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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 73 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 73/ मन्त्र 3
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - बृहस्पतिः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    बृह॒स्पतिः॒ सम॑जय॒द्वसू॑नि म॒हो व्र॒जान् गोम॑तो दे॒व ए॒षः। अ॒पः सिषा॑स॒न्त्स्व१॒॑रप्र॑तीतो॒ बृह॒स्पति॒र्हन्त्य॒मित्र॑म॒र्कैः ॥३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    बृह॒स्पतिः॑ । सम् । अ॒ज॒य॒त् । वसू॑नि । म॒हः । व्र॒जान् । गोऽम॑तः । दे॒वः । ए॒षः । अ॒पः । सिसा॑सन् । स्वः॑ । अप्र॑तिऽइतः । बृह॒स्पतिः॑ । हन्ति॑ । अ॒मित्र॑म् । अ॒र्कैः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    बृहस्पतिः समजयद्वसूनि महो व्रजान् गोमतो देव एषः। अपः सिषासन्त्स्व१रप्रतीतो बृहस्पतिर्हन्त्यमित्रमर्कैः ॥३॥

    स्वर रहित पद पाठ

    बृहस्पतिः। सम्। अजयत्। वसूनि। महः। व्रजान्। गोऽमतः। देवः। एषः। अपः। सिसासन्। स्वः। अप्रतिऽइतः। बृहस्पतिः। हन्ति। अमित्रम्। अर्कैः ॥३॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 73; मन्त्र » 3
    अष्टक » 5; अध्याय » 1; वर्ग » 17; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृशो भवेदित्याह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! यथा महो देव एषो बृहस्पतिर्गोमतो व्रजान् हत्वाऽपो वर्षयित्वा जगत्पालयति तथा शत्रुभिरप्रतीतो बृहस्पती राजाऽर्कैः प्रजाः सिषासन्नमित्रं हन्ति शत्रून् समजयद्वसूनि प्राप्नोति स्वर्जनयति ॥३॥

    पदार्थः

    (बृहस्पतिः) सूर्य इव बृहत्या वेदवाचः पालकः (सम्) सम्यक् (अजयत्) जयति (वसूनि) धनानि (महान्) सन् (व्रजान्) मेघान् (गोमतः) बहुकिरणयुक्तान् (देवः) देदीप्यमानः (एषः) प्रत्यक्षः (अपः) जलानि (सिषासन्) कर्मसमाप्तिं कर्त्तुमिच्छन् (स्वः) अन्तरिक्षमिवाक्षयं सुखम् (अप्रतीतः) यः शत्रुभिरप्रतीयमानः (बृहस्पतिः) बृहतो राज्यस्य यथावद्रक्षकः (हन्ति) (अमित्रम्) शत्रुम् (अर्कैः) वज्रादिभिः। अर्क इति वज्रनाम। (निघं०२.२०) ॥३॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यो राजा सूर्यवद्विद्याविनयसुसहायैः प्रकाशमानः प्रजाः पालयन् सर्वेभ्योऽभयं ददन् दुष्टकर्मकारिणो निवारयति स एवाऽत्र राजसु महान् राजा जायत इति ॥३॥ अत्र बृहस्पतिगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति त्रिसप्ततितमं सूक्तं सप्तदशो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वह कैसा हो, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जैसे (महः) महान् (देवः) देदीप्यमान (एषः) यह (बृहस्पतिः) सूर्य के समान वेदवाणी को पालनेवाला (गोमतः) बहुत किरणों से युक्त (व्रजान्) मेघों को छिन्न-भिन्न कर (अपः) जलों को वर्षाय जगत् की पालना करता है, वैसे शत्रुओं से (अप्रतीतः) न प्रतीत को प्राप्त होता हुआ (बृहस्पतिः) बड़े राज्य की यथावत् रक्षा करनेवाला राजा (अर्कैः) वज्र आदि के साथ प्रजाजनों के (सिषासन्) काम पूरे करने की इच्छा कर (अमित्रम्) शत्रु को (हन्ति) मारता है तथा शत्रुओं को (सम्, अजयत्) अच्छे प्रकार जीतता है तथा (वसूनि) धनों को प्राप्त होता और (स्वः) अन्तरिक्ष के समान अक्षय सुख को उत्पन्न करता है ॥३॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो राजा सूर्य के समान विद्या, विनय और अच्छे सहाय से प्रकाशमान, प्रजाजनों की पालना करता और सब के लिये अभयदान देता हुआ दुष्टकर्म करनेवालों की निवृत्ति करता है, वही यहाँ राजाओं में महान् राजा होता है ॥३॥ इस सूक्त में बृहस्पति के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह तिहत्तरवाँ सूक्त और सत्रहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    बड़े राष्ट्र के स्वामी के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    ( बृहस्पतिः ) बड़े राष्ट्र का स्वामी, (देवः) तेजस्वी दानशील राजा, ( महः वसूनि ) बहुत से ऐश्वर्यों और बसने योग्य जनपदों को ( सम् अजयत् ) समवाय बना कर विजय करे । और ( एषः ) वह ( महः ), बड़े २ ( गोमतः ) भूमियों से युक्त (व्रजान् ) मार्गों को भी मेघों को सूर्यवत् विजय करे । वह ( बृहस्पतिः ) बड़े ऐश्वर्य और बल सैन्यादि का पालक होकर ( अप्रतीतः ) अन्यों से मुक़ाबला न किया जाकर, ( अपः सिषासन् ) मेघवत् जलों की वर्षा करता हुआ और ( स्वः ) राष्ट्र में सुख सम्पदाएं विभक्त करता हुआ, ( अमित्रम् ) शत्रु जन को ( अर्कैः ) शास्त्रों द्वारा ( हन्ति ) दण्ड दे । इति सप्तदशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ।। बृहस्पतिर्देवता ॥ छन्दः – १, २ त्रिष्टुप् । ३ विराट् त्रिष्टुप् ।। तृचं सूक्तम् ॥

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    विषय

    'अपः स्वः' सिषासन्

    पदार्थ

    [१] (बृहस्पतिः) = ज्ञान का स्वामी प्रभु (वसूनि) = निवास के लिये आवश्यक सब धनों को हमारे लिये (समजयत्) = जीतते हैं। (एषः देव:) = ये हमारे लिये शत्रुओं को पराजित करने की कामनावाले प्रभु [दिव् विजिगीषा] (महः) = महत्त्वपूर्ण (गोमतः) = प्रशस्त इन्द्रियोंवाले (व्रजान्) = बाड़ों को [cowshed] हमारे लिये जीतते हैं । अर्थात् प्रभु सब वसुओं को प्राप्त कराते हैं और प्रशस्त इन्द्रियों को प्राप्त कराते हैं । [२] ये (अप्रतीतः) = किसी से भी प्रतिगत न होनेवाले, न रोके जानेवाले, प्रभु (अपः) = रेतः कणरूप जलों को तथा (स्वः) = प्रकाश को (सिषासन्) = हमारे साथ सम्भक्त करने की कामनावाले हैं। (बृहस्पतिः) = ये ज्ञान के स्वामी प्रभु (अर्कैः) = अर्चना के साधनभूत मन्त्रों के द्वारा (अमित्रं हन्ति) = हमारा विनाश करनेवाली द्वेष आदि की भावनाओं को (हन्ति) = नष्ट करते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- ज्ञान के स्वामी प्रभु हमें वसुओं को प्राप्त कराते हैं, प्रशस्त इन्द्रियों को देते हैं। रेतःकणों को व प्रकाश को प्राप्त कराते हुए ये ज्ञान के स्वामी प्रभु मन्त्रों द्वारा द्वेष आदि अमित्रभूत भावनाओं को विनष्ट करते हैं । अगले सूक्त के देवता 'सोमारुद्रौ' हैं सौम्य, परन्तु शत्रुओं के लिये भयङ्कर अथवा सोमरक्षण के द्वारा रोगों का द्रावण करनेवाले। सोमरक्षण रोगविनाश का हेतु तो है ही -

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जो राजा सूर्याप्रमाणे विद्या, विनय, उत्तम साह्य याद्वारे कीर्तिमान बनून प्रजेचे पालन करतो तोच राजांमध्ये महान राजा असतो. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    This divine and illustrious lord of the universe, Brhaspati, overcomes the enemies, wins wealth and happiness, and reveals mighty treasures of lands and light of knowledge. Ruling over the dynamics of waters, energies and the karmic flow of nature’s law and light of heaven and bliss of life, himself unseen and undefeated, Brhaspati destroys all unfriendly forces confronting humanity by the strikes of his thunderbolt of justice and punishment by law.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How should the king be-is further told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men! as the sun strikes down the clouds, that have within them the rays and by raining down water nourishes the world, in the same manner, this protector of the great Vedic speech like the sun, the great and splendid king, not loved by his enemies, good protector of the vast state, guarding his subjects well with thunderbolt like powerful weapons, kills his foes and conquers them, gains abundant wealth and generates undecaying happiness like the firmament.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    That king alone becomes great among the rulers, who shining like the sun with knowledge, humility and good helpers, nourishing his subjects and giving fearlessness to all, keeps away all evil-doers.

    Foot Notes

    (बृहस्पतिः) सूर्य इव बृहत्या वेदवाच: पालकः । = The protector of the great Vedic speech like the sun. (वृहस्पति:) वृहतो राज्यस्य यथावद्रक्षकः। वाग वै बृहती तस्या एष, पति स्नास्मादु वृहस्पति (S. Br. 14, 4, 1, 22)= Good protector of the vast state. (व्रजान) मेघान। = Clouds. (अर्कै:) वज्रदिभि: । अर्क इति वज्रनाम (NG 2,20) = With powerful weapons.

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