ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 45/ मन्त्र 9
ऋषिः - सदापृण आत्रेयः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
आ सूर्यो॑ यातु स॒प्ताश्वः॒ क्षेत्रं॒ यद॑स्योर्वि॒या दी॑र्घया॒थे। र॒घुः श्ये॒नः प॑तय॒दन्धो॒ अच्छा॒ युवा॑ क॒विर्दी॑दय॒द्गोषु॒ गच्छ॑न् ॥९॥
स्वर सहित पद पाठआ । सूर्यः॑ । या॒तु॒ । स॒प्तऽअ॑श्वः । क्षेत्र॑म् । यत् । अ॒स्य॒ । उ॒र्वि॒या । दी॒र्घ॒ऽया॒थे । र॒घुः । श्ये॒नः । प॒त॒य॒त् । अन्धः॑ । अच्छ॑ । युवा॑ । क॒विः । दी॒द॒य॒त् । गोषु॑ । गच्छ॑न् ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ सूर्यो यातु सप्ताश्वः क्षेत्रं यदस्योर्विया दीर्घयाथे। रघुः श्येनः पतयदन्धो अच्छा युवा कविर्दीदयद्गोषु गच्छन् ॥९॥
स्वर रहित पद पाठआ। सूर्यः। यातु। सप्तऽअश्वः। क्षेत्रम्। यत्। अस्य। उर्विया। दीर्घऽयाथे। रघुः। श्येनः। पतयत्। अन्धः। अच्छ। युवा। कविः। दीदयत्। गोषु। गच्छन् ॥९॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 45; मन्त्र » 9
अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 27; मन्त्र » 4
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अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 27; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः सूर्य्यवन्मनुष्याः किं कुर्य्युरित्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! यथा सप्ताश्वः सूर्य्यो यत् क्षेत्रमस्योर्विया दीर्घयाथे रघुः श्येन इवान्तरिक्षे याति तथा भवान् सेनाया मध्य आ यातु यथा गोषु गच्छन् दीदयत्तथा युवा कविरच्छान्धः पतयदिति विजानीत ॥९॥
पदार्थः
(आ) समन्तात् (सूर्य्यः) सविता (यातु) गच्छतु (सप्ताश्वः) सप्तविधा अश्वा आशुगामिनः किरणा यस्य सः (क्षेत्रम्) निवासस्थानम् (यत्) (अस्य) (उर्विया) पृथिव्याः (दीर्घयाथे) यान्ति यस्मिन्त्स याथो मार्गः दीर्घश्चासौ याथस्तस्मिन् (रघुः) लघुः (श्येनः) अन्तरिक्षस्थः श्येन इव (पतयत्) पतिरिवाचरति (अन्धः) अन्नादिकम् (अच्छा) अत्र संहितायामिति दीर्घः। (युवा) मिश्रितामिश्रितकर्त्ता यौवनावस्थः (कविः) मेधावी विद्वान् (दीदयत्) प्रकाशयति (गोषु) पृथिवीषु (गच्छन्) ॥९॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः । हे मनुष्या ! यस्मिन् सूर्ये सप्त तत्त्वानि सन्ति यः स्वक्षेत्रं विहाय इतस्ततो नो गच्छति तथा बहूनां भूगोलानां मध्य एकः सन् प्रकाशते तथैव सर्वे पुरुषा भवन्तु ॥९॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर सूर्य्य के समान मनुष्य क्या करें, उसका उपदेश करते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जैसे (सप्ताश्वः) सात प्रकार शीघ्र चलनेवाली किरणें जिसकी ऐसा (सूर्य्यः) सूर्य्य (यत्) जिस (क्षेत्रम्) निवास के स्थान को (अस्य) इस जगत् सम्बन्धिनी (उर्विया) पृथिवी के (दीर्घयाथे) चलें जिसमें ऐसे बड़े मार्ग में (रघुः) लघु (श्येनः) अन्तरिक्षस्थ वाज पक्षी के सदृश अन्तरिक्ष में जाता है, वैसे आप सेना के मध्य में (आ) सब प्रकार से (यातु) प्राप्त हूजिये और जैसे (गोषु) पृथिवियों में (गच्छन्) चलता हुआ (दीदयत्) प्रकाश करता है, वैसे (युवा) मिले और नहीं मिले हुए को करनेवाले यौवनावस्थायुक्त (कविः) बुद्धिमान् विद्वान् (अच्छा) उत्तम प्रकार (अन्धः) अन्न आदि का (पतयत्) स्वामी के सदृश आचरण करता है, यह जानो ॥९॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । हे मनुष्यो ! जिस सूर्य्य में सात तत्त्व हैं और जो अपने चक्र को छोड़ के इधर-उधर नहीं जाता है और बहुत भूगोलों के मध्य में एक ही प्रकाशित है, वैसे ही सब पुरुष होवें ॥९॥
विषय
तेजस्वी के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
भा०- (सूर्य) के समान तेजस्वी पुरुष ( सप्त-अश्वः ) वेगवान् अश्वों से युक्त होकर ( क्षेत्रम् ) उस रणक्षेत्र को ( आ यातु ) प्राप्त करे (यत्) जो (अस्य) इसके ( दीर्घ-याथे उर्विया ) लम्बे प्रयाण करने के लिये भी बहुत बड़ा है । वह (रघुः ) वेगवान् ( श्येनः) उत्तम गतिशील, सदाचारी वा वाज के समान ( युवा ) बलवान् ( कविः ) विद्वान् के तुल्य दीर्घदर्शी होकर ( गोषु गच्छन् ) अपनी भूमियों में गमन करता हुआ भी ( अन्धः अच्छ पतयत् ) राष्ट्र-धारक ऐश्वर्य का स्वामी बने और ( दीदयत् ) अच्छी प्रकार चमके अध्यात्म में सात प्राणों से युक्त आत्मा 'सूर्य सप्ताश्व' है । यह आत्मा क्षेत्र है । परमानन्द अन्धस् है । विद्वान वेदवाणियों में विचरे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सदापृण आत्रेय ऋषिः ॥ विश्वेदेवा देवताः ॥ छन्द: – १, २ पंक्तिः । ५, ९, ११ भुरिक् पंक्ति: । ८, १० स्वराड् पंक्तिः । ३ विराट् त्रिष्टुप् । ४, ६,७ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
'स्वाध्याय व सोमरक्षण' द्वारा दीप्त जीवन
पदार्थ
[१] (सप्ताश्वः) = सर्पणशील [क्रियाशील] इन्द्रियाश्वोंवाला (सूर्य:) = यह गतिशील पुरुष (आयातु) = प्रभु के समीप प्राप्तिवाला हो । (यद्) = जब (अस्य) = इसका (क्षेत्रम्) = ज्ञान का क्षेत्र (उर्विया) = विस्तृत और विस्तृत होता जाता है। (दीर्घयाथे) = इस लम्बी जीवन-यात्रा में, दीर्घजीवन में यह (रघुः) = शीघ्रगतिवाला होता है और (श्येन:) = शंसनीय गतिवाला होता है । यह स्फूर्तिमयी उत्तम गति उसे प्रभु के समीप प्राप्त कराती है। [२] (अन्धः अच्छा) = शरीरस्थ सोमशक्ति की ओर (पतयत्) = गतिवाला होता हुआ यह (युवा) = दोषों को अपने से दूर करनेवाला व अच्छाइयों को अपने से मिलानेवाला होता है । (कविः) = क्रान्तदर्शी होता हुआ, (गोषु गच्छन्) = ज्ञान की वाणियों में गति करता हुआ, स्वाध्याय में प्रवृत्त होता हुआ यह (दीदयत्) = दीप्त होता है। दीप्त जीवनवाला बनकर ही तो यह उस दीप्त प्रभु को प्राप्त करेगा।
भावार्थ
भावार्थ- हम स्वाध्याय द्वारा उत्तरोत्तर अपने ज्ञान को बढ़ायें। सोमरक्षण द्वारा उत्तम बुद्धि व गतिवाले होकर दीप्त जीवनवाले बनें ।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो! ज्या सूर्यात सात तत्त्व आहेत तो स्वक्षेत्र सोडून इकडे तिकडे जात नाही. मोठ्या भूगोलात एकटाच प्रकाशमय आहे. तसेच सर्व पुरुषांनी (तेजस्वी) व्हावे. ॥ ९ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Let the sun, commanding seven horses of its spectrum lights, come to the earthly part of its domain like a flying courser, a hawk-like harbinger of nectar, dispelling darkness, and ripening food with its light and heat, and let it shine, an unaging youth, a visionary creator and inspirer, going over lands and planets on the long course of its orbit in space.$So may the light of the Spirit descend into the earthly form of the body of five elements and five senses, mind and intelligence, and illuminate the individual personality of the soul to keep it a youthful visionary and self-inspiring poet, creatively playing around with the mind and senses, dispelling the darkness of ignorance and ripening the existential potential of its nature, across the world of five elements, and ahankara and mahan modes of nature, for its advancement over its eternal course.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How should men do like the sun is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
The sun has seven horses in the form of seven kinds of rays. It goes in the long path of the earth, like the hawk, in the firmament. So you O commander-in-chief of the army! should be in the garrison of arms. Like the sun illuminates all the substances while rising upon the earth, a young wise poet or sage is the master of the food and other arts. This you should know well.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men ! you should act like the sun which has there are seven elements and which does not leave its own axis and shines well single in the middle of many earths.
Foot Notes
(सप्ताश्वः) सप्तविधा अश्वा आशुगामिनः किरणा यस्य सः । = Which has seven kinds of quick going rays ? (अन्धः ) अन्नादिकम् । अन्ध इत्यन्ननाम (NG 2, 7 ) = Food grains and other things. (दीदयत्) प्रकाशयति । दीदयति ज्वलतिकर्मा (NG 1, 16 ) = Illuminates.
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