ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 9/ मन्त्र 2
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - वैश्वानरः
छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
नाहं तन्तुं॒ न वि जा॑ना॒म्योतुं॒ न यं वय॑न्ति सम॒रेऽत॑मानाः। कस्य॑ स्वित्पु॒त्र इ॒ह वक्त्वा॑नि प॒रो व॑दा॒त्यव॑रेण पि॒त्रा ॥२॥
स्वर सहित पद पाठन । अ॒हम् । तन्तु॑म् । न । वि । जा॒ना॒मि॒ । ओतु॑म् । न । यम् । वय॑न्ति । स॒म्ऽअ॒रे । अत॑मानाः । कस्य॑ । स्वि॒त् । पु॒त्रः । इ॒ह । वक्त्वा॑नि । प॒रः । व॒दा॒ति॒ । अव॑रेण । पि॒त्रा ॥
स्वर रहित मन्त्र
नाहं तन्तुं न वि जानाम्योतुं न यं वयन्ति समरेऽतमानाः। कस्य स्वित्पुत्र इह वक्त्वानि परो वदात्यवरेण पित्रा ॥२॥
स्वर रहित पद पाठन। अहम्। तन्तुम्। न। वि। जानामि। ओतुम्। न। यम्। वयन्ति। सम्ऽअरे। अतमानाः। कस्य। स्वित्। पुत्रः। इह। वक्त्वानि। परः। वदाति। अवरेण। पित्रा ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 9; मन्त्र » 2
अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 11; मन्त्र » 2
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अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 11; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथाऽपत्यं कस्य भवतीत्याह ॥
अन्वयः
हे विद्वांसो ! यं समरेऽतमाना न वयन्ति। अयमिह कस्य स्वित्पुत्रः परोऽवरेण पित्रा सह वक्त्वानि वदाति यमतमानाः समरे न वयन्ति तं तन्तुमोतुं चाहन्न वि जानामि ॥२॥
पदार्थः
(न) (अहम्) (तन्तुम्) विस्तारम् (न) इव (वि) (जानामि) (ओतुम्) रचयितुम् (न) (यम्) (वयन्ति) व्याप्नुवन्ति (समरे) सङ्ग्रामे (अतमानाः) अतन्तः। अत्र व्यत्ययेनात्मनेपदम् (कस्य) (स्वित्) (पुत्रः) पवित्रः सुखप्रदो वा (इह) (वक्त्वानि) वक्तुं योग्यानि (परः) (वदाति) वदेत् (अवरेण) द्वितीयेन (पित्रा) पालकेनाऽऽचार्य्येण वा ॥२॥
भावार्थः
विदुषामयं सिद्धान्तोऽस्ति योऽयं द्वाभ्यां जायते यस्य द्वे मातरौ द्वौ च पितरौ वर्तेते स कस्य पुत्र इति वयं न विजानीमः। अत्रायं सिद्धान्तो यथोत्पादकयोः पुत्रोऽस्ति तथाऽऽचार्यविद्ययोरपि द्विजो वर्त्तत इति सर्वे विजानन्तु ॥२॥
हिन्दी (3)
विषय
अब अपत्य किसका होता है, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे विद्वान् जनो ! (यम्) जिसको (समरे) संग्राम में (अतमानाः) घूमते हुए जन (न) जैसे वैसे (वयन्ति) व्याप्त होते हैं, यह (इह) यहाँ (कस्य) किसका (स्वित्) भी (पुत्रः) पवित्र और सुख देनेवाला है (परः) अन्य (अवरेण) द्वितीय (पित्रा) पालक वा आचार्य के साथ (वक्त्वानि) कहने के योग्यों को (वदाति) कहे और जिसको घूमते हुए जन सङ्ग्राम में (न) नहीं व्याप्त होते हैं, उस (तन्तुम्) विस्तार को (ओतुम्) रचने को (अहम्) मैं (न) नहीं (वि) विशेष करके (जानामि) जानता हूँ ॥२॥
भावार्थ
विद्वानों का यह सिद्धान्त है कि जो दो से उत्पन्न होता है, जिसके दो माता और दो पिता हैं, वह किसका पुत्र है, यह हम लोग नहीं जानते हैं, ऐसा प्रश्न है। इस में सिद्धान्त यह है कि जैसे उत्पन्न करनेवाले माता पिता का पुत्र है, वैसे ही आचार्य और विद्या का भी वह द्विज पुत्र है, ऐसा सब लोग जानो ॥२॥
विषय
पिता से बढ़कर पुत्रवत् विद्वान् की स्थिति ।
भावार्थ
( अहं ) मैं ( न तन्तुं वि जानामि ) न तन्तु वा तनना ही जानता हूं और ( न ओतुम् ) न बुनना अथवा न बरनी हो जानता हूं और ( न ) न उसको जानता हूं ( यं ) जिसको ( समरे ) समर में गमन करने योग्य परम लक्ष्य के निमित्त ( अतमानाः ) जाते हुए ( वयन्ति ) बुनते हैं । इस विषय में ( कस्य स्वित् पुत्रः परः ) किसी का अति ज्ञानी पुत्र (अवरेण पित्रा ) उरे के, अल्प ज्ञानी पिता द्वारा, ( परः ) और उत्कृष्ट ज्ञानवान् होकर इस रहस्य के विषय में ( वक्त्वानि वदाति ) उपदेश करने योग्य वचनों का उपदेश कर सकता है । कोई ही ऐसा विलक्षण पुत्र उत्पन्न होता है जो अपने पिता वा गुरु से शिक्षा पाकर अपने पिता वा गुरु से भी अधिक ज्ञानवान् होकर ब्रह्मतत्व आदि वातों को यथार्थ रूप से बतला सके। नहीं तो हम जीवों में इतना अज्ञान है कि हम अरनी-बरनी और वस्त्रादि कुछ भी नहीं जानने वाले अनाड़ी के समान साधन, उपासना और साध्य कुछ भी नहीं जानते । और पैदा हो जाते हैं। याज्ञिकों के मत से–यज्ञ रूप वस्त्र है गायत्री आदि छन्द 'तन्तु' हैं, अध्वर्यु के कर्म 'ओतु' हैं, देवयजन स्थान 'समर है, उनमें उन सबका उपदेष्टा कोई ही होता है । ब्रह्मवादियों के मत से–यह जगत् प्रपञ्च रूप और दुर्विज्ञेय है, इसमें आकाशादि सूक्ष्म पञ्चभूत तन्तु हैं और स्थूल पञ्चभूत 'ओतु' हैं, संसारी जीव इस संसार 'समर' में निरन्तर जाते हुए क्या करते हैं यह पता नहीं लगता । इस रहस्य को कोई ही ज्ञानी बता सकता है । वैश्वानर प्रभु का रहस्य वही जाने ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ॥ वैश्वानरो देवता ॥ छन्दः – १ विराट् त्रिष्टुप् । ५ निचृत्त्रिष्टुप् । ६ त्रिष्टुप् । २ भुरिक् पंक्ति: । ३, ४ पंक्ति: । ७ भुरिग्जगती ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥
विषय
यज्ञ-वस्त्र के तन्तु व ओतु
पदार्थ
[१] (अहम्) = मैं यज्ञरूप वस्त्र के (तन्तुम्) = प्रागायत गायत्र्यादिच्छन्दरूप सूत्रों को, ताने को (न विजानामि) = नहीं जानता हूँ । (ओतुम्) = यजुः तथा आध्वर्यव कर्म रूप तिरश्चीन सूत्रों को भी, बाने को भी (न) = नहीं जानता हूँ। मैं उस यज्ञरूप वस्त्र को भी (न) = नहीं जानता हूँ, (यम्) = जिसको (समरे) = [संगमने] सबके मिलकर बैठने के स्थान देवयजन में (अतमानाः) = गति करते हुए (ऋत्विज) = लोग (वयन्ति) = बुनते हैं। यज्ञ को मैं पूरा-पूरा समझ नहीं पाता। [२] मैं (कस्य स्वित् पुत्रः) = भला किस का पुत्र हूँ? इस बात को भी मैं ठीक से नहीं जानता। (इह) = इस जीवन में (परः) = वे पर प्रभु (वक्त्वानि) = वक्तव्य बातों को (वदाति) = उच्चारित करते हैं। सृष्टि के प्रारम्भ में वे प्रभु सब उपदेष्टव्य बातों का प्रतिपादन करते हैं। बाद में (अवरेण पित्रा) = इहलोक में होनेवाले प्रभु माता-पिता के द्वारा वे प्रभु ही आनेवाली सन्तानों को उपदेश देते हैं। सृष्टि के प्रारम्भ में 'पर पिता' प्रभु 'अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा' आदि ऋषियों को ज्ञान देते हैं। फिर अवरकाल में होनेवाले लौकिक मातापिता अपने सन्तानों को ज्ञान देने लगते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- न तो हम यज्ञरूप अपने कर्त्तव्यों को पूरा-पूरा समझते हैं और नांही परम पिता प्रभु को जानते हैं। ये प्रभु ही सृष्टि के प्रारम्भ में कर्त्तव्य कर्मों का ज्ञान देते हैं। फिर अर्वाचीनकाल में माता-पिताओं से सन्तानों को ज्ञान दिया जाता है ।
मराठी (1)
भावार्थ
विद्वानांचा हा सिद्धांत आहे की, जो दोघांपासून उत्पन्न होतो व ज्याच्या दोन माता व दोन पिता आहेत तो कुणाचा पुत्र असतो, हे आम्ही जाणत नाही. तेव्हा याचा सिद्धांत असा आहे की, उत्पन्न करणाऱ्या माता-पिता यांचा पुत्र तर असतोच; परंतु आचार्य व विद्या यांचाही द्विज पुत्र (दुसऱ्यांदा जन्मलेला) असतो हे सर्वांनी जाणावे. ॥ २ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
I know not the warp nor the woof of the web of life. Nor do I know the design of the web which the weavers weave together in their constant concourse of nights and days. Whose son here or far off, pure and purifying, could say what ought to be said by virtue of the father, or teacher or the supreme teacher at the closest? Who knows?
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Whose is the offspring (i.e. The quality of an ideal) are told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned persons! I do not know either the warp or woof, I know not the web they weave when moving to the contest or battlefield. Whose pure (ideal, Ed.) son who is giver of happiness shall here speak words that must be spoken (meaning ideal. Ed.) without assistance from the father near him (meaning indolently or without any prompting. Ed.) Such a son is very rare.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
It is difficult for us (ordinary persons) to decide (the parenthood of a man. Ed.), but the principle accepted by the wise is that a boy is (not only Ed.) the son of his parents, but he is (also. Ed.) the son of the Acharya (a preceptor) and Vidya (Knowledge or wisdom). Indeed, they give him second birth through initiation.
Foot Notes
(सगरे) सङ्ग्रामे । समर्थे इति सांग्रामा नाम (NG 2, 17 ) । समर समर्थ शब्दौ पर्यायो | = In the battle or contest. (पुत्राः) पवित्रः सुखप्रदो वा । पूङ्-पवने । तङ्-पालने (भ्वा०)। = Pure or giver of happiness.
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