ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 52/ मन्त्र 4
अव॑न्तु॒ मामु॒षसो॒ जाय॑माना॒ अव॑न्तु मा॒ सिन्ध॑वः॒ पिन्व॑मानाः। अव॑न्तु मा॒ पर्व॑तासो ध्रु॒वासोऽव॑न्तु मा पि॒तरो॑ दे॒वहू॑तौ ॥४॥
स्वर सहित पद पाठअव॑न्तु । माम् । उ॒षसः॑ । जाय॑मानाः । अव॑न्तु । मा॒ । सिन्ध॑वः । पिन्व॑मानाः । अव॑न्तु । मा॒ । पर्व॑तासः । ध्रु॒वासः । अव॑न्तु । मा॒ । पि॒तरः॑ । दे॒वऽहू॑तौ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अवन्तु मामुषसो जायमाना अवन्तु मा सिन्धवः पिन्वमानाः। अवन्तु मा पर्वतासो ध्रुवासोऽवन्तु मा पितरो देवहूतौ ॥४॥
स्वर रहित पद पाठअवन्तु। माम्। उषसः। जायमानाः। अवन्तु। मा। सिन्धवः। पिन्वमानाः। अवन्तु। मा। पर्वतासः। ध्रुवासः। अवन्तु। मा। पितरः। देवऽहूतौ ॥४॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 52; मन्त्र » 4
अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 14; मन्त्र » 4
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अष्टक » 4; अध्याय » 8; वर्ग » 14; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्यैः कथमाचरणीयमित्याह ॥
अन्वयः
हे उपदेष्टारो ! यूयं देवहूतौ यथा जायमाना उषसो मामवन्तु पिन्वमानाः सिन्धवो माऽवन्तु ध्रुवासः पर्वतासो माऽवन्तु पितरो माऽवन्तु तथा शिक्षत ॥४॥
पदार्थः
(अवन्तु) रक्षन्तु (माम्) (उषसः) प्रभातवेलाः (जायमानाः) उत्पद्यमानाः (भवन्तु) (मा) माम् (सिन्धवः) नद्यः (पिन्वमानाः) सिञ्चन्त्यः (अवन्तु) (मा) माम् (पर्वतासः) शैलाः (ध्रुवासः) निश्चलाः (अवन्तु) (मा) माम् (पितरः) जनका अध्यापका ऋतवो वा (देवहूतौ) दिव्यगुणानां विदुषां वा संग्रहणे ॥४॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! यूयमेवं युक्ताहारविहारं कुर्यात येन सर्वे सृष्टिस्थाः पदार्था दुःखप्रदा न स्युः शुभान् गुणांश्च यूयं प्राप्नुत ॥४॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्यों को कैसा आचरण करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे उपदेश करनेवालो ! तुम (देवहूतौ) दिव्यगुण वा विद्वानों के संग्रह में जैसे (जायमानाः) उत्पद्यमान (उषसः) प्रभातवेलाएँ (माम्) मेरी (अवन्तु) रक्षा करें तथा (पिन्वमानाः) सेवन करती हुई (सिन्धवः) नदियाँ (मा) मेरी (अवन्तु) रक्षा करें और (ध्रुवासः) निश्चल (पर्वतासः) शैल पहाड़ (मा) मेरी (अवन्तु) रक्षा करें और (पितरः) पिता वा पढ़ानेवाला वा ऋतु वसन्त आदि (मा) मेरी (अवन्तु) रक्षा करें, वैसी शिक्षा करो ॥४॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! तुम इस प्रकार युक्त आहार-विहार करो, जिससे सब सृष्टिस्थ पदार्थ दुःख देनेवाले न हों और शुभ गुणों को तुम लोग प्राप्त होओ ॥४॥
विषय
मनुष्य के उत्तम रक्षक ।
भावार्थ
( माम् ) मुझको ( जायमानाः ) नित्य उत्तम गुणों वा प्रकाशों से प्रकट होने वाली प्रभात वेलाएं और शत्रु के दर्प को दग्ध करने वाली सेनाएं, और मुझे चाहने वाली प्रजाएं ( अवन्तु ) मेरी रक्षा करें । ( पिन्वमानाः ) सींचने वाली (सिन्धवः) वेगवती नदियें और बढ़ते समुद्र तथा तृप्त होते हुए प्राणगण, और वेग से जाने वाले अश्व आदि ( मा अवन्तु ) मेरी रक्षा करें । ( ध्रुवासः पर्वतासः ) स्थिर रहने वाले पर्वत ( मा अवन्तु ) मेरी रक्षा करें । ( देव-हूतौ ) शुभ गुणों की प्राप्ति और विद्वानों की अर्चना तथा प्रभु की उपासना-काल में ( पितरः ) पालक जन गुरु माता पिता आदि सम्बन्धी तथा ऋतु गण, और ओषधि आदि पदार्थ सभी ( मा अवन्तु ) मेरी रक्षा करें और मुझे प्राप्त हों ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋजिश्वा ऋषिः ।। विश्वेदेवा देवताः ।। छन्दः – १, ४, १५, १६ निचृत्त्रिष्टुप् । २, ३, ६, १३, १७ त्रिष्टुप् । ५ भुरिक् पंक्ति: । ७, ८, ११ गायत्री । ९ , १०, १२ निचृद्गायत्री । १४ विराड् जगती ॥
विषय
यज्ञिय जीवन
पदार्थ
[१] (जायमानाः) = प्रादुर्भूत होती हुई (उषस:) = उषाएँ (मा अवन्तु) = मेरा रक्षण करें । (पिन्वमानाः) = जलों से वृद्धि को प्राप्त करती हुईं (सिन्धवः) = ये नदियाँ (आ अवन्तु) = मेरा रक्षण करें। ये (ध्रुवासः) = अपने स्थान पर निश्चल (पर्वतासः) = पर्वत मा अवन्तु मुझे रक्षित करें। सदा सब पदार्थ मेरी अनुकूलतावाले हों। [२] इस अनुकूल परिस्थिति में (देवहूतौ) = दिव्यगुणों के आह्वान के स्थानभूत यज्ञों में (पितरः) = पितर (मा अवन्तु) = मेरा रक्षण करें। माता, पिता, आचार्यों द्वारा ऐसी परिस्थिति पैदा की जाये कि मैं प्रारम्भ से ही यज्ञिय वृत्तिवाला बनूँ । इस वृत्ति के द्वारा मेरे में सद्गुणों का विकास हो।
भावार्थ
भावार्थ- उषाएँ, नदियाँ, पर्वत सब हमारा कल्याण करनेवाले हों। माता, पिता, आचार्य हमें यज्ञिय जीवनवाला बनायें।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! तुम्ही या प्रकारचा आहार-विहार करा ज्यामुळे जगातील पदार्थ दुःख देणार नाहीत. तुम्ही शुभ गुणांना प्राप्त करा. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Let the rising dawns inspire me. May the swelling seas raise and promote us. Let the steadfast mountains, deep clouds and generous warriors defend me. May the paternal powers of nature and humanity protect and advance us in our holy programmes of advancement in values and culture.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How should men behave-is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O preachers ! teach me in such a manner, that the dawn when, manifested protect us in the acceptance of good virtues or the association of highly learned persons. May the flowing and sprinkling rivers protect me. May the firm mountains guard me and may my parents or teachers or seasons preserve me.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men ! you should be so regular in all your habits of taking food and walking etc. that no article of the world may cause suffering or misery to you. You should also accept good virtues.
Foot Notes
(सिन्धव:) नम: । सिन्धवः इति नदीनाम (NG 1, 13)। = Rivers (पिन्वमाना:) सिंचन्त्यः । पिवि-सेवने सेचने चेत्येके (भ्वा.) अत्र सेचनार्थः स्पष्ट: । = Sprinkling or flowing. (पितर:) जनका अध्यापका ऋतवो वा । ऋतवः पितरः (कोषीतकी वां. 5, 7 ) विद्वांसोहिदेवा ( S. B. 3, 7, 3, 10 ) । = Parents, teachers or seasons. (देवहूतौ) दिव्यगुणानां विदुषां वा सङ्ग्रहणे । हु-दानादनयोः आदाने व (जु.) अत्र आदानार्थे आदानं ग्रहणं स्वीकरणसंग्रहणं वा । = In the act of the acceptance of the divine virtues or enlightened persons.
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