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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 65 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 65/ मन्त्र 6
    ऋषिः - रातहव्य आत्रेयः देवता - मित्रावरुणौ छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    यु॒वं मि॑त्रे॒मं जनं॒ यत॑थः॒ सं च॑ नयथः। मा म॒घोनः॒ परि॑ ख्यतं॒ मो अ॒स्माक॒मृषी॑णां गोपी॒थे न॑ उरुष्यतम् ॥६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यु॒वम् । मि॒त्रा॒ । इ॒मम् । जन॑म् । यत॑थः । सम् । च॒ । न॒य॒थः॒ । मा । म॒घोनः॑ । परि॑ । ख्य॒त॒म् । मो इति॑ । अ॒स्माक॑म् । ऋषी॑णाम् । गो॒ऽपी॒थे । नः॒ । उ॒रु॒ष्य॒त॒म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    युवं मित्रेमं जनं यतथः सं च नयथः। मा मघोनः परि ख्यतं मो अस्माकमृषीणां गोपीथे न उरुष्यतम् ॥६॥

    स्वर रहित पद पाठ

    युवम्। मित्रा। इमम्। जनम्। यतयः। सम्। च। नयथः। मा। मघोनः। परि। ख्यतम्। मो इति। अस्माकम्। ऋषीणाम्। गोऽपीथे। नः। उरुष्यतम् ॥६॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 65; मन्त्र » 6
    अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 3; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे मित्रा अध्यापकोपदेशकौ ! युवमिमं जनं यतथः सन्नयथश्च मघोनो नो मा परि ख्यतमृषीणामस्माकं गोपीथे मो परिख्यतं शुभे कर्मण्यस्मानुरुष्यतम् ॥६॥

    पदार्थः

    (युवम्) युवाम् (मित्रा) (इमम्) (जनम्) उपदेश्यं मनुष्यम् (यतथः) प्रेरयथः (सम्) (च) (नयथः) प्रापयथः (मा) निषेधे (मघोनः) बहुधनयुक्तान् (परि) वर्जने (ख्यतम्) निराकुरुतम् (मो) निषेधे (अस्माकम्) (ऋषीणाम्) वेदार्थविदाम् (गोपीथे) गवां पेये दुग्धादौ (नः) अस्मान् (उरुष्यतम्) प्रेरयेतम् ॥६॥

    भावार्थः

    हे विद्वांसो ! भवन्तः सर्वान् जनान् प्रयतमानान् कृत्वा सुखं प्रापयन्तु। हे विद्यार्थिनः श्रोतारो वा ! यूयमस्मानध्यापकानुपदेशकान् कदाचिन्मावमन्यध्वमेव वर्त्तित्वा सत्यं धर्मं सेवेमहीति ॥६॥ अत्र मित्रावरुणाध्यापकाध्येत्रुपदेशकोपदेश्यकर्मवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति पञ्चषष्टितमं सूक्तं तृतीयो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (मित्रा) प्राण और उदान के समान वर्त्तमान अध्यापक और उपदेशक जनो ! (युवम्) आप दोनों (इमम्) इस (जनम्) उपदेश देने योग्य जन को (यतथः) प्रेरणा करते और (सम्, नयथः, च) प्राप्त कराते हैं तथा (मघोनः) बहुत धनों से युक्त (नः) हम लोगों का (मा) मत (परि, ख्यतम्) निरादर कीजिये और (ऋषीणाम्) वेदार्थ के जाननेवाले (अस्माकम्) हम लोगों का (गोपीथे) गौओं के पीने योग्य दुग्ध आदि में (मो) नहीं निरादर करिये और शुभ कर्म में हम लोगों को (उरुष्यतम्) प्रेरणा करिये ॥६॥

    भावार्थ

    हे विद्वानो ! आप लोग सब लोगों को प्रयत्न से युक्त करके सुख को प्राप्त कराइये और हे विद्यार्थीजनो वा श्रोतृजनो ! आप लोग हम अध्यापक और उपदेशकों का अपमान मत करो, इस प्रकार वर्त्ताव कर सत्य धर्म का सेवन हम लोग करें ॥६॥ इस सूक्त में मित्रावरुणपदवाच्य अध्यापक और अध्ययन करने तथा उपदेश करने और उपदेश देने योग्यों के कर्मों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह पैंसठवाँ सूक्त और तीसरा वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    मित्र का लक्ष्य ।

    भावार्थ

    भा०-हे (मित्रा ) स्नेह करने वाले उत्तम विद्वान् स्त्री पुरुषो ! वा अध्यापक उपदेशक जनो ! आप लोग ( युवं ) दोनों ( इमं जनं ) इस शिष्यजन को (यतथः ) यन्त्रपूर्वक प्रेरणा करो। और ( सं नयथः च) अच्छी प्रकार उत्तम मार्ग में ले जाओ ! ( अस्माकं ) हमारे बीच में ( मघोनः ) दान योग्य उत्तम ऐश्वर्यवान् पुरुषों को ( ऋषीणां गो-पीथेन ) वेदार्थ विज्ञ, विद्वान् पुरुषों की वाणियों के पान करने के कार्य से ( मा परि ख्यतम् ) कभी वञ्चित न करो। ज्ञान देने के निमित्त उनका तिरस्कार न करो। इति तृतीयो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    रातहव्य आत्रेय ऋषिः ॥ मित्रावरुणौ देवते ॥ छन्द:- १, ४ अनुष्टुप् । २ निचृदनुष्टुप् । ३ स्वराडुष्णिक् । ५ भुरिगुष्णिक् । ६ विराट् पंक्तिः ॥ षडृर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    ऋषीणां गोपीथेन उरुष्यतम्

    पदार्थ

    [१] हे (मित्र) = मित्र और वरुण (युवम्) = आप दोनों (इमं जनम्) = इस मुझ स्तोता को (यतथ:) = यत्नशील बनाते हो। स्नेह व निर्देषता को धारण करके मैं कर्त्तव्यकर्मों में यत्नशील होता हूँ । (च) = और आप मुझे (संनयथ:) = सम्यक् ठीक मार्ग पर ले चलते हो । स्नेह व निर्देषता से होनेवाली क्रियाएँ पापशून्य ही होती हैं। [२] (मघोन:) = हम यज्ञशील पुरुषों को (मा परिख्यतम्) = आप छोड़ मत जाओ। हम आप से सुरक्षित हुए हुए सदा यज्ञों को करते रहें। [२] (मा उ) = और नां ही (अस्माकम्) = हमारे लोगों को आप छोड़ जाओ। हम भी स्नेह व निर्देषता के भाववाले हों, हमारे परिवार व समाज के लोग भी इन भावनाओं को अपनाएँ । हे मित्र और वरुण! आप (ऋषीणाम्) = वेदों के [ऋषिर्वेदः] प्रभु से दिये गये ज्ञान के (गोपीथेन) = इन्द्रियों द्वारा पान के द्वारा (उरुष्यतम्) = हमारा रक्षण करो। हमारी इन्द्रियाँ इस ज्ञान का ग्रहण करें और इस प्रकार आप हमारा रक्षण करो।

    भावार्थ

    भावार्थ - स्नेह व निर्देषता के होने पर हम यत्नशील होते हैं, हमारे यत्न उत्तम मार्ग से होते हैं। हम यज्ञशील व ज्ञानयज्ञ को करनेवाले बनते हैं। अगला सूक्त भी 'रातहव्य' ऋषि का ही है -

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे विद्वानांनो! तुम्ही सर्वांना प्रयत्नशील बनवा. सुख प्राप्त करवून द्या व हे विद्यार्थ्यांनो! श्रोतृजनांनो! तुम्ही आमच्या अध्यापक व उपदेशकाचा अपमान करू नका. या प्रकारे वागून आम्ही सत्य धर्म स्वीकारावा. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O Mitra and Varuna, friend and lover of humanity, upholder of justice and rectitude, you inspire and exhilarate this human nation to action, unite them and lead them to the common goal. O lord of love, mercy and justice, pray do not ignore the supplicants on way to prosperity and excellence, do not forsake our people and future generations on the path of piety and progress, promote and exalt us and our leading lights to reach the haven of peace and bliss.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject of teacher-pupil relation is highlighted.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O teachers and preachers ! you are our true friends. You inspire the man who is to be taught and lead him towards the goal. Do not insult us who are endowed with abundant wealth. Do not give small quantity of milk and other nourishing food for the Rishis, the knowers of the meaning of the Vedas. Always urge upon us to do good deeds.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O highly learned persons ! you should make all industrious persons happy. O students and teachers! you should never insult us who are teachers or preachers. Behaving in this way let us all tread upon the path of Dharma (righteousness).

    Foot Notes

    (यतथः) प्रेरयथः । यती निकारोपस्कारयोः । (यु० ) उपस्करार्थ शोधनीकरणार्थ वा प्रेरणापेक्ष्यते । = Prompt, inspire, (गोपीथे) गवां पेये दुग्धादो | = In the middle of the cows etc. (उरुष्यतम् ) प्रेरयेक्ष्म् । उरुष्यतिः रक्षाकर्मेति (NKT 5, 4, 23 ) सा रक्षा शुभप्रेरणा द्वारा संभवतीति तदर्थं ग्रहणम् । Prompt, urge.

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