ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 34/ मन्त्र 1
सं च॒ त्वे ज॒ग्मुर्गिर॑ इन्द्र पू॒र्वीर्वि च॒ त्वद्य॑न्ति वि॒भ्वो॑ मनी॒षाः। पु॒रा नू॒नं च॑ स्तु॒तय॒ ऋषी॑णां पस्पृ॒ध्र इन्द्रे॒ अध्यु॑क्था॒र्का ॥१॥
स्वर सहित पद पाठसम् । च॒ । त्वे इति॑ । ज॒ग्मुः । गिरः॑ । इ॒न्द्र॒ । पू॒र्वीः । वि । च॒ । त्वत् । य॒न्ति॒ । वि॒ऽभ्वः॑ । म॒नी॒षाः । पु॒रा । नू॒नम् । च॒ । स्तु॒तयः॑ । ऋषी॑णाम् । प॒स्पृ॒ध्रे । इन्द्रे॑ । अधि॑ । उ॒क्थ॒ऽअ॒र्का ॥
स्वर रहित मन्त्र
सं च त्वे जग्मुर्गिर इन्द्र पूर्वीर्वि च त्वद्यन्ति विभ्वो मनीषाः। पुरा नूनं च स्तुतय ऋषीणां पस्पृध्र इन्द्रे अध्युक्थार्का ॥१॥
स्वर रहित पद पाठसम्। च। त्वे इति। जग्मुः। गिरः। इन्द्र। पूर्वीः। वि। च। त्वत्। यन्ति। विऽभ्वः। मनीषाः। पुरा। नूनम्। च। स्तुतयः। ऋषीणाम्। पस्पृध्रे। इन्द्रे। अधि। उक्थऽअर्का ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 34; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 6; मन्त्र » 1
Acknowledgment
अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 6; मन्त्र » 1
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ राजा किं कुर्यादित्याह ॥
अन्वयः
हे इन्द्र ! ये त्वे त्वत् पूर्वीर्गिरश्च यन्ति शुभैश्च गुणैः सं जग्मुर्विभ्वो मनीषाः सन्तः परस्परं वि यन्ति। ऋषीणां पुरा स्तुतयश्च नूनं पस्पृध्रे, इन्द्र उक्थार्काऽधि पस्पृध्रे ते सुखमाप्नुवन्ति ॥१॥
पदार्थः
(सम्) सम्यक् (च) (त्वे) केचित् (जग्मुः) गच्छन्ति (गिरः) सुशिक्षितवाचः (इन्द्र) विद्याप्रद (पूर्वीः) प्राचीनाः सनातनीः (वि) (च) (त्वत्) तव सकाशात् (यन्ति) प्राप्नुवन्ति (विभ्वः) विभवो व्याप्तशुभगुणाः (मनीषाः) मनस ईषिणो गमनकर्त्तारः (पुरा) (नूनम्) निश्चयेन (च) (स्तुतयः) प्रशंसाः (ऋषीणाम्) वेदमन्त्रार्थविदां यथार्थमुपदेष्टॄणाम् (पस्पृध्रे) स्पर्द्धन्ते (इन्द्रे) परमैश्वर्ये (अधि) (उक्थार्का) उक्थानि प्रशंसितानि वचनान्यर्काणि पूजनीयानि च ॥१॥
भावार्थः
हे राजन्नस्मिन्त्संसारे केचिद्योग्याः केचिदनर्हा जना भवन्ति तेषां मध्यात् प्रशंसनीयैः सज्जनैस्सह सन्धिं कृत्वा सुसहायः सन् धर्म्मेण राज्यपालनं सततं विधेहि ॥१॥
हिन्दी (3)
विषय
अब पाँच ऋचावाले चौंतीसवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में राजा क्या करे, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (इन्द्र) विद्या के देनेवाले जो (त्वे) कोई (त्वत्) आपके समीप से (पूर्वीः) प्राचीन (गिरः) उत्तम प्रकार शिक्षित वाणियों को (च) भी (यन्ति) प्राप्त होते हैं (च) और श्रेष्ठ गुणों से (सम्) उत्तम प्रकार (जग्मुः) मिलते हैं तथा (विभ्वः) श्रेष्ठ गुणों से व्याप्त (मनीषाः) गमन करनेवाले हुए परस्पर (वि) विशेष करके प्राप्त होते हैं और (ऋषीणाम्) वेद के मन्त्रों के अर्थ जाननेवालों और यथार्थ उपदेश करनेवालों के (पुरा) आगे (स्तुतयः, च) प्रशंसाओं की भी (नूनम्) निश्चय से (पस्पृध्रे) स्पर्द्धा करते हैं और (इन्द्रे) अत्यन्त ऐश्वर्य्य देनेवाले के लिये (उक्थार्का) प्रशंसित और आदर करने योग्य वचनों की (अधि) अधिक स्पर्धा करते हैं, वे सुख को प्राप्त होते हैं ॥१॥
भावार्थ
हे राजन् ! इस संसार में कोई योग्य, कोई अयोग्य जन होते हैं, उन में प्रशंसा करने योग्य सज्जनों के साथ मेल करके उत्तम सहायवाले हुए धर्म्म से राज्यपालन निरन्तर करिये ॥१॥
विषय
समस्त वाणियों, स्तुतियों, प्रवचनों का एक मात्र पात्र प्रभु 'इन्द्र' ।
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! स्वामिन् ! प्रभो ! ( पूर्वीः ) सबसे पूर्व की, उत्तम, ( गिरः ) वाणियां ( त्वे ) तुझ में ही ( संजग्मुः ) संगत, चरितार्थ होती हैं, तुझ में ही समन्वित होती हैं, और ( विभ्वः मनीषा: ) विशेष समर्थ बुद्धियां भी ( त्वत् वियन्ति च ) तुझ से विशेष रूप से प्रकट होती हैं । (इन्द्रे अधि) उस ऐश्वर्यवान् प्रभु के निमित्त ही (ऋषीणां स्तुतयः च ) मन्त्रार्थ द्रष्टाओं की स्तुतियां, प्रवचन, ( उक्थ-अर्का) उत्तम अर्चना योग्य वचन ( नूनं ) अवश्य ( पस्पृधे ) एक दूसरे की स्पर्धा करते, वे सब एक दूसरे से उत्तम जंचते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
शुनहोत्र ऋषिः ।। इन्द्रो देवता । त्रिष्टुप् छन्दः ॥ पञ्चर्चं सूक्कम् ।।
विषय
[१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (पूर्वीः गिरः) = सृष्टि के प्रारम्भ में दी जानेवाली ये ज्ञान की वाणियाँ सदा (त्वे च) = आप में ही (संजग्मुः) = संगत होती हैं। (च) = और (विभ्वः) = ये विस्तृतव्यापक सब विषयों का व्यापन करनेवाली (मनीषा:) = मतियाँ- ज्ञान (त्वद् वियन्ति) = आप से ही बाहिर आते हैं। आप ही इनके स्रोत हैं। [२] (पुरा) = पहले (नूनं च) = और अब भी अर्थात् सदा (ऋषीणां स्तुतयः) = तत्त्वद्रष्टाओं से की जानेवाली स्तुतियाँ तथा (उक्थार्का) = [उक्थ अर्का] स्तुति के साधनभूत मन्त्र (इन्द्रे अधि) = उस प्रभु में ही (पस्पृध्रे) = स्पर्धावाले होते हैं । अर्थात् एक से एक आगे बढ़कर ये ऋषि उस प्रभु का स्तवन करनेवाले होते हैं ।
पदार्थ
भावार्थ– सब वेदवाणियाँ प्रभु में ही निहित हैं। प्रत्येक सृष्टि के प्रारम्भ में प्रभु से ही ये व्यापक ज्ञान की वाणियाँ उद्गत होते हैं। सब तत्त्वद्रष्टा लोग एक दूसरे से बढ़कर प्रभु-स्तवन में प्रवृत्त होते हैं ।
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात राजा व प्रजा यांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.
भावार्थ
हे राजा ! या जगात योग्य आणि अयोग्य लोक असतात. त्यांच्यापैकी प्रशंसा करण्यायोग्य उत्तम लोकांचे साह्य घेऊन धर्मपूर्वक राज्याचे पालन कर. ॥ १ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, lord giver of thought, speech and knowledge, all universal thoughts and diverse forms and words of the eternal Word, all languages past, present and future, proceed from you, return unto you and abide in you. For sure, all ancient hymns and recitations, all interpretive adorations of the seers divining into the visions and meanings of the mantras vie with each other to reach and concentrate on the glory of Indra.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should a king do-is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Indra ! (giver of knowledge), those persons enjoy happiness, who receive from you ancient good and refined words and are thereby united with noble virtues; those who pervading good virtues (being very virtuous) controllers of mind and active, approach each other variously. The praises of the Rishi-knowers of the meanings of the Vedas and true preachers, from ancient days compete with another in extolling the Lord. Their admirable and venerable speeches all praise Indra- the Lord of the world.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O king! there are able men in the world and there are unworthy persons, so you should associate yourself with admirable good persons and having good helpers, govern the state constantly with righteousness.
Foot Notes
(विभवः) विभवो व्याप्तशुभगुणाः = Рervading good virtues i. e. very virtuous. (मनीषा:) मनस ईषिणो । गमनकक्तरिः ईष गतिहिंसा दर्शनषु (भ्वा०) अत्र गत्यर्थादर्शनार्थश्रि | = Controllers of mind and active. (उक्थार्का) उक्थानि प्रश्न्सितानि वचनान्यकाणि पूजनीयानि च। (उक्थाम्) वचपरिशाषणे पातृ तुप्ति चिरिधिसिचिभ्यस्थक् (Un 2,7) इतिथक प्रत्यण। अहं-पूजयाम (भ्वा०)। = Admire able and venerable words.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal