ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 9/ मन्त्र 6
तवा॒हम॑ग्न ऊ॒तिभि॑र्मि॒त्रस्य॑ च॒ प्रश॑स्तिभिः। द्वे॒षो॒युतो॒ न दु॑रि॒ता तु॒र्याम॒ मर्त्या॑नाम् ॥६॥
स्वर सहित पद पाठतव॑ । अ॒हम् । अ॒ग्ने॒ । ऊ॒तिऽभिः॑ । मि॒त्रस्य॑ । च॒ । प्रश॑स्तिऽभिः । द्वे॒षः॒ऽयुतः॑ । न । दुः॒ऽइ॒ता । तु॒र्याम॑ । मर्त्या॑नाम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
तवाहमग्न ऊतिभिर्मित्रस्य च प्रशस्तिभिः। द्वेषोयुतो न दुरिता तुर्याम मर्त्यानाम् ॥६॥
स्वर रहित पद पाठतव। अहम्। अग्ने। ऊतिऽभिः। मित्रस्य। च। प्रशस्तिऽभिः। द्वेषःऽयुतः। न। दुःऽइता। तुर्याम। मर्त्यानाम् ॥६॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 9; मन्त्र » 6
अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 1; मन्त्र » 6
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अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 1; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मित्रभावेनोक्तविषयमाह ॥
अन्वयः
हे अग्ने ! अहं मित्रस्य तवोतिभिः प्रशस्तिभिश्च प्रशंसितो भवेयं तथा त्वं भव सर्वे वयं मिलित्वा द्वेषोयुतो न मर्त्यानां दुरिता तुर्य्याम ॥६॥
पदार्थः
(तव) (अहम्) (अग्ने) विद्वन् (ऊतिभिः) रक्षादिभिः (मित्रस्य) (च) (प्रशस्तिभिः) प्रशंसाभिः (द्वेषोयुतः) द्वेषयुक्ताः (न) इव (दुरिता) दुःखेनेता प्राप्तानि (तुर्याम) हिंस्याम (मर्त्यानाम्) मनुष्याणाम् ॥६॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! यथा मित्रं मित्रस्य प्रशंसां करोति शत्रवो हितं घ्नन्ति तथैव मित्रतां कृत्वा मनुष्याणां दुःखानि वयं हिंस्येम ॥६॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर मित्रभाव से उक्त विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (अग्ने) विद्वन् (अहम्) मैं (मित्रस्य) मित्र (तव) आपकी (ऊतिभिः) रक्षा आदिकों से और (प्रशस्तिभिः) प्रशंसाओं से (च) भी प्रशंसित होऊँ, वैसे आप हूजिये और सब हम लोग मिल कर (द्वेषोयुतः) द्वेषयुक्तों के (न) सदृश (मर्त्यानाम्) मनुष्यों के (दुरिता) दुःख से प्राप्त हुए दोषों की (तुर्याम) हिंसा करें ॥६॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । हे मनुष्यो ! जैसे मित्र मित्र की प्रशंसा करता और शत्रुजन हित का नाश करते हैं, वैसे ही मित्रता करके मनुष्यों के दुःखों का हम नाश करें ॥६॥
विषय
यज्ञाग्निवत् विद्वान् और तेजस्वी राजा के कर्त्तव्य । वनाग्निवत् तेजस्वी नायक ।
भावार्थ
भा०-हे (अग्ने) अग्रणी नायक ! विद्वन् ! राजन् ! ( अहम् ) मैं ( तव ) तेरे ( ऊतिभिः ) रक्षा और ज्ञानयुक्त उपायों और ( मित्रस्य ) स्नेहवान् और मृत्यु से बचाने वाले तेरे (प्रशस्तिभिः) उत्तम शासनों से युक्त होऊं । और हम सब ( मर्त्यानाम् ) मनुष्यों के ( द्वेषः-युतः ) द्वेषयुक्त शत्रुओं के समान ( दुरिता ) दुर्गम मार्गों और दुष्टाचरणों, पापादि कर्मों को तेरे (ऊतिभिः) रक्षा साधनों और उत्तम शासनों से ही ( तुर्याम ) पार करें ।
टिप्पणी
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
missing
Bhajan
आज का वैदिक भजन 🙏 1126
ओ३म् तवा॒हम॑ग्न ऊ॒तिभि॑र्मि॒त्रस्य॑ च॒ प्रश॑स्तिभिः ।
द्वे॒षो॒युतो॒ न दु॑रि॒ता तु॒र्याम॒ मर्त्या॑नाम् ॥
ऋग्वेद 5/9/6
हे रक्षक !! स्तुतिमय परमेश्वर
आनन्द रत हों मन के भीतर
तेरा प्रकाश आनन्द जगाएँ
दोष दूर कर सफल बनाएँ
प्रेम की शक्ति दो जगदीश्वर
आनन्द रत हों मन के भीतर
साथ ना पापी सत्कर्मी का
पाएँ फल सब निज करनी का
सदा दूर रहें दुरित से ईश्वर
आनन्द रत हों मन के भीतर
निन्दा द्वेष से प्रभु बचा दे
सात्विक प्रेम की राह बता दे
दुर्गुण दोष रहित हमको कर
आनन्द रत हों मन के भीतर
अप्रशस्त मन भाव भगाएँ
जीवमात्र में प्रेम बहायें
जगें प्रेममय मन के ही स्वर
आनन्द रत हों मन के भीतर
हे रक्षक !! स्तुतिमय परमेश्वर
आनन्द रत हों मन के भीतर
रचनाकार व स्वर :- पूज्य श्री ललित मोहन साहनी जी – मुम्बई
रचना दिनाँक :-
राग :- मालगुंजी
गायन समय रात्रि का दूसरा प्रहर, ताल कहरवा 8 मात्रा
शीर्षक :- मित्र प्रभु से याचना 🎧🦻भजन 705वां🌹🙏🏿
*तर्ज :- *
00125-725
दुरित = दुर्गुण, दोष
अप्रशस्त = निंदनीय
Vyakhya
प्रस्तुत भजन से सम्बन्धित पूज्य श्री ललित साहनी जी का सन्देश :-- 👇👇
मित्र प्रभु से याचना
मनुष्य चारों ओर संकटों से घिरा हुआ है। प्राकृतिक विपदा ही इतनी अधिक है कि मानो उसे निगलने के लिए तैयार खड़ी हैं।
कभी अतिवृष्टि है, कभी अनावृष्टि है, कभी नदियों में बाढ़ है, कभी भूकंप, कभी ज्वालामुखी का प्रकोप है। कभी भीषण आग की तबाही। हिंसक जंतु भी हमें अपना ग्रास बनाने को उद्यत रहते हैं। इनसे बचने के लिए किया गया पुरुषार्थ तो काम आता ही है,पर साथ ही प्रभु की अपार कृपा और रक्षा भी विपदा से उद्धार के लिए परम आवश्यक होती है। अशरण शरण प्रभु तुम अपनी रक्षा का वरद हस्त मुझ पर तथा सभी अन्य जनों पर सदा रखे रहो।
हे अग्निदेव! हे अग्रनायक! हे तेजों के निधी, हे प्रकाशक! तुम सबके मित्र हो परम सखा हो। अनेक प्रशस्तियों के धनी तुम्हें सखा पाकर हम पर तुम्हारा सखा होने के लाभ हम तभी उठा सकते हैं जब तुम्हारी जैसी प्रशस्तियों से हम भी समन्वित हो जाए। तुम शक्तिशाली हो हम भी शक्तिशाली बन जाए। तुम न्यायकारी, निर्विकार, परोपकारी, निर्धनों के निर्बलों के रक्षक, शत्रु संहारक, दुर्गुण नाशक हो। हे मित्र !तुम हमें भी इन प्रशस्तिओं से युक्त करा दो।
हमें अनेक द्वेषी, भयंकर शत्रुजन अपने द्वेष का निशाना बनाते हैं, वे हमारा अस्तित्व समाप्त करना चाहते हैं। भगवान हमें शक्ति दो कि हम उन से लोहा ले सकें। कई बार हमारे साथी मनुष्य भी हमें दुरितों में लिप्त करना चाहते हैं। हमें कुमार्ग पर ले जाने के लिए हमारे सम्मुख प्रलोभन उपस्थित करते हैं । हे सखा जगदीश्वर! तुम हमें उनकी दुरित की कुचालों से बचाओ। स हमें बल दो कि हम कभी पाप के पथ पर ना चलें। हमें अपनी पवित्र रक्षा एवं प्रशस्तियों का वरदान देकर कृतार्थ कर दो। 🎧भजन ७०५ वां
🕉🧘♂️ईश भक्ति भजन
भगवान् ग्रुप द्वारा🎧🙏
विषय
वाह्याभ्यन्तर शत्रु विजय
पदार्थ
[१] हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो ! (अहम्) = मैं (तव) = आपकी (ऊतिभिः) = रक्षाओं से (च) = और (मित्रस्य) = पापों से बचानेवाले आपके प्रशंसनों व स्तवनों से (मर्त्यानां दुरिता) = मनुष्यों के दुरितों से (तुर्याम) = तैर जाऊँ। उन सब दोषों से अपने को ऊपर उठानेवाला बनूँ, जो कि मानव स्वभाव में सुलभ हैं। [२] मैं इन दुरितों से इसी प्रकार तैर जाऊँ (न) = जैसे कि (द्वेषोयुतः) = द्वेष युक्त जनों को तैर जाऊँ । द्वेष करनेवालों के द्वेष का मैं शिकार न हो जाऊँ ।
भावार्थ
भावार्थ– प्रभु के रक्षणों व स्तवनों से हम अन्दर के शत्रुभूत दुरितों से तथा बाह्यशत्रुभूत द्वेषी जनों से तैर जायें । न अन्दर के शत्रुओं का शिकार हों और ना ही बाहर के शत्रुओं का।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जसा मित्र मित्राची प्रशंसा करतो व शत्रू हिताचा नाश करतात तसेच मैत्री करून माणसांच्या दुःखाचा आम्ही नाश करावा. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O light and fire of life, Agni, may we, with your protections and friendly exhortations, cross over the sins and weaknesses of mortal humanity as we overcome the hate and enmity of the wicked.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of enlightened persons are enlightened.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned person ! let me become admirable under your protection and praises, for you are my friend. You should also be praiseworthy everywhere. Let us all join to undo the malicious acts and miseries of the people.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
A friend admires his friend, while an enemy takes no interest in the welfare of his adversary. In the same manner, having become friends, let us destroy the miseries of the mortals.
Foot Notes
(तुर्याम) हिस्याम | तुर्वा -हिंसायाम् (भ्वा० ) = Let us destroy.
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