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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 15 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 15/ मन्त्र 3
    ऋषिः - धरुण आङ्गिरसः देवता - अग्निः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अं॒हो॒युव॑स्त॒न्व॑स्तन्वते॒ वि वयो॑ म॒हद्दु॒ष्टरं॑ पू॒र्व्याय॑। स सं॒वतो॒ नव॑जातस्तुतुर्यात्सिं॒हं न क्रु॒द्धम॒भितः॒ परि॑ ष्ठुः ॥३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अं॒हः॒ऽयुवः॑ । त॒न्वः॑ । त॒न्व॒ते॒ । वि । वयः॑ । म॒हत् । दु॒स्तर॑म् । पू॒र्व्याय॑ । सः । स॒म्ऽवतः॑ । नव॑ऽजातः । तु॒तु॒र्या॒त् । सिं॒हम् । न । क्रु॒द्धम् । अ॒भितः॑ । परि॑ । स्थुः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अंहोयुवस्तन्वस्तन्वते वि वयो महद्दुष्टरं पूर्व्याय। स संवतो नवजातस्तुतुर्यात्सिंहं न क्रुद्धमभितः परि ष्ठुः ॥३॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अंहःऽयुवः। तन्वः। तन्वते। वि। वयः। महत्। दुस्तरम्। पूर्व्याय। सः। सम्ऽवतः। नवऽजातः। तुतुर्यात्। सिंहम्। न। क्रुद्धम्। अभितः। परि। स्थुः ॥३॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 15; मन्त्र » 3
    अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 7; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! यस्यांहोयुवस्तन्वस्तन्वते महद्दुष्टरं वयो वि तन्वते सुखं परि ष्ठुः स तत्सङ्गी संवतो नवजातः पूर्व्याय क्रुद्धं सिंहं नाऽभितस्तुतुर्यात् ॥३॥

    पदार्थः

    (अंहोयुवः) येंऽहोऽपराधं युवन्ति पृथक्कुर्वन्ति ते (तन्वः) शरीरस्य मध्ये (तन्वते) विस्तृणन्ति (वि) (वयः) जीवनम् (महत्) (दुष्टरम्) दुःखेन तरितुं योग्यम् (पूर्व्याय) पूर्वेषु भवाय (सः) (संवतः) संसेवमानः (नवजातः) नवीनाभ्यासेन जातो विद्यावान् (तुतुर्यात्) हिंस्यात् (सिंहम्) (न) इव (क्रुद्धम्) (अभितः) सर्वतः (परि) सर्वतः (स्थुः) तिष्ठन्ति ॥३॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः । ये मनुष्याः पापं दूरीकृत्य धर्ममाचरन्ति ते शरीरात्मसुखं जीवनं च वर्धयन्ति। यथा क्रुद्धः सिंहः प्राप्तान् प्राणिनो हिनस्ति तथा प्राप्तान् दुर्गुणान् सर्वे घ्नन्तु ॥३॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जिसके सम्बन्ध में (अंहोयुवः) जो अपराध को दूर करते वे (तन्वः) शरीर के मध्य में (तन्वते) विस्तार को प्राप्त होते और (महत्) बड़े (दुष्टरम्) दुःख से पार होने योग्य (वयः) जीवन को (वि) विशेष करके विस्तृत करते और सुख के (परि) सब ओर (स्थुः) स्थित होते हैं (सः) वह उनका सङ्गी (संवतः) उत्तम प्रकार सेवन किया गया (नवजातः) नवीन अभ्यास से उत्पन्न हुई विद्या जिसकी ऐसा पुरुष (पूर्व्याय) पूर्वज के लिये (क्रुद्धम्) क्रोधयुक्त (सिंहम्) सिंह के (न) सदृश अन्य को (अभितः) सब प्रकार से (तुतुर्यात्) नाश करे ॥३॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो मनुष्य पाप को दूर करके धर्म का आचरण करते हैं, वे शरीर और आत्मा के सुख और जीवन की वृद्धि कराते हैं। और जैसे क्रुद्ध सिंह प्राप्त हुए प्राणियों का नाश करता है, वैसे प्राप्त हुए दुर्गुणों का सब जन नाश करें ॥३॥

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    विषय

    उसके प्रति अधीनों के कर्त्तव्य । उसके मातृवत् कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    भा०- ( अंहः- युवः ) पापों को दूर करने वाले वीर पुरुष ( पूर्व्याय) अपने पूर्व, मुख्य पद के योग्य पुरुष के हितार्थ ( तवः ) अपने शरीर के ( महत् ) बड़े भारी ( दुः-तरम् ) दुस्तर, अजेय ( वयः ) बल को ( वितन्वते) विविध उपायों से प्राप्त करें । (सः) वह अग्रणी नायक पुरुष ( नव-जातः ) नया ही प्रसिद्ध, नवाभिषिक्त होकर ( संवतः ) समवाय बनाकर आने वाले शत्रुओं को ( तुतुर्यात् ) विनाश करे । अपने पक्ष के लोग ( सिंहं क्रुद्धं न ) क्रुद्ध सिंह के तुल्य पराक्रमी पुरुष के ( परि स्थुः ) चारों ओर खड़े रहें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वरुण आङ्गिरस ऋषिः ।। अग्निर्देवता ॥ छन्दः–१, ५ स्वराट् पंक्तिः ॥ २, ४ त्रिष्टुप् । ३ विराटं त्रिष्टुप् ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    पाप से पृथक्

    पदार्थ

    [१] (पूर्व्याय) = उस सृष्टि के पूर्व होनेवाले, कभी न बननेवाले, सदा वर्तमान प्रभु की प्राप्ति के लिये (अंहोयुवः) = पापों से अपने को पृथक् करनेवाले लोग (तन्वः) = शरीर के (महत्) = महान् (दुष्टरम्) = शत्रुओं से (अजेय वयः) = [strength] शक्ति को (वितन्वते) = विस्तृत करते हैं। शक्ति प्राप्ति के द्वारा ही प्रभु की प्राप्ति होती है 'नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः'। पापों में फँस जाने से ही शक्ति का ह्रास होता है। पापवृत्ति को अपने से दूर करने से शक्ति का संग्रह होता है और तभी प्रभु की प्राप्ति होती है। [२] (सः) = वह प्रभु को प्राप्त होनेवाला व्यक्ति (नवजात:) = नवीन अथवा स्तुत्य जीवनवाला बना हुआ (संवतः) = संगत शत्रुओं को, समकाम बनाकर आनेवाले काम-क्रोध आदि शत्रुओं को (तुतुर्यात्) = हिंसित करता है । ये शत्रु इसको (परि) = [वर्जयित्वा] छोड़कर इस प्रकार दूर (स्थुः) = स्थित होते हैं, (न) = जैसे कि (क्रुद्धं सिहं अभितः) = क्रुद्ध शेर के चारों ओर दूर भागकर मृग स्थित होते हैं। शेर से भयभीत होकर मृग दूर चले जाते हैं, इसी प्रकार प्रभु प्राप्त व्यक्ति से वासनाएं दूर भाग जाती हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु प्राप्ति के लिये निष्पाप बनकर शक्ति का संग्रह करना आवश्यक है। इस प्रभु प्राप्त व्यक्ति से वासनाएँ दूर भाग जाती हैं।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जी माणसे पापाचा त्याग करून धर्माचे आचरण करतात ती शरीर व आत्म्याचे सुख व जीवन वृद्धिंगत करवितात व जसा क्रुद्ध सिंह पकडलेल्या प्राण्यांचा नाश करतो तसे प्राप्त दुर्गुणांचा सर्व लोकांनी नाश करावा. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Those who eliminate sin and perplexity grow inwardly in the self and offer incomparable gifts of austerities and meditation for the eternal power, Agni within. And he, the lordly power newly arisen in the soul, would, like a passionate lion, destroy the hostile powers prowling around.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes of the enlightened persons are mentioned.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men ! if a person the righteous men separating all sins in the body extend great and rare new life and then remain happy. That men living in their company becomes highly learned with new practice and destroys all evils as an angry lion destroys the animals that approach him.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    There is simile in the mantra. Those men who keep themselves away from all sins and observe Dharma (righteousness), augment their physical and spiritual happiness and the span of life. As an angry lion slays the animals that come near him, so men should destroy all evils or vices.

    Foot Notes

    (अंहोयुव:) येहोपराधं युवन्ति पृथक्कुर्वन्ति ते । यु मिश्रणामिश्रणयो: (अदा) अन्न अमिश्रणार्थः अमिश्रणम् पृथक् करणम् । = Those who remove or separate all sins. (स: संवतः) ससेवमानः । सम = वन संभक्तौ (भ्वा० ) = Serving. (तुतुर्यात् ) हिस्यात् तूरी-गतिस्वरण हिंसनयो: (दिवा) अत्रहिंसनार्थः । = May kill.

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