ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 55/ मन्त्र 5
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
आ पर्व॑तस्य म॒रुता॒मवां॑सि दे॒वस्य॑ त्रा॒तुर॑व्रि॒ भग॑स्य। पात्पति॒र्जन्या॒दंह॑सो नो मि॒त्रो मि॒त्रिया॑दु॒त न॑ उरुष्येत् ॥५॥
स्वर सहित पद पाठआ । पर्व॑तस्य । म॒रुता॑म् । अवां॑सि । दे॒वस्य॑ । त्रा॒तुः । अ॒व्रि॒ । भग॑स्य । पात् । पतिः॑ । जन्या॑त् । अंह॑सः । नः॒ । मि॒त्रः । मि॒त्रिया॑त् । उ॒त । नः॒ । उ॒रु॒ष्ये॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ पर्वतस्य मरुतामवांसि देवस्य त्रातुरव्रि भगस्य। पात्पतिर्जन्यादंहसो नो मित्रो मित्रियादुत न उरुष्येत् ॥५॥
स्वर रहित पद पाठआ। पर्वतस्य। मरुताम्। अवांसि। देवस्य। त्रातुः। अव्रि। भगस्य। पात्। पतिः। जन्यात्। अंहसः। नः। मित्रः। मित्रियात्। उत। नः। उरुष्येत् ॥५॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 55; मन्त्र » 5
अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 6; मन्त्र » 5
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अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 6; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे विद्वन् ! यथाऽहं पर्वतस्य देवस्य भगस्य त्रातुर्मरुतामवांस्यहमाऽऽव्रि तथा पतिर्भवान्नो जन्यादंहसः पान्न उत मित्रो मित्रियादुरुष्येत् ॥५॥
पदार्थः
(आ) (पर्वतस्य) मेघस्य (मरुताम्) मनुष्याणाम् (अवांसि) बहुविधानि रक्षणानि (देवस्य) दिव्यसुखप्रापकस्य (त्रातुः) रक्षकस्य (अव्रि) आवृणोमि (भगस्य) ऐश्वर्य्यस्य (पात्) रक्षतु (पतिः) स्वामी (जन्यात्) उत्पत्स्यमानात् (अंहसः) अपराधात् (नः) अस्मान् (मित्रः) सखा (मित्रियात्) मित्रात् (उत) (नः) अस्मान् (उरुष्येत्) सेवेत ॥५॥
भावार्थः
ये मनुष्याः सत्यं ज्ञातुमाचरितुमिच्छेयुस्ते सत्यं ज्ञानं प्राप्य सत्याचारिणो भवेयुः ॥५॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे विद्वन् ! जैसे मैं (पर्वतस्य) मेघ के (देवस्य) उत्तम सुख प्राप्त करानेवाले के (भगस्य) ऐश्वर्य्य के (त्रातुः) रक्षा करनेवाले और (मरुताम्) मनुष्यों के (अवांसि) अनेक प्रकार रक्षणों का मैं (आ, अव्रि) स्वीकार करता हूँ, वैसे (पतिः) स्वामी आप (नः) हम लोगों की (जन्यात्) उत्पन्न होनेवाले (अंहसः) अपराध से (पात्) रक्षा करो और (नः) हम लोगों को (उत) तो (मित्रः) मित्र (मित्रियात्) मित्र से (उरुष्येत्) सेवन करे ॥५॥
भावार्थ
जो मनुष्य सत्य के जानने और उसके आचरण करने की इच्छा करें, वे सत्य ज्ञान को प्राप्त होकर सत्य के आचरण करनेवाले होवें ॥५॥
विषय
स्वस्थ निष्पापजीवन
पदार्थ
[१] मैं (पर्वतस्य) = शरीरस्थ इस मेरु पर्वत के [रीढ़ की हड्डी के], (मरुताम् देवस्य) = उस रक्षक प्रभु के (भगस्य) = ऐश्वर्य की देवी के (अवांसि) = रक्षणों का (आ अव्रि) = सर्वथा वरण करता हूँ। मेरुदण्ड को सदा सीधा रखना स्वास्थ्य के लिए नितान्त आवश्यक है। प्राणसाधना मन की निर्मलता का साधन बनती है। रक्षक प्रभु का स्मरण हमें शक्ति सम्पन्न व आत्मविश्वासवाला बनाता है। ऐश्वर्य संसारयात्रा की पूर्ति का साधन बनता है। एवं ये सब वस्तुएँ मिलकर हमारा पूर्ण रक्षण करती हैं। [२] (पतिः) = [यादसांपति: अप्पति:- वरुण] वह रक्षक वरुण (नः) = हमें (जन्यात्) = लोगों के विषय में हो जानेवाले (अहसः) = पाप से (पात्) = रक्षित करे। हम इस प्रकार व्रतों के बन्धन में अपने को बाँधे और द्वेष से अपने को दूर करें कि हम लोगों के लिए कष्ट का कारण न बनें। (उत) = और (मित्रः) = वह पापों से बचानेवाला प्रभु (मित्रियात्) = मित्रों के विषय में हो जानेवाले पाप से (न:) = हमें (उरुष्येत्) = बचाए ।
भावार्थ
भावार्थ- हम रीढ़ की हड्डी को सीधा रखें, प्राणायाम करें, प्रभुस्मरण करें, ऐश्वर्य का सम्पादन करें, लोगों व मित्रों के विषय में पाप करने से बचें।
विषय
स्त्री को सब पापों से बचाने वाला उसका पति है । स्त्री उसके शरण की सदा प्रार्थना करे ।
भावार्थ
मैं वधू (मरुताम्) वायुओं के तुल्य बलवान् विद्वान् पुरुषों के बीच (पर्वतस्य) मेघ के समान पालक, सुखों के देने वाले, एवं स्थिर (देवस्य) कामना करने करने वाले, तेजस्वी, सुखदाता (भगस्य) उत्तम (ऐश्वर्यवान् (त्रातुः) दुःखों से पालन करने वाले तुझ पुरुष के (अवांसि) रक्षाओं, प्रिय पदार्थों और अन्नों को मैं (अव्रि) वरण करती हूं । वह (मित्रः) मित्र के तुल्य अति स्नेही (पतिः) पति, पालक (नः) हमें (जन्यात्) आगे होने वाले या जन समूह में होने वाले (अंहसः) पाप और दुःख से (पात्) बचावे । (उत) और वह (मित्रियात्) मित्र जनों से होने वाले दुराचारादि अकर्म से भी (उरुष्येत्) रक्षा करे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः॥ विश्वेदेवा देवता॥ छन्दः– १ त्रिष्टुप् । २, ४ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ५ भुरिक् पंक्तिः। ६,७ स्वराट् पंक्तिः। ८,९ विराड् गायत्री। १० गायत्री॥
मराठी (1)
भावार्थ
जी माणसे सत्य जाणण्याची इच्छा करतात व त्याप्रमाणे आचरण करण्याची इच्छा करतात, ती सत्य ज्ञान प्राप्त करून सत्याचरण करणारी असतात. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
I pray for protections of the cloud, the mountain and the winds and warriors, and for the gifts of Bhaga, generous giver of power and prosperity, the lord protector and promoter of all. May the ruler of the land save us from sin and crime that might arise, and Mitra, friends, like real friends, protect and advance us in life.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of enlightened persons are stated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned person ! as I seek the protection of the cloud (rains) of wealth giver of divine happiness, of a protector and of noble hero, in the same manner, save us from the future sin or crime. Let a friend save us from an offence committed against a friend.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those men who desire to know and observe the truth in practical life, should be of truthful conduct, having acquired true knowledge.
Foot Notes
(पर्वतस्य) मेघस्य । पर्वत इति मेघनाम (NG 1, 10)। = Of the cloud. ( उरुष्येत् ) सेवेत । उरुष्यतिः रक्षाकर्मा (NKT 5, 4, 23 ) = Serve, here save. (मरुताम् ) मनुष्याणाम् । = Of thoughtful good men.
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