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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 26 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 26/ मन्त्र 3
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    त्वं क॒विं चो॑दयो॒ऽर्कसा॑तौ॒ त्वं कुत्सा॑य॒ शुष्णं॑ दा॒शुषे॑ वर्क्। त्वं शिरो॑ अम॒र्मणः॒ परा॑हन्नतिथि॒ग्वाय॒ शंस्यं॑ करि॒ष्यन् ॥३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । क॒विम् । चो॒द॒यः॒ । अ॒र्कऽसा॑तौ । त्वम् । कुत्सा॑य । शुष्ण॑म् । दा॒शुषे॑ । व॒र्क् । त्वम् । शिरः॑ । अ॒म॒र्मणः॑ । परा॑ । अ॒ह॒न् । अ॒ति॒थि॒ऽग्वाय॑ । शंस्य॑म् । क॒रि॒ष्यन् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वं कविं चोदयोऽर्कसातौ त्वं कुत्साय शुष्णं दाशुषे वर्क्। त्वं शिरो अमर्मणः पराहन्नतिथिग्वाय शंस्यं करिष्यन् ॥३॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम्। कविम्। चोदयः। अर्कऽसातौ। त्वम्। कुत्साय। शुष्णम्। दाशुषे। वर्क्। त्वम्। शिरः। अमर्मणः। परा। अहन्। अतिथिऽग्वाय। शंस्यम्। करिष्यन् ॥३॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 26; मन्त्र » 3
    अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 21; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुना राजा किं कुर्यादित्याह ॥

    अन्वयः

    हे इन्द्र राजँस्त्वमर्कसातौ कविं चोदयस्त्वं कुत्साय दाशुषे च शुष्णं वर्क् त्वममर्मणः शिरः पराऽहन्, अतिथिग्वाय शंस्यं करिष्यन् वर्तसे तस्मात् सत्कर्तव्योऽसि ॥३॥

    पदार्थः

    (त्वम्) (कविम्) विद्वांसम् (चोदयः) प्रेरय (अर्कसातौ) अन्नादिविभागे (त्वम्) (कुत्साय) वज्राय (शुष्णम्) बलम् (दाशुषे) दात्रे (वर्क्) छिनत्सि (त्वम्) (शिरः) (अमर्मणः) अविद्यमानानि मर्माणि यस्मिँस्तस्य (परा) (अहन्) दूरीकुर्याः (अतिथिग्वाय) योऽतिथीनागच्छति तस्मै (शंस्यम्) प्रशंसनीयं कर्म (करिष्यन्) ॥३॥

    भावार्थः

    राजा विद्याविनयादिशुभगुणान् राजकार्येषु योजयेत्, उन्नतिञ्च करिष्यन् विद्यादीनां दाता भूत्वा प्रशंसां प्राप्नुयात् ॥३॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर राजा क्या करे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे तेजस्विराजन् ! (त्वम्) आप (अर्कसातौ) अन्न आदि के विभाग में (कविम्) विद्वान् की (चोदयः) प्रेरणा करिये और (त्वम्) आप (कुत्साय) वज्र के लिये और (दाशुषे) दान करनेवाले के लिये (शुष्णम्) बल को (वर्क्) काटते हो और (त्वम्) आप (अमर्मणः) नहीं विद्यमान मर्म जिसमें उसके (शिरः) शिर को (परा, अहन्) दूर करिये और (अतिथिग्वाय) अतिथियों को प्राप्त होनेवाले के लिये (शंस्यम्) प्रशंसा करने योग्य कर्म को (करिष्यन्) करते हुए वर्तमान हो, इससे आप सत्कार करने योग्य हो ॥३॥

    भावार्थ

    राजा विद्या और विनय आदि श्रेष्ठ गुणों से युक्त जनों को राजकार्यों में युक्त करे और उन्नति को करता हुआ विद्या आदि का दाता होकर प्रशंसा को प्राप्त होवे ॥३॥

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    विषय

    प्रजा सेवकादिभक्त इन्द्र । उसका दुष्टदमन का कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे राजन् ! ( त्वं अर्कसातौ ) अन्न, और स्तुत्य, सूर्यवत् तेजस्वी पद को प्राप्त करने के लिये ( कविम्) दूरदर्शी विद्वान्, को ( चोदयः ) प्रेरित कर और ( त्वं ) तू ( कुत्साय ) राष्ट्र के शस्त्रास्त्र बल को धारण करने और ( दाशुषे ) कर आदि देने वाले प्रजाजन के पालन के लिये (शुष्णं) शत्रुशोषक बल को (वर्क्) नाना विभागों में विभक्त कर और ( शुष्णं वर्क् ) प्रजाशोषक दुष्ट जन वा दोषयुक्त व्यवस्था को नाश कर । और (अतिथिग्वाय) अतिथिवत् पूज्य पुरुषों की गौ, गव्य दूध, घी तथा वाणी आदि से सत्कार करने वाले पुरुष के लिये ( शंस्यं करिष्यन् ) प्रशंसनीय कार्य करना चाहता हुआ ( त्वं ) तू ( अमर्मणः ) मर्म स्थल से रहित, अति दृढ़ शत्रु के ( शिरः ) शिर के समान मुख्य अंग को ही ( परा हन् ) परास्त कर ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः - १ पंक्तिः । २, ४ भुरिक पंक्तिः। ३ निचृत् पंक्ति: । ५ स्वराट् पंक्तिः । ६ विराट् त्रिष्टुप् । ७ त्रिष्टुप् । ८ निचृत्त्रिष्टुप् ।। अष्टर्चं सूक्तम् ।।

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    विषय

    'शुष्ण व शंवर' का विनाश

    पदार्थ

    [१] हे प्रभो ! (त्वम्) = आप (अर्कसातौ) = सूर्यमण्डल की प्राप्ति के निमित्त (कविम्) = इस क्रान्तदर्शी ज्ञानी पुरुष को (चोदय:) = प्रेरित करते हैं। यह कवि संसार के विषयों से ऊपर उठता हुआ सूर्यमण्डल का भेदन करता हुआ आपको प्राप्त होता है । [२] (त्वम्) = आप (दाशुषे) = अपने को आपके प्रति अर्पण करनेवाले (कुत्साय) = वासनाओं का संहार करनेवाले पुरुष के लिये (शुष्णम्) = शक्ति का शोषण करनेवाले काम को (वर्क्) = छिन्न करते हैं। आपकी कृपा से ही यह कुत्स शुष्ण का विनाश करके शक्ति- सम्पन्न होता हुआ आपको प्राप्त होता है। [३] (त्वम्) = आप ही (अतिथिग्वाय) = अतिथियों का सत्कार करनेवाले इस साधक के लिये (शंस्य करिष्यन्) = प्रशंसनीय सुख को करने के हेतु से (अमर्मणः) = अपने को मर्महीन मानते हुए ईर्ष्यारूपी असुर के (शिरः) = सिर को (पराहन्) = नष्ट करते हैं। ईर्ष्या मनुष्य की शान्ति का विनाश करती है, सो यह 'शंवर' कहलाती है। अतिथियज्ञ करनेवाला पुरुष इस ईर्ष्यासे ऊपर उठता ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु [ख] हमें ज्ञानी बनाकर सूर्यमण्डल का भेदन करनेवाला बनाते हैं, [ख] कामवासना रूप 'शुष्णासुर' को समाप्त करते हैं, [ग] ईर्ष्यारूप असुर को दूर करते हैं ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    राजाने विद्या व विनय इत्यादी शुभगुणांनी युक्त लोकांना राज्यकार्यात युक्त करावे व उन्नती करून विद्येचा दाता बनून प्रशंसेस पात्र व्हावे. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    You enthuse and inspire the creative visionary in the work on solar energy, thunder and lightning. You break open the secrets of concentrated energy for the man of power and generosity. Thus you shake and subdue the head of invulnerable pride and intransigence and do praise-worthy service to the leader who honours and keeps open house for visiting scholars.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should a king do is-again told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O king ! you urge a farsighted learned person to distribute food materials among the needy and deserving. You slay a mighty but exploiter for the protection of a devotee and for the proper use of your thunderbolt like weapon. You behead an invulnerable but cruel demon and do good to hospitable person. Therefore you are worthy of respect.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    A king should appoint only men endowed with knowledge, humility and other good virtues for administrative work. He should get good reputation by being giver of knowledge and thus advancing the State.

    Foot Notes

    (अर्कसातौ) अन्नादिविभागे । अर्क इति, अन्ननाम (NG 2,7) षण-संभक्तौ | = In the distribution of food and other things. (कुत्साय) वज्राय । कुत्स इति वज्रनाम (NG 2, 20 )। = For the thunderbolt. (वर्क) छनत्सि | = Cleave, destroy.

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