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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 34 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 34/ मन्त्र 5
    ऋषिः - शुनहोत्रः देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अस्मा॑ ए॒तन्मह्यां॑ङ्गू॒षम॑स्मा॒ इन्द्रा॑य स्तो॒त्रं म॒तिभि॑रवाचि। अस॒द्यथा॑ मह॒ति वृ॑त्र॒तूर्य॒ इन्द्रो॑ वि॒श्वायु॑रवि॒ता वृ॒धश्च॑ ॥५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अस्मै॑ । ए॒तत् । महि॑ । आ॒ङ्गू॒षम् । अ॒स्मै॒ । इन्द्रा॑य । स्तो॒त्रम् । म॒तिऽभिः॑ । अ॒वा॒चि॒ । अस॑त् । यथा॑ । म॒ह॒ति । वृ॒त्र॒ऽतूर्ये॑ । इन्द्रः॑ । वि॒श्वऽआ॑युः । अ॒वि॒ता । वृ॒धः॒ । च॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अस्मा एतन्मह्यांङ्गूषमस्मा इन्द्राय स्तोत्रं मतिभिरवाचि। असद्यथा महति वृत्रतूर्य इन्द्रो विश्वायुरविता वृधश्च ॥५॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अस्मै। एतत्। महि। आङ्गूषम्। अस्मै। इन्द्राय। स्तोत्रम्। मतिऽभिः। अवाचि। असत्। यथा। महति। वृत्रऽतूर्ये। इन्द्रः। विश्वऽआयुः। अविता। वृधः। च ॥५॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 34; मन्त्र » 5
    अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 6; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्विद्वद्भिः कथं वर्त्तितव्यमित्याह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! यथा मतिभिरस्मा उपदेशकायैतन्मह्याङ्गूषं स्तोत्रमवाचि यथाऽस्मा इन्द्रायैतन्मह्याङ्गूषं स्तोत्रमवाचि यथेन्द्रो महति वृत्रतूर्ये वृधोऽविता विश्वायुश्चासत्तथा युष्माभिरप्यनुष्ठेयम् ॥५॥

    पदार्थः

    (अस्मै) (एतत्) (महि) महत् (आङ्गूषम्) प्राप्तव्यम् (अस्मै) (इन्द्राय) ऐश्वर्यकराय राज्ञे (स्तोत्रम्) स्तुवन्ति येन तत् (मतिभिः) मननशीलैर्मनुष्यैः (अवाचि) उच्यते (असत्) भवेत् (यथा) (महति) (वृत्रतूर्ये) सङ्ग्रामे (इन्द्रः) शत्रूणां विदारको योद्धा (विश्वायुः) पूर्णायुः (अविता) रक्षकः (वृधः) वर्धकः (च) ॥५॥

    भावार्थः

    येऽविद्वांसः स्युस्ते विद्वदनुकरणेन स्वकीयवर्त्तमानमुत्तमं कुर्य्युरिति ॥५॥ अत्रेन्द्रराजप्रजागुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति चतुस्त्रिंशत्तमं सूक्तं षष्ठो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर विद्वानों को कैसा वर्त्ताव करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! (यथा) जैसे (मतिभिः) विचारशील मनुष्यों से (अस्मै) इस उपदेशक के लिये (एतत्) यह (महि) बड़ा (आङ्गूषम्) प्राप्त होने योग्य (स्तोत्रम्) स्तोत्र (अवाचि) कहा जाता है और जैसे (अस्मै) इस (इन्द्राय) ऐश्वर्य्य के करनेवाले राजा के लिये यह बड़ा प्राप्त होने योग्य स्तोत्र कहा जाता है और जैसे (इन्द्रः) शत्रुओं का नाश करनेवाला योद्धा (महति) बड़े (वृत्रतूर्ये) सङ्ग्राम में (वृधः) बढ़ाने और (अविता) रक्षा करनेवाला (विश्वायुः च) और पूर्ण अवस्थायुक्त (असत्) होवे, वैसे आप लोगों को भी करना चाहिये ॥५॥

    भावार्थ

    जो अविद्वान् हों, वे विद्वानों के अनुकरण से अपना वर्त्ताव उत्तम करें ॥५॥ इस सूक्त में इन्द्र, राजा और प्रजा के गुणवर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह चौंतीसवाँ सूक्त और छठा वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    मरु में जलों के तुल्य यज्ञों से प्रभु की महिमा की वृद्धि ।

    भावार्थ

    ( मतिभिः ) मननशील विद्वान पुरुषों द्वारा (अस्मै इन्द्राय) उस ऐश्वर्यवान् के लिये ( एतत् ) यह ( महि ) महत्व पूर्ण, ( आंगूषम् ) ग्रहण करने योग्य, ( स्तोत्रं ) स्तुति वचन ( अवाचि ) कहा या उपदेश किया जावे ( यथा ) जिससे ( महति ) बड़े भारी (वृत्र-तूर्ये) विघ्नकारी दुष्ट पुरुषों के नाश करने वाले संग्राम के अवसर में ( इन्द्रः ) वह ऐश्वर्यवान्, शत्रुहन्ता ( विश्वायुः ) पूर्णायु, सर्वत्र पहुंचने में समर्थ, समस्त मनुष्यों का स्वामी, (अविता ) सबका रक्षक (वृधः च असत् ) सबका बढ़ाने हारा हो । इति षष्ठो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शुनहोत्र ऋषिः ।। इन्द्रो देवता । त्रिष्टुप् छन्दः ॥ पञ्चर्चं सूक्कम् ।।

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    विषय

    'संग्राम में रक्षक व वर्धक' प्रभु

    पदार्थ

    [१] (अस्मै) = इस प्रभु के लिये (एतत्) = यह (महि) = महनीय (अंगूषम्) [आघोषा नि० ५ । ११] (उच्चैः) = आह्वान किया जाता है। (अस्मै इन्द्राय) = इस परमैश्वर्यशाली प्रभु के लिये (स्तोत्रम्) = स्तोत्र (मतिभिः) = मननपूर्वक स्तुति करनेवालों से (अवाचि) = उच्चारित होता है । [२] (यथा) = जिससे (महति वृत्रतूर्ये) = इस महान् संग्राम में (इन्द्रः) = परमैश्वर्यशाली प्रभु ! (विश्वायुः) = सर्वत्रगन्ता होता हुआ (अविता) = हमारा रक्षण करनेवाला (च) = और (वृधः) = वृद्धि को करनेवाला (असत्) हो ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु के लिये हम ऊँचे से आह्वान व स्तोत्र को करनेवाले हों जिससे वे प्रभु संग्राम में हमारे रक्षक व वृद्धि करनेवाले हों। प्रभु से रक्षित होनेवाला यह मनुष्य 'नर' बनता है, उन्नति-पथ पर अपने को प्राप्त करानेवाला । यह 'इन्द्र' का स्तवन करता है -

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे अविद्वान असतील त्यांनी विद्वानांचे अनुकरण करून आपले वर्तन उत्तम ठेवावे. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    For this Indra, this ruler, this giver of the light of life, is this exalted song of praise and adoration sung and offered by faithful and intelligent devotees so that for the victory of light over darkness and ignorance in this battle of life Indra, lord of all life and the world, may be our protector and guardian for advancement.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should the enlightened persons do-is further told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men ! as thoughtful persons utter good and great eulogy (praise) for this preacher of truth, as they praise a king, who causes prosperity and as a warrior, who is destroyer of the enemies in a great battle, becomes increaser of happiness and protector and attains full span of life, so you should also do.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those who are not highly learned themselves, should make their life noble by following the footsteps of the enlightened persons.

    Foot Notes

    (आङ्गगूषम्) प्राप्तव्यम् । यद्यपि (NKT 5,2,11) आङ्ग-सः स्तोम आघोषः इत्युक्तं तथापि अत्र आङ्ग-षपदं स्तोत्रस्य विशेषणम् इति अगि-रातौ (भ्वा०) इति धातोर्निष्यन्नमरवा गतेस्त्रिष्वर्थेषु प्राप्तयर्थं ग्रहणमच कृत्वा भाष्यकृता व्याख्यातम् ।= Worthy of attainment, good. (वृत्रतूर्ये) सङ्ग्रामे | = In a battle.

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