ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 50/ मन्त्र 3
उ॒त द्या॑वापृथिवी क्ष॒त्रमु॒रु बृ॒हद्रो॑दसी शर॒णं सु॑षुम्ने। म॒हस्क॑रथो॒ वरि॑वो॒ यथा॑ नो॒ऽस्मे क्षया॑य धिषणे अने॒हः ॥३॥
स्वर सहित पद पाठउ॒त । द्या॒वा॒पृ॒थि॒वी॒ इति॑ । क्ष॒त्रम् । उ॒रु । बृ॒हत् । रो॒द॒सी॒ इति॑ । श॒र॒णम् । सु॒सु॒म्ने॒ इति॑ सुऽसुम्ने । म॒हः । क॒र॒थः॒ । वरि॑वः । यथा॑ । नः॒ । अ॒स्मे इति॑ । क्षया॑य । धि॒ष॒णे॒ इति॑ । अ॒ने॒हः ॥
स्वर रहित मन्त्र
उत द्यावापृथिवी क्षत्रमुरु बृहद्रोदसी शरणं सुषुम्ने। महस्करथो वरिवो यथा नोऽस्मे क्षयाय धिषणे अनेहः ॥३॥
स्वर रहित पद पाठउत। द्यावापृथिवी इति। क्षत्रम्। उरु। बृहत्। रोदसी इति। शरणम्। सुसुम्ने इति सुऽसुम्ने। महः। करथः। वरिवः। यथा। नः। अस्मे इति। क्षयाय। धिषणे इति। अनेहः ॥३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 50; मन्त्र » 3
अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 8; मन्त्र » 3
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अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 8; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्विद्वांसः किंवत्किं कुर्य्युरित्याह ॥
अन्वयः
हे अध्यापकोपदेशकौ ! युवां यथा रोदसी सुषुम्ने धिषणे द्यावापृथिवी न उरु बृहच्छरणं क्षत्रं कुरुतस्तथा महो वरिव उताऽनेहोऽस्मे क्षयाय करथः कुर्य्यातम् ॥३॥
पदार्थः
(उत) (द्यावापृथिवी) विद्युद्भूमी (क्षत्रम्) धनं राज्यं क्षत्रियकुलं वा (उरु) बहु (बृहत्) महत् (रोदसी) बहुकार्य्यकरे (शरणम्) आश्रयम् (सुषुम्ने) सुष्ठु सुखकरे (महः) महत् (करथः) (वरिवः) परिचरणम् (यथा) (नः) अस्माकम् (अस्मे) अस्मासु (क्षयाय) निवासाय (धिषणे) धारिके (अनेहः) अहन्तव्यं सततं रक्षणीयं व्यवहारम् ॥३॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। येऽध्यापकोपदेशकाः सूर्यभूमिवत्सर्वेभ्यो विद्यादानधारणशरणानि प्रयच्छन्ति तथा ये सत्यस्याप्तानां विदुषां च सततं सेवां कुर्वन्ति ते सर्वथा माननीया भवन्ति ॥३॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर विद्वान् जन किसके तुल्य क्या करें, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे अध्यापक और उपदेशको ! तुम (यथा) जैसे (रोदसी) बहुत कार्य और (सुषुम्ने) सुन्दर सुख करनेवाली (धिषणे) व्यवहारों को धारण करनेवाली (द्यावापृथिवी) बिजुली और भूमि (नः) हमारे (उरु) बहुत (बृहत्) महान् (शरणम्) आश्रय और (क्षत्रम्) धन राज्य वा क्षत्रियकुल को सिद्ध करते हैं, वैसे (महः) बड़े (वरिवः) सेवन (उत) और (अनेहः) न नष्ट करने योग्य व्यवहार (अस्मे) हम लोगों में (क्षयाय) निवास करने के लिये (करथः) सिद्ध करो ॥३॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो अध्यापन और उपदेश करनेवाले जन सूर्य और भूमि के तुल्य सब को विद्यादान, धारण और शरण देते हैं तथा जो सत्य, यथार्थवक्ता और विद्वानों की सेवा करते हैं, वे सर्वथा माननीय होते हैं ॥३॥
विषय
सूर्य भूमिवत् स्त्री पुरुषों को उपदेश ।
भावार्थ
( उत ) और हे ( द्यावा पृथिवी ) सूर्य पृथिवी या आकाश और पृथिवी के समान प्रजा और राजा तथा माता पिता जनो ! आप दोनों ( उरु क्षत्रम् करथः ) बहुत बड़ा बल उत्पन्न करो । हे ( रोदसी ) एक दूसरे का सन्मार्ग वा धर्म मर्यादा में रोकने वा बांधने वाले स्त्री पुरुषो ! हे ( सु-सुम्ने) सुख से रहने वालो ! आप दोनों (बृहत् शरणं ) बड़ा गृह (करथः ) बनाओ । हे ( धिषणे ) धारण पोषण करने वाले जनो ! आप दोनों ( नः ) हमारे लिये ( यथा महः वरिवः करथः ) जिस प्रकार बड़ा भारी धन और सेवादि करते हैं उसी प्रकार ( नः क्षयाय ) हमारे रहने के लिये ( अनेहः ) पाप हत्यादि से रहित गृह, राज्य प्रबन्धादि करो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋजिश्वा ऋषिः ।। विश्वे देवा देवताः ॥ छन्दः–१, ७ त्रिष्टुप् । ३, ५, ६, १०, ११, १२ निचृत्त्रिष्टुप् । ४, ८, १३ विराट् त्रिष्टुप् । २ स्वराट् पंक्ति: । ९ पंक्ति: । १४ भुरिक् पंक्ति: । १५ निचृत्पंक्तिः ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ।।
विषय
'क्षत्रं, शरणं, वरिवः, अनेहः'
पदार्थ
[१] (उत) = और (द्यावापृथिवी) = द्युलोक व पृथिवीलोक (उत) = विशाल (क्षत्रम्) = बल को (करथः) = करते हैं। ये (सुषुम्ने) = उत्तम सुखों को प्राप्त करानेवाले (रोदसी) = द्यावापृथिवी (बृहत्) = वृद्धि के कारणभूत (शरणम्) = गृह को करते हैं। [२] हे द्यावापृथिवी! ऐसा करो कि (यथा) = जिससे (नः) = हमारे लिये (महः वरिवः) = महनीय धन को करनेवाले होवो । हे (धिषणे) = धारण करनेवाले द्यावापृथिवी ! आप (अस्मे क्षयाय) = हमारे उत्तम निवास के लिये (अनेहः) = निष्पापता को करिये।
भावार्थ
भावार्थ– द्यावापृथिवी की अनुकूलता से हम 'विशाल बल, वृद्धि के कारणभूत गृह, महनीय धन तथा निष्पापता' को प्राप्त करें ।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे अध्यापन व उपदेश करणारे लोक सूर्य व भूमीप्रमाणे सर्वांना विद्यादान, धारण व शरण देतात. तसेच खऱ्या विद्वानांची सेवा करतात ते सदैव माननीय असतात. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
And O heaven and earth, give us the strength of a mighty social order, O magnetic and electric energy of the earth and firmament, great givers of peace and comfort, provide us a vast home of comfort and joy. O noble and generous divinities of nature and humanity, great things as you do, give us the best of wealth and competence for our life on earth so that our home and family may be free from sin and violence.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should the enlightened men do like whom―is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O teachers and preachers ! as electricity and earth, which are performers of many works, accomplishers of good happiness, upholders, give us great and vast shelter, kingdom or wealth, in the same manner, give us great service, (use) and and inviolable dealing-worth preserving for our proper habitation.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those teachers and preachers, who give to all, the the gift of knowledge and fearlessness, like the sun and the earth and those, who constantly serve the cause of truth and absolutely truthful enlightened persons; become worthy of respect.
Foot Notes
(द्यावापृथिवी) विद्युद्भूमी । दयु-धातो धुंत्वर्थमादाय विद्युतग्रहणम | = Electricity and earth. (क्षत्रम्) धनं राज्यं क्षत्रियकुलं वा । क्षत्रं हिराष्ट्रम् (A B. 8, 2, 3, 4 ) क्षत्र मिति धननाम (NG 2, 10)। = Wealth kingdom or the family of the brave. (अनेहः) अहन्तव्यं सततं रक्षणीयं व्यवहारम् । = Inviolable dealing, worth preserving.
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