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ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 73/ मन्त्र 1
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - बृहस्पतिः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
यो अ॑द्रि॒भित्प्र॑थम॒जा ऋ॒तावा॒ बृह॒स्पति॑राङ्गिर॒सो ह॒विष्मा॑न्। द्वि॒बर्ह॑ज्मा प्राघर्म॒सत्पि॒ता न॒ आ रोद॑सी वृष॒भो रो॑रवीति ॥१॥
स्वर सहित पद पाठयः । अ॒द्रि॒ऽभित् । प्र॒थ॒म॒ऽजाः । ऋ॒तऽवा॑ । बृह॒स्पतिः॑ । आ॒ङ्गि॒र॒सः । ह॒विष्मा॑न् । द्वि॒बर्ह॑ऽज्मा । प्रा॒घ॒र्म॒ऽसत् । पि॒ता । नः॒ । आ । रोद॑सी॒ इति॑ । वृ॒ष॒भः । रो॒र॒वी॒ति॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यो अद्रिभित्प्रथमजा ऋतावा बृहस्पतिराङ्गिरसो हविष्मान्। द्विबर्हज्मा प्राघर्मसत्पिता न आ रोदसी वृषभो रोरवीति ॥१॥
स्वर रहित पद पाठयः। अद्रिऽभित्। प्रथमऽजाः। ऋतऽवा। बृहस्पतिः। आङ्गिरसः। हविष्मान्। द्विबर्हऽज्मा। प्राघर्मऽसत्। पिता। नः। आ। रोदसी इति। वृषभः। रोरवीति ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 73; मन्त्र » 1
अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 17; मन्त्र » 1
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अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 17; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ राजा किंवत् कीदृशः स्यादित्याह ॥
अन्वयः
हे राजन् ! यः प्रथमजा अद्रिभिदृतावा बृहस्पतिराङ्गिरसो हविष्मान् द्विबर्हज्मा प्राघर्मसन्नः पितेव वृषभोऽद्रिभिद् रोदसी आ रोरवीति तद्वत्त्वं भव ॥१॥
पदार्थः
(यः) (अद्रिभित्) मेघच्छेत्ता (प्रथमजाः) यः प्रथमं जातः (ऋतावा) य ऋतं जलं संवनति भजति सः (बृहस्पतिः) बृहतां पृथिव्यादीनां पालकः (आङ्गिरसः) योऽङ्गिरसां वायुविद्युतामयमुत्पन्नः (हविष्मान्) हवींषि हुतानि द्रव्याणि विद्यन्ते यस्मिन् (द्विबर्हज्मा) यो द्वाभ्यां बृंहते स द्विबर्हस्तेन द्विबर्हेण युक्ता ज्मा भूमिर्यस्य (प्राघर्मसत्) यः प्रकृष्टं समन्ताद् घर्मं प्रतापं सनति सः (पिता) पालकः (नः) अस्माकम् (आ) (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (वृषभः) वर्षकः (रोरवीति) विद्युदादिना भृशं शब्दं करोति ॥१॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यो राजा मेघस्य सूर्यइव शत्रूणां विदारको ज्येष्ठो महतां धर्मात्मनां पालकः प्रजावान् पृथिव्यां सुखवर्षको भूत्वा प्रजासु न्यायं भृशमुपदिशेत्स एव पृथिवीवत् क्षमाशीलः प्रतापवान् प्रजासु पितृवद्वर्त्तेत ॥१॥
हिन्दी (3)
विषय
अब तीन ऋचावाले तिहत्तरवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में राजा किसके तुल्य कैसा हो, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे राजन् ! (यः) जो (प्रथमजाः) प्रथम उत्पन्न हुआ (अद्रिभित्) मेघों का विदीर्ण करने और (ऋतावा) जल को अच्छे प्रकार सेवनेवाला (बृहस्पतिः) पृथिवी आदि का रक्षक और (आङ्गिरसः) वायु और बिजुलियों में उत्पन्न हुआ (हविष्मान्) जिसमें हवि होमे हुए विद्यमान जो (द्विबर्हज्मा) दो से बढ़ता है, उससे युक्त भूमि जिसकी वह (प्राघर्मसत्) प्रताप का सेवनेवाला (नः) हमारा (पिता) पालनेवाले के समान (वृषभः) वर्षा करानेवाला मेघों को छिन्न-भिन्न करनेवाला (रोदसी) आकाश और पृथिवी को प्राप्त हो (आ, रोरवीति) बिजुली आदि के योग से सब ओर से शब्द करता है, उसके तुल्य तुम होओ ॥१॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो राजा, मेघ का सूर्य जैसे शत्रुओं का विदीर्ण करनेवाला, ज्येष्ठ, महात्मा, धर्मात्मा जनों की पालना करनेवाला, प्रजावान्, पृथिवी पर सुख वर्षानेहारा होकर प्रजाओं में न्याय का निरन्तर उपदेश करे, वही पृथिवी के तुल्य क्षमाशील और प्रतापवान् तथा प्रजाजनों में पिता के समान वर्त्ते ॥१॥
विषय
गृहपति परमेश्वर पिता और राष्ट्रपालक राजा ।
भावार्थ
(यः) जो (अद्रि-भित्) मेघों को छिन्न भिन्न करने वाले सूर्य के समान, (अद्रिभित् ) शस्त्रयुक्त सैन्यों को भी भेदने में समर्थ ( प्रथ-मजाः ) प्रथम मुख्य रूप से प्रकट होने वाला, ( ऋतावा ) न्याय, सत्य मार्ग, और ऐश्वर्य, तेज को सेवन करने वाला, ( हविष्मान् ) अन्नों का स्वामी, ( अङ्गिरसः ) जलते अङ्गारों के समान तेजस्वी विद्वान् पुरुषों का स्वामी है, ( बृहस्पतिः ) वही ‘बृहस्पति’ अर्थात् बड़े भारी राष्ट्र का पालक, स्वामी होने योग्य है । वह (द्विबर्हज्मा ) शास्त्र बल और बुद्धिबल दोनों से भूमि या राष्ट्र की वृद्धि करने वाला ( प्राधर्मसत् ) उत्तम तेज को धारण करने वाला ( नः पिता ) हमारा वास्तविक पिता के समान पालक होकर ( रोदसी ) सूर्य पृथिवी, राजा प्रजा वर्ग दोनों को (आ रोरवीति) सब प्रकार से आज्ञा करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ।। बृहस्पतिर्देवता ॥ छन्दः – १, २ त्रिष्टुप् । ३ विराट् त्रिष्टुप् ।। तृचं सूक्तम् ॥
विषय
'अद्रिभित्' बृहस्पति
पदार्थ
[१] (यः) = जो प्रभु (अद्रिभित्) = हमारे अविद्या पर्वत का विदारण करनेवाले हैं। (प्रथमजा:) = सृष्टि से पूर्व ही विद्यमान हैं 'हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे'। (ऋतावा) = ऋतवाले हैं, प्रभु के तीव्र तप से ही ऋत की उत्पत्ति होती है 'ऋतं च सत्यञ्चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत' । (बृहस्पतिः) = [ब्रह्मणस्पतिः] वेदज्ञान के रक्षक हैं। (आंगिरसः) = उपासकों के अंग-प्रत्यंग में रस का संञ्चार करनेवाले हैं । (हविष्मान्) = प्रशस्त हविवाले हैं, सृष्टियज्ञ के महान् होता है। [२] (द्विबर्हज्मा) = दोनों लोकों में प्रवृद्ध गतिवाले हैं [द्वि-बर्ह-ज्मा] द्युलोक व पृथिवीलोक में सर्वत्र प्रभु की क्रिया विद्यमान है। (प्राधर्मसत्) = प्रकृष्ट तेज में आसीन होनेवाले हैं, तेज:पुञ्ज हैं, तेज ही तेज हैं। (नः पिता) = हम सबके पिता हैं। (वृषभ:) = ये सुखों का वर्षण करनेवाले प्रभु हैं (रोदसी) = इन द्यावापृथिवी में (आरोरवीति) = खूब ही गर्जना करते हैं । इन लोकों में स्थित सब मनुष्यों के हृदयों में स्थित होकर उन्हें कर्तव्याकर्तव्य का उपदेश करते हैं। अच्छे कर्मों में उत्साह व बुरे कर्मों में भय, शंका व लज्जा प्रभु ही तो प्राप्त कराते हैं।
भावार्थ
भावार्थ - ज्ञान के स्वामी प्रभु ही हमारे अविद्या पर्वत का विदारण करते हैं। हमें तेजस्वी बनाते हैं। हृदयस्थ रूपेण कर्तव्य की प्रेरणा देते हैं।
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात बृहस्पतीच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. मेघाचे सूर्य जसे विदारण करतो तसे जो राजा शत्रूचे विदारण करणारा, ज्येष्ठ, महात्मा, धर्मात्मा जनांचे पालन करणारा, प्रजावान, पृथ्वीवर सुखाचा वर्षाव करणारा असून प्रजेत न्यायाचा निरंतर उपदेश करतो, त्याने पृथ्वीप्रमाणे क्षमाशील व पराक्रमी बनून प्रजेशी पित्याप्रमाणे वागावे. ॥ १ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Breaking the clouds and shattering mountains, first self-manifested among things born, the very embodiment of universal law and the truth of existence, Brhaspati, lord creator, ruler, protector and promoter of the expansive universe is the very essence of the life and breath of existence who wields and governs all matters and materials of the world. Lord and master of the earth by virtue of knowledge and power of action, illustrious with the light and fire of life, he is our father generator who, like the mighty thunder, proclaims his power and presence across heaven and earth.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How should a king be and like whom is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O king ! you should be like the sun, who is dispenser of clouds, first born, producer of water, sustainer of the earth and other worlds, born from (the combination of) air and electricity, partaker of the oblations, the support of the earth in which fire is kindled-born by rubbing of two sticks (Aranis), repository and diffuser of heat, causer of rain, who is like our father, makes great sound in the two worlds-the heaven and the earth, through lightning etc.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The king who is the destroyer of his enemies, as the sun is of clouds, the greatest, nourisher of the great and righteous persons, Rainer of happiness on earth, preaches justice among his subjects repeatedly, he being man of forgiving nature-like the earth and mighty, should behave like father towards his subjects.
Foot Notes
(अद्रिभित्) मेघच्छेत्ता । अद्रिरिति मेघनाम (NG 1, 10) = Breaker of the clouds. (बृहस्पतिः) बृहतां पृथिव्यादीनां पालक: । बृहस्पतिवृहतः पाता वा पालयिता वा (NKT 10, 1, 12 ) = Nourisher or sustainer of the earth and other worlds. (अङ्गिरसः) योऽङ्गिरसां वायु-विदयुताम् अयमुत्पन्न: । अङ्गिरा उप्लागिनः (S. Br. 1, 4, 1, 25) प्राणो वा अङ्गिरसः (S. Br. 6, 1, 2, 8) = Born of the air and electricity. (द्विबर्हज्मा) यो द्वाभ्या बृहते स द्विबर्हस्तेन द्विबर्हेण युक्ता ज्मा भूमिर्यस्य । = The supporter of the earth on which fire is kindled.
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