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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 3 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 3/ मन्त्र 2
    ऋषिः - वसुश्रुत आत्रेयः देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    त्वम॑र्य॒मा भ॑वसि॒ यत्क॒नीनां॒ नाम॑ स्वधाव॒न्गुह्यं॑ बिभर्षि। अ॒ञ्जन्ति॑ मि॒त्रं सुधि॑तं॒ न गोभि॒र्यद्दम्प॑ती॒ सम॑नसा कृ॒णोषि॑ ॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । अ॒र्य॒मा । भ॒व॒सि॒ । यत् । क॒नीना॑म् । नाम॑ । स्वधाऽव॑न् । गुह्य॑म् । बि॒भ॒र्षि॒ । अ॒ञ्जन्ति॑ । मि॒त्रम् । सुऽधि॑तम् । न । गोभिः॑ । यत् । दम्प॑ती॒ इति॒ दम्ऽप॑ती । सऽम॑नसा । कृ॒णोषि॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वमर्यमा भवसि यत्कनीनां नाम स्वधावन्गुह्यं बिभर्षि। अञ्जन्ति मित्रं सुधितं न गोभिर्यद्दम्पती समनसा कृणोषि ॥२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम्। अर्यमा। भवसि। यत्। कनीनाम्। नाम। स्वधाऽवन्। गुह्यम्। बिभर्षि। अञ्जन्ति। मित्रम्। सुऽधितम्। न। गोभिः। यत्। दम्पती इति दम्ऽपती। सऽमनसा। कृणोषि ॥२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
    अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 16; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे स्वधावन् राजन् ! यत् त्वं कनीनामर्यमा भवसि गुह्यं नाम बिभर्षि यद्दम्पती समनसा कृणोषि तं त्वां विश्वे देवा गोभिः सुधितं मित्रं नाञ्जन्ति ॥२॥

    पदार्थः

    (त्वम्) (अर्यमा) न्यायाधीशः (भवसि) (यत्) यस्मात् (कनीनाम्) कामयमानानाम् (नाम) (स्वधावन्) प्रशस्तान्नयुक्त (गुह्यम्) रहस्यम् (बिभर्षि) (अञ्जन्ति) व्यक्तीकुर्वन्ति (मित्रम्) सखायम् (सुधितम्) सुष्ठुप्रसन्नम् (न) इव (गोभिः) वागादिभिः (यत्) यः (दम्पती) विवाहितौ स्त्रीपुरुषौ (समनसा) समानमनस्कौ दृढप्रीती (कृणोषि) ॥२॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः । स एव राजा श्रेष्ठोऽस्ति यः प्रजानां यथार्थं न्यायं विधत्ते यथा मित्रं मित्रं प्रीणाति तथैव राजा प्रजाः प्रीणीत ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (स्वधावन्) अच्छे अन्न से युक्त राजन् ! (यत्) जिससे (त्वम्) आप (कनीनाम्) कामना करनेवालों के (अर्यमा) न्यायाधीश (भवसि) होते हो और (गुह्यम्) गुप्त (नाम) नाम को (बिभर्षि) धारण करते हो और (यत्) जो (दम्पती) विवाहित स्त्री पुरुषों को (समनसा) तुल्य मन और दृढ़ प्रीतियुक्त (कृणोषि) करते हो उन आप को सम्पूर्ण विद्वान् जन (गोभिः) वाणी आदि पदार्थों से (सुधितम्) सुन्दर प्रसन्न (मित्रम्) मित्र के (न) सदृश (अञ्जन्ति) प्रकट करते हैं ॥२॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। वही राजा श्रेष्ठ है, जो प्रजाओं का यथार्थ न्याय करता है और जैसे मित्र मित्र को प्रसन्न करता है, वैसे ही राजा प्रजाओं को प्रसन्न करे ॥२॥

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    विषय

    कन्या के पितावत् राजा के कर्त्तव्य

    भावार्थ

    भा०—हे (अग्ने) तेजस्विन्! राजन् ! जिस प्रकार अग्नि (कनीनां अर्यमा ) कान्तियुक्त सुन्दर आभूषण वस्त्रादि से युक्त, सौभाग्यवती एवं पति की कामना करने वाली कन्याओं का 'अर्यमा' अर्थात् स्वामी के तुल्य न्यायानुसार योग्य पात्र में देने वाला होता है उसी प्रकार हे राजन् ! तू भी ( कनीनां ) तेजस्विनी सेनाओं और ऐश्वर्य एवं रक्षा चाहने वाली प्रजाओं का ( अर्यमा ) न्यायकारी स्वामी और शत्रुओं का नियन्ता ( भवसि ) होता है । हे ( स्वधावन् ) आत्मशक्ति, और स्व अर्थात् धनादि धारण करने वाली शक्ति के स्वामिन् ! पत्नी के गुप्त भाषणादि को धारण करने में समर्थ पति के तुल्य ही तू स्वयं ( गुह्यं ) बुद्धि और रक्षा के अनुकूल अपने ( नाम ) शत्रु नमाने के बल को भी ( बिभर्षि ) धारण करता है। ( सुधितं ) सुखपूर्वक आसन पर बैठे ( मित्रं ) अर्थात् स्नेहयुक्त पुरुष के प्रति कन्या के बन्धुजन जिस प्रकार ( गोभिः न ) गौके दुग्ध रस मधु आदि द्वारा (अञ्जन्ति) अपना आदर भाव प्रकट करते हैं और जिस प्रकार (सुधितं ) अच्छी प्रकार कुण्ड में आहुति किये अग्नि को ( गोभिः अञ्जन्ति ) गो-दुग्ध के विकार रूप घृतों से अधिक प्रदीप्त करते हैं उसी प्रकार ( सुधितन् ) उत्तम रीति से स्थापित (मित्र) सर्वस्नेही, सबको मृत्यु से बचाने वाले राजा को ( गोभिः ) गोदुग्ध दधि मधु आदि वा, उत्तम वाणियों, गवादिपशु सम्पदाओं और भूमियों से ( अञ्जन्ति ) आदर सत्कार युक्त करें । ( यत् ) क्योंकि तू ही ( दम्पती ) पति और पत्नी को ( समनसा) आवसथ्य अग्नि के तुल्य एक मन वाला ( कृणोषि ) करता है । यदि राजा की व्यवस्था न हो तो पति-पत्नी सम्बन्ध भी स्थिर न रह सके अन्यत्र भी वेद मन्त्रों में -- सं जास्पत्यं सुयमम् आ कृणुष्व । यजु० ॥ हे राजन् ! पति-पत्नी के सम्बन्ध को सुदृढ़ कर ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसुश्रुत आत्रेय ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः – १ निचृत्पंक्तिः। ११ भुरिक् पंक्ति: । २, ३, ५, ६, १२ निचृत्-त्रिष्टुप् । ४, १० त्रिष्टुप् । ६ स्वराट् त्रिष्टुप् ७, ८ विराट् त्रिष्टुप् ॥ द्वादशचं सूक्तम् ॥

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    विषय

    समनसा दम्पती

    पदार्थ

    [१] हे प्रभो ! (त्वम्) = आप (यत्) = जब (कनीनाम्) = ज्ञानदीप्तियों के (अर्यमा) = देनेवाले [अर्यमेति तमाहुर्यो ददाति] (भवसि) = होते हैं, तो हे (स्वधावन्) = आत्मधारण शक्तिवाले प्रभो! (गुह्यम्) = हृदयरूप गुहा में होनेवाली (नाम) = नम्रता की भावना को (बिभर्षि) = पुष्ट करते हैं। प्रभु अपने उपासकों को दीप्ति व नम्रता धारण कराते हैं। [२] (यत्) = जब घरों में पति-पत्नी उस (मित्रम्) = सब मृत्यु व रोगों से बचानेवाले (सुधितम्) = हृदयों में उत्तमता से स्थापित (न) = [इव] के समान प्रभु को (गोभिः) = ज्ञान की वाणियों के द्वारा (अञ्जन्ति) = [अञ्ज् गतौ] जाते हैं, उस प्रभु को हृदय में देखने का प्रयत्न करते हैं, तो हे प्रभो! आप (दम्पती) = उन पति-पत्नी को (समनसा कृणोषि) = समान मनवाला, एक हृदयवाला करते हैं। इन्हें आप सहृदयता व सामनस्य प्राप्त कराते हैं यदि घरों में पति-पत्नी स्वाध्याय व प्रभु के ध्यान की वृत्तिवाले बनते हैं तो समान मनस्क होते हैं, परस्पर सच्चे प्रेमवाले । सिनेमा व क्लवों में जाकर परस्पर विघटित मनवाले हो जाते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु ज्ञानदीप्ति व नम्रता को देते हैं। प्रभु का ध्यान व स्वाध्याय पति-पत्नी को समानमनस्क बनाता है ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जो प्रजेला यथार्थ न्याय देतो तोच राजा श्रेष्ठ असतो. जसा मित्र मित्राला प्रसन्न करतो तसेच राजाने प्रजेला प्रसन्न करावे. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, lord of energy and living vitality, when you bear the mysterious name of youth among men and women, you become Aryama and assume the role of a judge with discrimination. When you join man and woman in wedlock, with equal love of mind and heart, they celebrate you with holy words and hospitality with cow’s milk and butter.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The subject of ruler is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O king, possessor of good food grains ! you are dispenser of justice of those who desire (justice) and bear a secret name, make the couples of unified mind (loving each other). Therefore all enlightened persons manifest you with good words like they do to a delighted friend.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    That king only is good who is just to his subjects. As a friend gladdens his friend, so should a king do towards his subjects.

    Translator's Notes

    By गृह्यनाम or secret name may be meant appellations like न्यायप्रिय (just) दयालु (kind) प्रजावत्सल ( beloved of the people) etc. which the people use for a good ruler.

    Foot Notes

    (अर्यमा ) न्यायाधीश: । = Dispenser of justice. (कनीनाम् ) कामयमानानाम् । कनी -दीप्तिकान्तिगतिषु (भ्वा० ) कान्ति: कामना = Of the people desiring (justice). (अञ्चन्ति ) व्यक्तिकुर्वन्ति । । अजू- व्यक्ति प्रक्षण कान्ति गतिषु (भ्वा० ) अत्र व्यक्तिकरणार्थं । = Manifest.

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