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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 45 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 45/ मन्त्र 1
    ऋषिः - अवत्सारः काश्यप अन्ये च दृष्टलिङ्गाः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    वि॒दा दि॒वो वि॒ष्यन्नद्रि॑मु॒क्थैरा॑य॒त्या उ॒षसो॑ अ॒र्चिनो॑ गुः। अपा॑वृत व्र॒जिनी॒रुत्स्व॑र्गा॒द्वि दुरो॒ मानु॑षीर्दे॒व आ॑वः ॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि॒दाः । दि॒वः । वि॒ऽस्यन् । अद्रि॑म् । उ॒क्थैः । आ॒ऽय॒त्याः । उ॒षसः॑ । अ॒र्चिनः॑ । गुः॒ । अप॑ । अ॒वृ॒त॒ । व्र॒जिनीः॑ । उत् । स्वः॑ । गा॒त् । वि । दुरः॑ । मानु॑षीः । दे॒वः । आ॒व॒रित्या॑वः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विदा दिवो विष्यन्नद्रिमुक्थैरायत्या उषसो अर्चिनो गुः। अपावृत व्रजिनीरुत्स्वर्गाद्वि दुरो मानुषीर्देव आवः ॥१॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विदाः। दिवः। विऽस्यन्। अद्रिम्। उक्थैः। आऽयत्याः। उषसः। अर्चिनः। गुः। अप। अवृत। व्रजिनीः। उत्। स्वः। गात्। वि। दुरः। मानुषीः। देवः। आवरित्यावः ॥१॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 45; मन्त्र » 1
    अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 26; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ सूर्य्यविषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! यथा स्वरादित्यो देवो मेघो वा मानुषीर्दुरो वि गादावोऽद्रिं व्रजिनीश्च उदपावृत तथैव दिवो विदा अर्चिन उक्थैरायत्या उषस इव विष्यन् गुस्तान् सततं सेवध्वम् ॥१॥

    पदार्थः

    (विदाः) विद्वांसः (दिवः) कामयमानाः (विष्यन्) व्याप्नुवन्ति (अद्रिम्) मेघम् (उक्थैः) वेदविद्याजन्यैरुपदेशैः (आयत्याः) पश्चाद्भवाः (उषसः) प्रभाताः (अर्चिनः) सत्कर्त्तारः (गुः) गच्छन्ति (अप) (अवृत) दूरीकुर्वन्ति (व्रजिनीः) वर्जनक्रियाः (उत्) (स्वः) आदित्यः (गात्) प्राप्नोति (वि) (दुरः) द्वाराणि (मानुषीः) मनुष्याणामिमाः (देवः) दिव्यगुणः (आवः) आवृणोति ॥१॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः । य उषसादित्यवन्मनुष्यप्रजासु विद्याधर्मप्रकाशकाः स्युस्त एवाऽध्यापकोपदेशका भवन्तु ॥१॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब ग्यारह ऋचावाले पैंतालीसवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में आदित्य विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जैसे (स्वः, देवः) श्रेष्ठ गुणों से विशिष्ट सूर्य्य वा मेघ (मानुषीः) मनुष्य सम्बन्धी (दुरः) द्वारों को (वि, गात्) विशेषतया प्राप्त होता और (आवः) ढाँपता है और (अद्रिम्) मेघ को और (व्रजिनीः) वर्जन क्रियाओं को (उद्, अप, अवृत) अत्यन्त दूर करते हैं, वैसे ही (दिवः) कामना करते हुए (विदाः) विद्वान् जन (अर्चिनः) सत्कार करनेवाले (उक्थैः) वेदविद्या से उत्पन्न हुए उपदेशों से (आयत्याः) पीछे से हुए (उषसः) प्रभात कालों के सदृश (विष्यन्) व्याप्त होते और (गुः) चलते हैं, उनकी निरन्तर सेवा करो ॥१॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । जो प्रभातकाल और सूर्य्य के सदृश मनुष्यरूप प्रजाओं में विद्या और धर्म्म के प्रकाश करनेवाले होवें, वे ही अध्यापक और उपदेशक होवें ॥१॥

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    विषय

    सूर्यवत् विद्वान् का ज्ञान प्रकाश करने का कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    भा०—जिस प्रकार ( दिवः अद्विम् ) सूर्य के प्रकाश मेघ को छिन्न भिन्न करते हैं उसी प्रकार ( विदाः ) ज्ञानवान् और (दिवः) उत्तम कामनावान् पुरुष ( उक्थैः) उत्तम वेदविहित वचनों और कर्मों से ( अद्रिम् ) मेघवत् आचरण करने वाले वा अभेद्य अज्ञान को (वि स्यन् ) विविध उपायों से नाश करें। ( आयत्याः उषसः ) बाद में आने वाली प्रभात वेलाओं के समान ही ( अर्चिनः ) उत्तम वेद मन्त्रों के द्रष्टा जन, ( उद्-गुः ) उदय को प्राप्त हों, वे (ब्रजिनीः ) वर्त्तन योग्य क्रियाओं और गमन करने योग्य पद्धतियों को ( उत् अप आवृत ) दूर करें और प्रकट करें । ( स्वः उत् गात् ) सूर्य के समान तेजस्वी, उपदेष्टा पुरुष उत्तम मार्ग में जायें, आयुदय को प्राप्त हों, वह ( देवः ) सूर्य वा मेघवत् दानशील, तेजस्वी और ज्ञान का प्रकाशक होकर ( दुरः मानुषीः ) गृह के द्वारों के तुल्य मननशील प्रजाओं को ( विः आवः) विविध प्रकार से आवरण करें, उनके मन को अपनी ओर अधिक खींचे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सदापृण आत्रेय ऋषिः ॥ विश्वेदेवा देवताः ॥ छन्द: – १, २ पंक्तिः । ५, ९, ११ भुरिक् पंक्ति: । ८, १० स्वराड् पंक्तिः । ३ विराट् त्रिष्टुप् । ४, ६,७ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    सनया व स्वाध्या

    पदार्थ

    [१] (उक्थैः) = स्तोत्रों के द्वारा (अद्रिम्) = अविद्या पर्वत को (विष्यन्) = दूर फेंकता हुआ [अस्यति] अथवा अविद्या पर्वत का अन्त करता हुआ [षोऽन्तकर्मणि] (दिवः विदा) = ज्ञान के प्रकाश को प्राप्त करता है। (आयत्याः उषस:) = प्रत्येक आनेवाली उषा की (अर्चिन:) = रश्मियाँ (गुः) = उस स्वाध्यायशील व्यक्ति को प्राप्त होती हैं। प्रति दिन प्रातः उठकर स्वाध्याय अवश्य करना चाहिए, उससे ज्ञान के प्रकाश को प्राप्त करने के लिये यत्नशील होना आवश्यक है। [२] यह व्यक्ति (व्रजिनीः) = तमः पुञ्जवाली, अर्थात् अज्ञाननिद्रावृत इन्द्रियों को (अपावृत) = अज्ञान के आवरण से पृथक् करता है । इसके जीवन में (स्वः) = प्रकाश (उद्गात) = उदित होता है। यह (देवः) = प्रकाशमय जीवनवाला बनकर (मानुषी: दुरः) = मनुष्य सम्बन्धी इन इन्द्रिय द्वारों को (वि आव:) = अन्धकार के घेरे से बाहिर करता है, अज्ञान के परदों से बाहिर ले आता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हमें प्रात: उठकर उपासना से अविद्या पर्वत को विनष्ट करने के लिये यत्न करना चाहिये। स्वाध्याय के द्वारा ज्ञान के प्रकाश को प्राप्त करना चाहिए।

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात सूर्य व विद्वानाच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्वसूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे उषःकालाप्रमाणे व सूर्याप्रमाणे (प्रकाशमान असून) प्रजेमध्ये विद्या व धर्माची शिकवण देतात त्यांनी शिक्षक व उपदेशक व्हावे. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Brilliant sages with holy songs of adoration worship the self-refulgent Lord and break the cloud of ignorance. In consequence, the dawn of light follows, dispels the nights of darkness, and then the refulgent sun of divine knowledge opens the doors of human reason and intelligence with knowledge.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes of the sun are compared with the teachers and preachers.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men ! always serve the persons who are glaring like the sun and the divine like the cloud. As the sun (by Its rays) pervades and knocks at the doors the houses of the people and manifests its glory, dispels the cloud and removes the darkness in the same manner, always serve those enlightened men who desire the welfare of all beings, who honor good men, who pervade all places with the Vedic sermons like the coming dawns and go everywhere.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those persons only deserve to be the teachers and preachers. who are illuminators of Vidya (true knowledge) and Dharma (righteousness) among the people like the dawn and the sun.

    Foot Notes

    (व्रजिनी) वर्जन क्रिया । वृजी-वर्जने = The acts of giving up or dispelling. (स्व:) आदित्यः । स्वः आदित्यों भवति । स्वरादित्यो भवति सुअरण: सुईरणः स्वतो भासति (NKT 2, 4, 14) = The sun. (दिवः) कामयमाना:- दिवुधातो: । कामनार्थमादाय व्याख्या कान्तिः कामना । = Desiring the welfare of all living beings.

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