकाश युक्त, (उषसः) कमनीय (वः) आप देवी जनों को वा आपके सम्बन्धों में (तत् उप ब्रुवे) वह वचन कहता हूं जिससे (वयं) हम सब (जनेषु) मनुष्यों के बीच (यशसः) यशस्वी (स्याम) हो । (तत्) मेरे कहे उस वचन को (द्यौः च) सूर्य के समान तेजस्वी पुरुष और (देवी पृथिवी च) पृथिवी के समान सुख, सन्तान, अन्नादि देने वाली सर्वाश्रय स्त्री दोनों (धत्तां) धारण करें और एक दूसरे को उस प्रकार का प्रतिज्ञा वचन प्रदान करें और पालन करें। (२) वेदवाणियों के उच्चारण से यज्ञ का और उपास्य देव परमेश्वर का ज्ञानी पुरुष उपासन करें, उस ब्रह्म की उपासना करें । हम सब में यशस्वी हों। उसी परम ब्रह्म की शक्ति को सूर्य और पृथिवी भी धारण करते हैं । इति द्वितीयो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः ॥ उषा देवता ॥ छन्दः–१, ५, ८ त्रिष्टुप् । ३ विराट् त्रिष्टुप् । ४, ६, ७, ९, ११ निचृत् त्रिष्टुप्। २ पंक्तिः। १० भुरिक् पंक्तिः॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे परस्परांना उपदेश करून सत्याचे ग्रहण करवितात ते सूर्याप्रमाणे प्रकाशक व भूमीप्रमाणे प्रजेला धारण करणारे असतात. ॥ ११ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O lights of dawn, daughters of the glory of heaven, brilliant, radiating and illuminative as you are, I sing of you as you are, symbol of cosmic yajna, and I pray we may be blest with the glory of divinity, splendour of humanity and the honour and wealth of excellence which the heaven and earth and the daughters of heaven and earth may bear and bring for us.$(Swami Dayananda extends the meaning of the dawns from ‘daughters of heaven’ to heavenly daughters of humanity’, enlightened women, makers of happy homes. A happy home is a very heaven, he says.)
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of men are mentioned.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! conveyor or performer of Yajna, I tell you what noble women say to you. They are like the resplendent daughters of light-the dawns. May the earth and power (energy) uphold that (message), so that we may earn (be the possessors of) good reputation or glory among men.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those who make people to accept truth by preaching one and all, become illuminators like the sun and upholders of the people like the earth.
Foot Notes
Those who make people to accept truth by preaching one and all, become illuminators like the sun and upholders of the people like the earth.
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