ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 7/ मन्त्र 10
स॒द्यो जा॒तस्य॒ ददृ॑शान॒मोजो॒ यद॑स्य॒ वातो॑ अनु॒वाति॑ शो॒चिः। वृ॒णक्ति॑ ति॒ग्माम॑त॒सेषु॑ जि॒ह्वां स्थि॒रा चि॒दन्ना॑ दयते॒ वि जम्भैः॑ ॥१०॥
स्वर सहित पद पाठस॒द्यः । जा॒तस्य॑ । ददृ॑शानम् । ओजः॑ । यत् । अ॒स्य॒ । वातः॑ । अ॒नु॒ऽवाति॑ । शो॒चिः । वृ॒णक्ति॑ । ति॒ग्माम् । अ॒त॒सेषु॑ । जि॒ह्वाम् । स्थि॒रा । चि॒त् । अन्ना॑ । द॒य॒ते॒ । वि । जम्भैः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सद्यो जातस्य ददृशानमोजो यदस्य वातो अनुवाति शोचिः। वृणक्ति तिग्मामतसेषु जिह्वां स्थिरा चिदन्ना दयते वि जम्भैः ॥१०॥
स्वर रहित पद पाठसद्यः। जातस्य। ददृशानम्। ओजः। यत्। अस्य। वातः। अनुऽवाति। शोचिः। वृणक्ति। तिग्माम्। अतसेषु। जिह्वाम्। स्थिरा। चित्। अन्ना। दयते। वि। जम्भैः॥१०॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 7; मन्त्र » 10
अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 7; मन्त्र » 5
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अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 7; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे विद्वांसो ! अस्य सद्यो जातस्य यद्ददृशानमोजो वातोऽनुवाति यदस्य शोचिरतसेषु तिग्मां जिह्वां वृणक्ति यो विजम्भैश्चित्स्थिरा अन्ना दयते तं विद्युतमग्निं विज्ञाय संप्रयुङ्ध्वम् ॥१०॥
पदार्थः
(सद्यः) क्षिप्रम् (जातस्य) उत्पन्नस्य (ददृशानम्) द्रष्टव्यम् (ओजः) वेगवद्बलम् (यत्) (अस्य) (वातः) वायुः (अनुवाति) (शोचिः) प्रदीप्तम् (वृणक्ति) सम्भजति (तिग्माम्) तीव्रां गतिम् (अतसेषु) वृक्षादिषु (जिह्वाम्) वाचम् (स्थिरा) स्थिराणि (चित्) अपि (अन्ना) अत्तव्यानि (दयते) ददाति (वि) (जम्भैः) गत्याक्षेपैः ॥१०॥
भावार्थः
यदि शिल्पिनः पदार्थेभ्यो विद्युतं जनयेयुस्तर्हि सा दर्शनीयं पराक्रमं वेगं च दर्शयित्वा विविधान्यैश्वर्य्याणि ददाति ॥१०॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे विद्वान् जनो ! (अस्य) इस (सद्यः) शीघ्र (जातस्य) उत्पन्न हुए विद्युत् रूप अग्निप्रताप के (यत्) जिस (ददृशानम्) देखने योग्य (ओजः) वेगयुक्त बल के (वातः) वायु (अनुवाति) पीछे चलता है, जो इस साधारण अग्नि को (शोचिः) प्रज्वलित लपट को (अतसेषु) वृक्ष आदिकों में (तिग्माम्) तीव्र गति को और (जिह्वाम्) वाणी को (वृणक्ति) सेवन करता है और जो (वि, जम्भैः) गमनों के आक्षेपों से (चित्) भी (स्थिरा) दृढ़ (अन्ना) भोजन करने योग्य पदार्थों को (दयते) देता है, उस बिजुली रूप अग्नि को जान के कार्यों में प्रयुक्त करो ॥१०॥
भावार्थ
जो शिल्पीजन पदार्थों से बिजुली को उत्पन्न करें तो वह बिजुली देखने योग्य पराक्रम और वेग को दिखा के अनेक प्रकार के ऐश्वर्य्यों को देती है ॥१०॥
विषय
सात्विक आहार
पदार्थ
[१] (सद्यः जातस्य) = अभी अभी प्रादुर्भूत हुए हुए प्रभु का (ओजः) = ओज [तेज] (ददृशानम्) = दर्शनीय होता है। हृदय में प्रभु का आभास होते ही भक्त ओजस्विता का अनुभव करता है। (अस्य शोचिः अनु) = इसकी दीप्ति के अनुसार (यत्) = जब (वातः) = वाति प्राण गति करता है तो (अतसेषु) = [souls] आत्माओं में (तिग्मां जिह्वाम्) = शत्रुओं के लिये अत्यन्त तीक्ष्ण इस ज्ञानाग्नि की ज्वाला रूप जिह्वा को (वृणक्ति) = [gives] देता है। प्रभु अपने उपासक को वह ज्ञान-ज्वाला प्राप्त कराते हैं, जिसमें वह सब शत्रुओं का दहन कर पाता है। [२] उस समय यह उपासक (जम्भैः) = अपने दाँतों से (स्थिरा चित् अन्ना) = स्थिर ही अन्नों को, सात्विक अन्नों को 'रस्याः स्निग्धाः स्थिरा हृषा: आहारा: सात्विक प्रिया:' (विदयेत) = [accept] ग्रहण करता है। इस सात्विक अन्न के सेवन से उसकी सत्व शुद्धि होकर, उसका ज्ञान बढ़ता है। इस ज्ञानाग्नि में उनके सब शत्रुओं का दहन हो जाता है। 'काम-क्रोध-लोभ' के विनाश का यही मार्ग है।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु का आभास होते ही तीव्र ज्ञान ज्योति प्राप्त होती है। इसमें उसके सब शत्रुओं का दहन हो जाता है। इसके लिये वह सात्विक ही अन्नों का सेवन करता है।
विषय
अग्नि, विद्वान्, दूतवत् प्रभु ।
भावार्थ
जिस प्रकार (अस्य शोचिः) इस अग्नि के लपट के अनुकूल (वातः अनुवाति) वायु चलता है, और (सद्यः जातस्य ओजः दद्दशानं भवति) उत्पन्न होते ही उसका तेज दिखाई देता है वह (अतसेषु तिग्मां जिह्वां वृणक्ति) काष्ठों के बीच तीक्ष्ण लपट को पहुंचाता है और (अन्ना चित् जम्भैः स्थिरा वि दयते) दांतों से अन्न के समान बड़े वृक्षों को भी विनष्ट करती है उसी प्रकार (अस्य) इस तेजस्वी राजा की (शोचिः) तेज को (वातः) वायु के समान बलवान् (यत्) जब वीर जन (अनुवाति) अनुगमन करता है और (सद्यः जातस्य) तुरन्त राजा रूप से प्रकट होते ही उसका (ओजः) बल पराक्रम (ददृशानम्) सबको दिखने लगता है। वह (अतसेषु) वेग से जाने वाले भृत्यों वा सैनिकों के बीच में (तिग्मां) तीक्ष्ण (जिह्वां) वाणी को (वृणक्ति) प्रदान करता है, (जम्भैः अन्ना चित्) दाढ़ों से अन्नों के समान, (जम्भैः) अपने हिंसाकारी शस्त्रास्त्र साधनों से (स्थिरा) स्थिर शत्रुओं को भी (अन्न चित्) भोज्य अन्नों के समान (वि दयते) विविध प्रकारों से खण्डित करता है । (३) विद्युत् के पक्ष में—उसकी चमक के पीछे वायु बहता, उसकी चमक तुरन्त दीखती है, वह (अतसेषु ) गतिमान् मेघों या वायुओं में अपनी तीखी जीभ फेंकती है, स्थिर, दृढ़ पर्वतों को भी तोड़ डालती है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः—१ भुरिक् त्रिष्टुप। ७, १०, ११ त्रिष्टु प्। ८, ९ निचृत् त्रिष्टुप् । २ स्वराडुष्णिक् । ३ निचृदनुष्टुप, ४, ६ अनुष्टुप । ५ विराडनुष्टुप्॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जेव्हा जे कारागीर पदार्थांतून विद्युत उत्पन्न करतात तेव्हा ती विद्युत दर्शनीय असून पराक्रम व वेग दाखवून अनेक प्रकारचे ऐश्वर्य देते. ॥ १० ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
The light and lustre of the flames of this Agni instantly risen becomes worth seeing when the wind fans its flames and spreads the blaze into the forests and uproots strong and firm trees and, with the flames as jaws it crushes and devours the strong as food. And when with the breeze and vital heat it fans the vegetation with its currents, it protects, matures and provides the foods for life.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The subject of Agni still moves.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned persons ! the strength of the speedily generated Agni is open to maked eyes. When the wind blows enormously it spreads its blazing flames amongst the trees. You should know the attributes of this Agni (energy) and also of the electricity. With its movements, it gives various kinds of good food. You should then utilize these forms of Agni for various purposes.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
If artists generate energy from various things articles, it shows great speed and strength and gives wealth and prosperity in various forms.
Foot Notes
(अतसेषु ) वृक्षादिषु | = In trees and other planets and articles. (दयते) ददाति । = Gives. (जम्भै:) गत्याक्षेपैः । = With movements.
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