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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 41 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 41/ मन्त्र 18
    ऋषिः - अत्रिः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    तां वो॑ देवाः सुम॒तिमू॒र्जय॑न्ती॒मिष॑मश्याम वसवः॒ शसा॒ गोः। सा नः॑ सु॒दानु॑र्मृ॒ळय॑न्ती दे॒वी प्रति॒ द्रव॑न्ती सुवि॒ताय॑ गम्याः ॥१८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ताम् । वः॒ । दे॒वाः॒ । सु॒ऽम॒तिम् । ऊ॒र्जय॑न्तीम् । इष॑म् । अ॒श्या॒म॒ । व॒स॒वः॒ । शसा॑ । गोः । सा । नः॒ । सु॒ऽदानुः॑ । मृ॒ळय॑न्ती । दे॒वी । प्रति॑ । द्रव॑न्ती । सु॒वि॒ताय॑ । ग॒म्याः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तां वो देवाः सुमतिमूर्जयन्तीमिषमश्याम वसवः शसा गोः। सा नः सुदानुर्मृळयन्ती देवी प्रति द्रवन्ती सुविताय गम्याः ॥१८॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ताम्। वः। देवाः। सुऽमतिम्। ऊर्जयन्तीम्। इषम्। अश्याम। वसवः। शसा। गोः। सा। नः। सुऽदानुः। मृळयन्ती। देवी। प्रति। द्रवन्ती। सुविताय। गम्याः ॥१८॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 41; मन्त्र » 18
    अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 16; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे देवा या सुदानुर्मृळयन्ती प्रति द्रवन्ती देवी सुविताय वो याति तामूर्जयन्तीं सुमतिमिषं च वयमश्याम। हे वसवो ! या गोः शसा सह वर्त्तते सा नोऽस्मान् प्राप्नोतु। हे विदुषि स्त्रि ! त्वमेतान् प्रति गम्याः ॥१८॥

    पदार्थः

    (ताम्) (वः) युष्मान् (देवाः) धार्मिका विद्वांसः (सुमतिम्) श्रेष्ठां प्रज्ञाम् (ऊर्जयन्तीम्) पराक्रमादिदानेनोन्नयन्तीम् (इषम्) अन्नम् (अश्याम) भुञ्जीमहि (वसवः) शुभगुणेषु कृतनिवासाः (शसा) प्रशंसया (गोः) पृथिव्या मध्ये (सा) (नः) अस्मान् (सुदानुः) उत्तमदाना (मृळयन्ती) सुखयन्ती (देवी) विदुषी (प्रति) (द्रवन्ती) जानन्ती गच्छन्ती वा (सुविताय) ऐश्वर्य्याय (गम्याः) प्राप्नुयाः ॥१८॥

    भावार्थः

    मनुष्याः सदा सुसंस्कृतं बुद्धिबलवर्धकमन्नं सदाऽदन्तु येन प्रज्ञा कीर्त्तिर्धनं च वर्धेत ॥१८॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (देवाः) धार्मिक विद्वान् जनो ! जो (सुदानुः) उत्तम दान से युक्त (मृळयन्ती) सुख देती (प्रति द्रवन्ती) जानती वा चलती हुई (देवी) विद्यायुक्त स्त्री (सुविताय) ऐश्वर्य्य के लिये (वः) आप लोगों को प्राप्त होती है (ताम्) उसको (ऊर्जयन्तीम्) तथा पराक्रम आदि के दान से वृद्धि कराती हुई (सुमतिम्) श्रेष्ठ बुद्धि को और (इषम्) अन्न को हम लोग (अश्याम) भोगें। हे (वसवः) उत्तम गुणों में निवास किये हुए जनो ! जो (गोः) पृथिवी के मध्य में (शसा) प्रशंसा के साथ वर्त्तमान है (सा) वह (नः) हम लोगों को प्राप्त हो। और हे विद्यायुक्त स्त्री ! आप इन जनों के (प्रति) प्रति (गम्याः) प्राप्त हूजिये ॥१८॥

    भावार्थ

    मनुष्य सदा उत्तम प्रकार घृत आदि के संस्कार से युक्त बुद्धि और बल के बढानेवाले अन्न का सदा भोग करें, जिससे बुद्धि यश और धन बढ़े ॥१८॥

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    विषय

    missing

    भावार्थ

    भा०-हे ( देवाः ) विद्वान् पुरुषो ! हे ( वसवः ) राष्ट्र में बसे प्रजाजनों वा प्रजाओं को बसाने वाले अधिकारी पुरुषो ! वा किरणों के तुल्य तेजस्वी विद्वान् पुरुषो ! हम ( गोः शसा ) वाणी के अनुशासन: और पृथ्वी के शासन द्वारा ( ऊर्जयन्तीम् ) बल पराक्रम को बढ़ाने वाली (इपम् ) अन्न और प्रेरणा को और ( सुमतिम् ) उत्तम प्रज्ञा को (अश्याम ) प्राप्त करें, उसका सदुपभोग करें। (सा) वह (देवी) सुख देने वाली,( सुदानुः) उत्तम दानशील प्रज्ञा विदुषी के तुल्य ही (द्रवन्ती ) प्रत्येक को प्राप्त होती हुई (सुविताय ) सुख प्राप्त कराने के लिये (प्रति गम्याः), प्रत्येक को प्राप्त हो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अत्रिर्ऋषिः ॥ विश्वेदेवा देवता ॥ छन्दः — १, २, ६, १५, १८ त्रिष्टुप् ॥ ४, १३ विराट् त्रिष्टुप् । ३, ७, ८, १४, १९ पंक्ति: । ५, ९, १०, ११, १२ भुरिक् पंक्तिः । २० याजुषी पंक्ति: । १६ जगती । १७ निचृज्जगती ॥ विशत्यृर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    सुमति व वेदवाणी की ओर

    पदार्थ

    [१] हे (देवाः) = ज्ञानी पुरुषो! हम (वः) = आपकी (ताम्) = उस (सुमतिम्) = कल्याणीमति को (अश्याम) = प्राप्त करें तथा (वसवः) = हमारे निवास को उत्तम बनानेवाले देवो! (गोः शसा) = इस वेदवाणी के शंसन के साथ प्रतिदिन इसके अध्ययन के साथ (ऊर्जयन्तीम्) = हमारे में बल व प्राणशक्ति का संचार करनेवाली (इषम्) = प्रेरणा को प्राप्त करें [अश्याम] । [२] (सा) = वह वेदवाणीरूप गौ (नः) = हमारे लिये (सुदानुऋः) = अच्छी प्रकार बुराइयों का नाश करनेवाली हो [दाप् लवने], (मृडयन्ती) = यह हमारे जीवनों को सुखी करनेवाली हो (देवी) = यह सब प्रकाशों को प्राप्त करानेवाली वेदवाणी (प्रतिद्रवन्ती) = प्रतिदिन हमारी ओर आती हुई अथवा वासनाओं पर आक्रमण करती हुई (सुविताय) = सुवित के लिये, सदाचरण के लिये, सदा शुभ मार्ग पर चलाने के लिये (गम्या:) = हमें प्राप्त हो ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम देवों की कल्याणी मति को प्राप्त करें। ज्ञान प्राप्ति में प्रवृत्त होकर प्रभु प्रेरणा से बल प्राप्त करें। यह ज्ञानवाणी हमें अशुभ से हटाकर शुभ में प्रवृत्त करे और इस प्रकार हमारे लिये कल्याणकर हो ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसांनी सदैव उत्तम प्रकारे घृत इत्यादीच्या संस्काराने युक्त बुद्धी व बल वाढविणाऱ्या अन्नाचा सदा भोग करावा. ज्यामुळे बुद्धी, यश व धन वाढेल ॥ १८ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O Vasus, divinities of nature and humanity, may we receive that holy intelligence of yours, that energising food, by our praise and prayer in honour of mother earth, nature and the cow, and may that mother power, generous, loving and merciful, O divinities, sages and scholars, the lady overflowing with kindness, move for us in response to us for our good, for our honour and prosperity.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The subject of enlightened persons is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O righteous and learned persons! may we have that mighty learned lady who is a good donor, giver of happiness and who goes to you knowingly for the sake of prosperity. May we get her good intellect that uplifts us by giving vigor and good food? O learned persons! whosoever dwell in good virtues, out of them such a noble lady admired on earth, may come to us. O highly learned lady! go to these persons (for preaching truth).

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should always take well-cooked good food which promotes intellect and strength, so that your intellect, good reputation and wealth may grow more and more.

    Foot Notes

    (वसवः ) शुभगुणेषु कृतनिवासाः । वस निवासे (भ्वा० )। = Always dwelling in good virtues. (ऊर्जयन्तीम् ) पराक्रमादिदानेनोन्नयन्तीम् । ऊर्ज - बलप्राणनयो: । (चुरा० ) । = Uplifting by giving vigor and inspiration. (द्रवन्ती) जानन्ती गच्छन्ती वा । द्व-गतौ । गते स्त्रिष्वर्षेषु ज्ञानगमनार्थग्रहणत्र। = Knowing or going.

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